आधी रात को
पस्त हौसला ,
चिंता से दुखती धमनियाँ लिये
बैठा हूँ -
कविता लिखने ।
सोचता हूँ , क्या लिखूँ
जिससे दर्द उतार सकूँ सिर का
शब्दों में;
लिखूँ क्या -
जीवन का अर्थ,
कि किनारे पर
पहाड़ तोड़ती सिन्धु की लहरों में
दिखता उन्माद
उसकी घोर विकलता है ?
कि गर्व से
सिर उठाये
गगन चूमते
पर्वत-
के पाँवों पर
कितना बोझ है ?
कि लिख दूँ रंग
उन तसवीरों का,
जो होंगीं बनीं
एक दूजे के लिये;
जिनकी ख्वाहिशों के आँसू
अपनी ही आकृति को
करते हैं
रक्तिम ?
हवा के पर पहने
मन की
बेरोक उड़ान
जो नापती चली थी
मुट्ठी भर आसमान-
उड़ान
जिसमें जला था ईंधन
आशाओं का-
कतरा कतरा,
सोच कर
कि अबकी बार,
हो आते हैं
दूर क्षितिज के पार ।
उड़ते उड़ते ,
थककर गिरते मनस - विहग की
अब भी आशा बरसाती
आँखों की
कुछ पहचान लिखूँ क्या ?
यही सोचकर बैठा हूँ
लिख डालूँ
मन की सारी पीड़ा ,
आशा और निराशा
और अकारण
चेतन और अचेतन-
किसी तरह किसी कविता में -
तभी
चली जाती है बत्ती
और
अधूरी रह जाती है
यह ख्वाहिश भी ।
- आलोक शंकर
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
कवि चला था आशा-निराशा से भरी कविता लिखने, मगर दुर्भाग्य उसका अंत दुःखद् रहा। हम आशा का चेहरा नहीं देख पाए। शायद यही चिरंतन सत्य है, तभी तो सारा साहित्य झूठा है।
कवि के मन की व्याकुल स्थिति का सही वर्णन किया है आपने। कविता का अंत बड़ा हीं मजेदार है।
तभी
चली जाती है बत्ती
और
अधूरी रह जाती है
यह ख्वाहिश भी ।
इसी तरह लिखते रहिये।
आलोक जी शायद ज़बरदस्ती कविता लिखने की कोशिश कर रहे थे, तभी बत्ती चली गई। कविता में कई मनःस्थितियों का घालमेल नजर आता है, पर शायद यही वर्तमान का सबसे बड़ा सच है। पर आलोक जी जैसे कवि से और अच्छी कविता की अपेक्षा उनके चाहने वाले यदि करें तो शायद कुछ गलत नहीं होगा।
बिल्कुल सच लिखा है आपने
चेतन और अचेतन-
किसी तरह किसी कविता में -
तभी
चली जाती है बत्ती
और
अधूरी रह जाती है
यह ख्वाहिश भी ।
जब तक ख्वाहिश मन में है तभी तक जीने की इच्छा भी कायम रह्ती है........ कवि हृदय की पीडा का अच्छा वर्णन किया है आपने.
या-रब दुआये-वसल ना हरगिज़ कबूल हो
फिर दिल में क्या रहा जो हसरत निकल गयी
सुन्दर प्रस्तुति, आलोक जी
बहुत बधाई
सस्नेह
गौरव
liked it.....
Congratulations
Didn't like it as much as ur earlier poems . Its good in style but lacks in substance ( somewhat ) . Looks like the comments on ur earlier poem 'nithari par ' made you write this one in a simplified way . I would rather suggest you to go with the same flow.
आलोक जी..
आप सुन्दर शब्दों के चितेरें है| मैनें आपकी पहली कविता वह पढी थी जो हिन्द-युग्म पर पुरस्कृत हुई थी और तभी जान लिया था कि आप असाधारण क्षमताओं वाले कवि हैं| कविता सुन्दर है| कुछ पंक्तिया जो मुझे अच्छी लगी वे हैं:
"कि गर्व से सिर उठाये
गगन चूमते पर्वत के पाँवों पर
कितना बोझ है "
"जिनकी ख्वाहिशों के आँसू
अपनी ही आकृति को
करते हैं रक्तिम"
"जिसमें जला था ईंधन
आशाओं का-
कतरा कतरा"
आलोकजी, एक और सुन्दर कविता प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
मैं इसे मात्र कवि हृदय की पीड़ा नहीं मानता (बाकि टिप्पणियों में जैसा देखा को मिला), असफलता और प्रयत्न के बीच इसमें असफलता हावी रही। कविता शुरू से अंत एक नकारात्मक संदेश देती है और पीड़ा में बहाने खोजती है, मैने पहले भी कहा है कि प्रत्येक कविता में समाधान भी हो, ऐसा मैं आवश्यक नहीं मानता इसलिए इसे एक अच्छा प्रयत्न कहूँगा।
sundar !
Ripudaman
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