खोल कर नयन तीसरे
तांडव करो शंकर भोले
संहार करो, संहार करो
संहार करो उपकार करो..
सजल सजल उन दो आँखों में
केवल कमल नहीं खिलते
कोयल से काले चेहरे को
क्योंकर गज़ल नहीं कहते
चाँद निरंतर घट जाता है
और अमावस कहलाता है
घर भर में बटती है रोटी
उसके हिस्से रोज अमावस
जिन सपनों का कोई सच नहीं
वे सपने चंदा मामा हैं
अपनी बोटी रोज बेच कर
वो जीता, ये क्या ड्रामा है
तुम्हे चिढाता है,मिश्री के
दो दाने वह रोज चढा कर
मैं भूखा, तुम आहार करो..
संहार करो, उपकार करो..
खून चूसता है परजीवी
फिर भी महलों में रहता है
और पसीने के मोती के
घर गंदा नाला बहता है
जिन्दा लाशों की बस्ती में
सपनों से दो उसके बच्चे
टॉफी गंदी, दूध बुरा है
ये जुमले हैं कितने सच्चे
चंदामामा के पन्नों में
चौपाटी पर चने बेचते
बच्चे होते हैं प्यारे
पर क्या बचपन भी होते प्यारे?
बहुत चमकती उन आँखों के
छुई-मुई जैसे सपनों पर
शिवशंकर, अंगार धरो..
संहार करो, उपकार करो..
भांति-भांति के हिजडे देखो
कुछ खाकी में, कुछ खादी में
थोडा गोश्त, बहुत ड्रैकुले
इस कागज की आजादी में
कुछ तेरा भी, कुछ मेरा भी
हिस्सा है इस बरबादी में
हाँ नाखून हमारे भी हैं
भारत माँ नोची जाती में
जो भी अंबर से घबराया
हर बारिश में ओले खाया
जब पानी नें आँख उठाई
सूरज मेघों में था भाई
लेकिन मुर्दों में अंगडाई
बर्फ ध्रुवों की क्या गल पाई?
तुम चिरनिद्रा से प्यार करो..
संहार करो, उपकार करो..
सूरज की आँखों में आँखें
डालोगे, वह जल जायेगा
पर्बत को दाँतों से खींचो
देखोगे वह चल जायेगा
कुछ लोगों की ही मुठ्ठी में
तेरा हक क्योंकर घुटता है
जिसनें मन बारूद किया हो
क्या जमीर उसका लुटता है?
हाँथों में कुछ हाँथ थाम कर
छोटे बच्चो बढ कर देखो
चक्रवात को हटना होगा
बौनी आशा लड कर देखो
इंकलाब का नारा ले कर
झंडा सबसे प्यारा ले कर
हर पर्बत अधिकार करो..
संहार करो, उपकार करो..
*** राजीव रंजन प्रसाद
१७.०२.२००७
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
Mahashivratri ke awasarpar yeh kavita likhi lagati hain.
Hamesha ki tarah samajik stithi ke prati sajag karnewali hai.
Lekin kahin kahin mere liye sankalpanayen samajhna kathin laga.
पहले लगा कि काहे शिव से संहार करने को कह रहे हो, कविता पढ़कर सब मालूम हो गया, बधाई सुन्दर कविता।
कविता में काफ़ी सारे मात्रा दोष हैं, किन्तु भाव अच्छे हैं।
प्रयास जारी रहे।
रिपुदमन पचौरी
राजीव जी,
कविता अच्छी है पर आप की सोच के अनुरुप नही सो और अच्छे का प्रयास जारी रखें
अभिषेक सागर
संहार करो ... उपकार करो...
सहार यानि हिंसा मतलब सभ्य समाज मे त्याज्य क्रिया
और आप कहते हैं कि संहार करो
संहार और वो भी उपकार के रूप में
हां मित्र मैं सहमत हूं आपकी सोच से
भूखे पेट लोग भगवत भजन में लगे हैं
आपकी कविता का स्वर भगवा के कानों तक पहूंचे
इस कामना के साथ
बधाई
ऐसी कविता की आशा तो महाशिवरात्रि के अवसर पर थी। खैर देर आयद, दुरुस्त आयद। कविता बहुत अच्छी लगी। पर संसार को सुधारने के लिये यदि भगवान को ही कुछ करना पड़ा तो उसकी इस तथाकथित सर्वोत्तम कृति 'मानव' के अस्तित्व का प्रयोजन ही क्या रह जाता है। वैसे व्यंग्य अच्छा लगा-
तुम्हे चिढाता है,मिश्री के
दो दाने वह रोज चढा कर
मैं भूखा, तुम आहार करो..
इस सुन्दर रचना के लिये राजीव जी को शुभकामनायें।
खून चूसता है परजीवी
फिर भी महलों में रहता है
और पसीने के मोती....
घर गंदा नाला बहता है
दो दाने वह रोज चढा कर
मैं भूखा, तुम आहार करो....
चाँद निरंतर घट जाता है
और अमावस कहलाता है
घर भर में बटती है रोटी
उसके हिस्से रोज अमावस.....
Rajeevji aapki to main hamesha se hi pankha rahi hu.....aap meri taraf se bhadhai sweekaaren...
