किस राह चलूँ,किस देस चलूँ मौला
राम कहूँ या रहीम कहूँ,किस भेस छलूँ मौला!!!
सदयुग,द्वापर,त्रेता
सब युग का शेष रचा तूने
कलयुग में क्यूँ लगता है
मूक ध्यान में,लोचन मूँदे बैठा है!
जुग जुग जीने का लोभ मिटा मन से
मोल लगा हर वस्तु का
टका सेर मानव, टका सेर मानवता
कर विनाश इस सृष्टि का
नवनिर्माण का अंकुर फूटे!
कहते थे पुरखे घर के
पल में प्रलय होगी,बहुरी करेगा कब
सो पाप को जी भर कर पुचकारा
और पुण्य को तलुओं तले दबोचा
फिर गये गंगा नहाने
और लगे गुनगुनाने
जय गंगा मैइया,भज गंगे हरे हरे!
इस धरती पर गौतम चले, महावीर चले
गिरे भिक्षा पात्र खनके होंगे दबे मिट्टी तले
टंगे ईसा सूली पर कब से गिरिजाघरों में
मत पूजो उनको ऐसे
पहले उतार कर बिठाओ सिंहासन पर
फिर जलाओ कंदील शीश झुकाकर!
मति का स्थान गति ने लिया
साफ हो या स्वार्थी हो
पुरुषार्थ हो या परमार्थी हो
मूर्छा भी प्रलोभन है
मोक्ष भी प्रलोभन है
छिछला दलदल सब जग
जितना उभरो उतना धँस जाओ!
क्यों तू व्याकुल होता है
न कोई समझा है न कोई समझेगा
तात्पर्य, क्यों पङी ईद दिवाली के ही दिन?
बस "मैं" को ही पाला-पोसा
"मैं" से ही लज्जित हो
और "मैं" में ही मर जाओ!
बिसरी सुध जब लौटी तो
पाया लिपटा था कफन
प्रिय ही आग देता चिता को
जीवन यात्रा सम्पन्न हुई,समाप्त हुई
शेष कुछ नहीं बचा हारने को
किंतु "मैं" अब भी
जीवित है गिराने को!
********अनुपमा चौहान**********
विशेष:-इस कविता में मैंने एक नया प्रयास किया है.रंगों का इस्तेमाल शब्दों की सकारात्मकता और नकारात्मकता दर्शाता है.
१)नीले रंग का इस्तेमाल सारी सकारात्मक चीज़ें बताता है."मौला","राम","रहीम"...सबका रंग एक है.
२)"सदयुग","द्वापर","त्रेता","कलयुग" रंग गहरा होता जा रहा है.पतन दर्शाता है.
३)"जुग जुग" गुलाबी रंग आकर्षण का प्रतीक है.
४)"पाप","ईसा","गिरिजाघरों","चिता" लाल रंग क्रोध,हिंसा,दर्द का प्रतीक है.
५)"गौतम","महावीर" गेरुआ रंग परम आत्मा जो परमात्मा से जुडी हो. इछ्छाहीन,संन्यासी
६)"आग","परमार्थी","पुरुषार्थ",पीला रंग ऊर्जा का प्रतीक.
७)"ईद"'"दिवाली"-हरा रंग मुसलमाओं को दर्शाता है और नारंगी हिन्दुओं को.
८)"यात्रा " हरा रंग निरन्तर,लगातार,प्रगति का प्रतीक है.
९)"कफन" का सफेद,"मिट्टी" का भूरा रंग.
१०)"भिक्षा"-बैंगनी रंग सरलता का प्रतीक है.और "मैं" काला रंग जिसमें मिलकर हर रंग काला हो जाता है.
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
अनुपमा जी..
गंभीर टिप्पणी मैं स्वस्थ होने के बाद कर सकूँगा
किन्तु आपकी कविता सुन कर मुझे बहुत अच्छी लगी, प्रशंसनीय
अनुपम रचना के लिये बधाई
***राजीव रंजन प्रसाद
बस "मैं" को ही पाला-पोसा"मैं" से ही लज्जित होऔर "मैं" में ही मर जाओ!
बिसरी सुध जब लौटी तो पाया लिपटा था प्रिय ही आग देता चिता को जीवन यात्रा सम्पन्न हुई,समाप्त हुई शेष कुछ नहीं बचा हारने कोकिंतु "मैं" अब भी जीवित है गिराने को!
क्या बात है !! बेहद ख़ूबसूरत लिखा है ...यह "मैं"ही जीवन में सब रंग दिखता है
सुन्दर कविता है अनुपमा जी
बहुत अच्छे भाव
"शेष कुछ नहीं बचा हारने को
किंतु "मैं" अब भी
जीवित है गिराने को!"
"किस भेस छलूँ मौला!"
उत्तम
रंगों के संयोजन का निश्चित ही कुछ विशेष अर्थ होगा
:)
कृपया समझायें
सस्नेह
गौरव
वाह अनुपमा जी, रंगों के संयोजन के साथ अच्छी कविता रची है। प्रेरक प्रयास
अनुपमा जी, बहुत सधे शब्दों में एक बहुत बड़ा संदेश दे दिया आपने। बधाई स्वीकार करें। रंगों का प्रयोग भी अच्छा लगा पर काव्य में शब्द खुद ही बोलते भी हैं, दिखते भी हैं और महकते भी हैं, अतः शायद इसकी आवश्यकता नहीं थी।
किस राह चलूँ,किस देस चलूँ मौला
राम कहूँ या रहीम कहूँ,किस भेस छलूँ मौला!!!
क्यों तू व्याकुल होता हैन कोई समझा है न कोई समझेगा तात्पर्य, क्यों पङी ईद दिवाली के ही दिन?बस "मैं" को ही पाला-पोसा"मैं" से ही लज्जित होऔर "मैं" में ही मर जाओ!
नगीने चुन लाई आपके खजाने से :) बहुत खुब और सटीक कहा।
अनुपमा जी,
आपने सत्य कहा है,
"मैं" मारे मन जीत है, मैं को मार कर ही इस संसार को फिर से रहने लायक जगह बनाया जा सकता है
सुन्दर भावों की रंग भरी कविता.... बधाई
,
आपकी इस मेहनत पर चार पँक्तिया -
शब्दों से अठखेलियाँ
फिर रंगों की बौछार
भाव मिश्रित बरसे
'मैं' गया है हार...
अनुपम!!! शब्द-चुनाव, भाव, रंगों का चयन...सबकुछ श्रेष्ठ।
राजीव के जल्द स्वस्थ होने की कामना के साथ आपको इस सुन्दर रचना के लिए बधाई!!!
अनू , कविता का भाव अत्यंत सुन्दर है वर्तमान की पिडा और कलयुगी सत्य को कविता के केनवास पर कुशलता से उतारा है और आपका शब्द संग्रह वृहद होता दिखता है किन्तु एक बात जो मुझे कुछ खटकती है वो है भाषा मे सुघडता की कमी. आप को कुछ प्रयास अपनी काव्य भाषा मे ओज लाने के लिये करना चाहीये जिससे काव्य कुशलता और आपके भावो-संवेदनाओ का कुशल समीकरण सामने आये.
अनुपमा जी,
कविता आप की सुन्दर है. विधि का विधान है कि हम एक ओर अधिक ध्यान दें तो दूसरी ओर ध्यान कम हो जाता है. आप की कविता में रंग-विन्यास पर कुछ अधिक ही नहीं, बहुत अधिक ध्यान दिया गया है. यदि इस ध्यान को परम्परागत शैली में शब्द-विन्यास की ओर लगाया होता तो सम्भवत: मुझ जैसे पाठकों को अधिक भाता. वैसे, कवि की अपनी रुचि और मौलिकता तो महत्वपूर्ण हैं ही.
जब एक कवि पेंटर भी हो तो वह इस तरह के प्रयोग कर चमत्कृत कर सकता है..वाह!! हर रंग का प्रयोग इस तरह जैसे एक कविता में कई कई कवितायें हों...
कवयित्रि आप अनुपमेय हैं, स्वस्थ हो कर जैसे ही नेट से जुडा सुनी हुई कविता को इस रूप मे पढ कर प्रफुल्लित हो उठा। ये पंक्तियाँ जीवंत हैं:
"मोल लगा हर वस्तु का
टका सेर मानव, टका सेर मानवता"
"पल में प्रलय होगी,बहुरी करेगा कब
सो पाप को जी भर कर पुचकारा
और पुण्य को तलुओं तले दबोचा
फिर गये गंगा नहाने"
"मूर्छा भी प्रलोभन है
मोक्ष भी प्रलोभन है
छिछला दलदल सब जग
जितना उभरो उतना धँस जाओ!"
"न कोई समझा है न कोई समझेगा
तात्पर्य, क्यों पङी ईद दिवाली के ही दिन?
बस "मैं" को ही पाला-पोसा
"मैं" से ही लज्जित हो
और "मैं" में ही मर जाओ!
"जीवन यात्रा सम्पन्न हुई,समाप्त हुई
शेष कुछ नहीं बचा हारने को
किंतु "मैं" अब भी
जीवित है गिराने को!"
सचमुच अनुपमेय हो तुम अनुपमा...
*** राजीव रंजन प्रसाद
anupama ji,
apke kavita ki kya taarif karu.
kavita me khoobsoorti aur dard, dono hi bakhubi bayaan kiya hai apne.
age bhi aise hi nagine hame milte rahe, yehi ummeed karte hai apse.
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