This poem will motivate to fight for one's existence.. rights..
Ritu
राजीव जी,
कविता के भाव बहुत संवेदनशील हैं
"चाँद निरंतर घट जाता है
और अमावस कहलाता है
घर भर में बटती है रोटी
उसके हिस्से रोज अमावस"
"टॉफी गंदी, दूध बुरा है
ये जुमले हैं कितने सच्चे"
मार्मिक चित्रण भूख का..
समर्थ (ईश्वर) पर अच्छा व्यंज्ञ और अनुनय भी है
सुन्दर कविता,बहुत बधाई
सस्नेह
गौरव
शुरुआत ही कष्ट के साथ हुई क्युँकि संहार उपकार बन इस तरह की सोच तब तक नही आ सकती जब तक जीने के लिये एक भी आशा अवशेष हो।
आगे जिस तरह से समाजिक विडंबना क चित्रण किया गया है वो हमारे सभ्या समाज पर करार चोट देने के काबिल है।
बहुत सुंदर मर्म् स्पशी कविता के लिये मेरी तरफ से बधाई। :)
चाँद निरंतर घट जाता है
और अमावस कहलाता है
तुम्हे चिढाता है,मिश्री के
दो दाने वह रोज चढा कर
मैं भूखा, तुम आहार करो..
सूरज मेघों में था भाई
लेकिन मुर्दों में अंगडाई
बर्फ ध्रुवों की क्या गल पाई?
तुम चिरनिद्रा से प्यार करो..
पक्तिया बहुत सुन्दर बन पडी है
कुछ शब्दो जैसे ड्रामा, ड्रेकुला का यदि विकल्प आप चुन पाते तो सोने पर सुहागा हो जाता
आपने शिव को एक सच्चा रूप दिया है। आज हर एक पददलित को या यूँ कहिये इंसान को शिवशंकर बनने की जरूरत है।
भांति-भांति के हिजडे देखो
कुछ खाकी में, कुछ खादी में
थोडा गोश्त, बहुत ड्रैकुले
इस कागज की आजादी में
कुछ तेरा भी, कुछ मेरा भी
हिस्सा है इस बरबादी में
हाँ नाखून हमारे भी हैं
भारत माँ नोची जाती में
बहुत हीं बढिया लिखा है आपने।
Kavitaa vahee jo prerit karey,nisvaarth bhaav dikhaaye aur sochney par mazboor karey.Is tarah sochha jaaye toh kaviji is baar apney bhaav vyakta karney mein poornatah safal rahey.
Par doosri aur kucch trutiyaan bhi hain,kavitaa mein har shabd ki mahaatta dikhnee chahiye.Kahin-kahin kavitaa ko aur bhi sundar banaaney ki aavashyaktaa dikhee.Par aap itnee jaldee-jaldee rachnaayen le aatey hain isliye niji jeevan ko dhyaan mein rakhtey huey itnaa chalegaa kyunki aap bhaav vyakta karney mein safal rahey.Aashaa hai kavitaa ki sundartaa bhi badhey.Jaisey ki pehlee 4 panktiyon mein...
"Kholo apney nayan-teesrey,
taandav kaa vyaapaar karo,
sanhaar karo-sanhaar karo,
shankar-bhole upkaar karo"
यह बिल्कुल अनूठी सोच है, शायद आज तक किसी का भी ध्यान इधर नहीं गया होगा-
"तुम्हें चिढाता है, मिसरी के
दो दाने वह रोज चढा कर"
निम्न पंक्तियाँ ईश्वर की सच्ची करतूत बताती हैं-
"बहुत चमकती उन आँखों के
छुई-मुई जैसे सपनों पर
शिवशंकर, अंगार धरो.."
समाज की नपुंसकता का विवेचन-
"भांति-भांति के हिजड़े देखो
कुछ ख़ाकी में, कुछ ख़ादी में
थोड़ा गोश्त, बहुत ड्रैकुले
इस क़ागज़ की आजादी में"
निम्न पंक्तियाँ यह सिखाती हैं कि केवल दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप नहीं होगा। आत्मावलोकन आवश्यक है-
"कुछ तेरा भी, कुछ मेरा भी
हिस्सा है इस बरबादी में
हाँ नाखून हमारे भी हैं
भारत माँ नोची जाती में"
कवि ने एकदम नये मुहावरे का प्रयोग किया है -
"बर्फ ध्रुवों की क्या गल पाई?"
अंत में कवि ने कविता को सम्पूर्ण करने के लिए समस्या का समाधान भी दिया है-
"हाँथों में कुछ हाँथ थाम कर
छोटे बच्चों बढ कर देखो
चक्रवात को हटना होगा
बौनी आशा लड़ कर देखो"
हमेशा की तरह ही सामजिक भाव छाया रहा आपकी कविता में, बुराई के विनाश के लिए आपकी भगवान शिवशंकर से की गई यह काव्य-प्रार्थना सफल हो...
देरी से कविता पढ़ पाने और टिप्पणी समय पर न कर पाने के लिए खेद है।
"चाँद निरंतर घट जाता है
और अमावस कहलाता है
घर भर में बटती है रोटी
उसके हिस्से रोज अमावस"
बहुत सुंदर भाव है ...अच्छा लगा पढ़ना
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)