सभ्यता व्यंग्य से मुस्कुराती है
जंगल के आदिम जब "मांदर" की थाप पर
लय में थिरकते हैं
जूड़े में जंगल की बेला महकती है
हँसते हैं, गुच्छे में चिडिया चहकती है
देवी है, देवा है
पंडा है, ओझा है
रोग है, शोक है, मौत है..
भूख है, अकाल है, मौत है..
फिर भी यह उपवन है
हँसमुख है, जीवन है
करवट बदलता हूँ अपनी तलाशों में
होटल में, डिस्को में, बाजों में, ताशों में
बिजली के झटके से जल जाती लाशों में
भागा ही भागा हूँ
पीछा हूँ, आगा हूँ
जगमग चमकती जो
दुनिया महकती जो
उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाथों ने मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाथों ने मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं
देखो तो आईना हँसता है मुझपर
सभ्यता के लेबल पर, मेरी तरक्की पर
हम्माम में ही आदमी का सच नज़र आता है
दंगा ऐसा ही गुसलखाना है मेरे दोस्त
अपनी कमीज पर पडे खून के छींटे संभाल कर रखना
कि दंगा तो होली है,
हर बार नयी कमीज क्यों कर खराब करनी?
तरक्की का दौर है, आदमी बढा है
देखो तो कैसा ये चेहरा गढा है
ऊपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखड़ा हटा तो कोई रक्तबीज है
नया दौर है, सचमुच तरक्की भी क्या चीज है
*** राजीव रंजन प्रसाद
२८.०१.२००७
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
राजीव जी,
आपकी इस कविता पर मैं टिप्पणी नहीं कर सकता, या यह कहिए कि करने के योग्य नहीं हूँ।
prathivi kaa suraj ek hai,chand ek hai...usi prakaar aap bhi anoothe, anmol ek hi hain
अब क्या कहूँ, राजीव जी |
यथार्थ का कितना सजीव चित्रण है इस कविता में
"अपनी कमीज पर पडे खून के छींटे संभाल कर रखना
कि "दंगा तो होली है",
हर बार नयी कमीज क्यों कर खराब करनी? "
मैं आपको "चित्रकार" ठीक ही कहता हूँ|
"ऊपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखड़ा हटा तो कोई रक्तबीज है"
अत्यन्त अद्भुत |
Rajeev ji,
Aapki kavita sach me samay ki teeno kalo se hoker hum sab tak pahuchi hai....
आपकी कविता अन्त:करण और चैतन्य को प्रभावित करती है...हर शब्द और हर पंक्ति अत्यन्त अर्थपूर्ण और बिल्कुल उपयुक्त स्थल पर है....बधाई !!
Kya likhu Sir .
kamal ki kavita hai .
sayad kamal word sahi nahi hoga is
hriday vedi kavita k liye..
bahut hi acchi hai ...
Isi prakar likhte rahe..
I got ur blog address from Sameer
abhi aapki ye kavita paddi hai "Tarrakki"...bahut accha likha hai..exactly reallity of life...sab kuch sach hai yahan...bahut accha laga pad kar
I ll jst say its Fabulous
उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
ये तीन पंक्तियां कविता का प्राण हैं
यदि मनुष्य क्या ओर कौन का अर्थ समझ ले तो यह दुनिया कदाचित स्वर्ग से भी सुन्दर हो जाये
सुन्दर रचना, बधाई स्वीकार करें
मोहिन्दर
Ripudaman Pachauri said...
राजीव बहुत ही संवेदनशीलता झलकती है तुम्हारी कविता में।
अतुकांत कविता कभी मुझे रास नही आती थी पर तुम्हारी बात ही कुछ और है। बहुत ही प्रभावशाली कविता लिखते हो।
रिपुदमन पचौरी
"उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को"
बहुत अच्छी कविता है, प्रतीत होता है कि आपने इसे लिखी नहीं ॰॰॰॰॰ बल्कि किसी क्षुब्ध हृदय में छुपा हुआ, तडपता हुआ एक जीव अपने क्रंदन का चित्रावलोकन कर रहा है। "मुखड़ा हटा तो कोई रक्तबीज है"। जरुरत है आतमावलोकन की।
हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
अभिषेक
Rajiv ji,
main kya kahoon. Aap ki kavita ke saamne mere shabd baune par jaate hain. Itne saare logon ne jo kaha hai sach kaha hai. Main kuchh jyada nahi kah paoonga.
Bas isi tarah humaara margdarshan karte rahiye.
bhaut ghari baat kahi hai rajiv ji apane
aur aajkal ka sajeev chitran kar diya ho jaise
sabhayata ke nama par jo nanga naach ho raha hai
aapko padhna sochna achha laga
उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाथों ने मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाथों ने मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं
राजीवजी आपका अमानवियता पर काव्यात्मक प्रहार अच्छा लगा, कविता की शुरूआत ही आपने बहुत उम्दा तरीके से की है - "सभ्यता व्यंग्य से मुस्कुराती है"
बधाई स्वीकारें।
ऊपर तो आदम सा लगता है अब भी
मुखड़ा हटा तो कोई रक्तबीज है
राजीव जी , अबकी बार आपने अपनी क्षमता का सही उपयोग किया है । सही है - जरूरत है ऐसे कवियों और ऐसी कविताओं की ।
आपकी कविता की पहली लाइन को थोड़ा बदल दें तो पूरी कविता का सार झलक सकता है
:
" सभ्यता व्यंग (अपंग) हो मुस्कुराती है ।"
राजीव जी इतनी सुन्दर कविता के लिए बहुत बहुत बधाई। कविता अतुकांत होते हुए भी अपनी लय को जितनी सहजता से बरकरार रखती है, वह इसकी जीवंतता को नई ऊँचाई प्रदान करती है। शब्दों का बार बार दोहराव इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देता है, परन्तु सबसे अधिक जो चीज कविता को दीर्घजीवी बनाती है वो है इसका भाव क्षेत्र। जीवन को अपनी पूरी समग्रता में छूते हुए यह पाठक के सामने उसका एक जीवंत चित्र उपस्थित कर देती है जो कविता की सशक्तता का प्रमाण है। एक बार फिर इसके लिए आपको बधाई।
अच्छा लिखा है
क्या सच सभ्यता प्रगति का हाथ थामे आगे ही जा रही है? अपने को अधुनिक कहकर दम भरने वाले हम, कपड़ों के भीतर ही नहीं, अपने स्व के समक्ष नंगे हैं आज भी ।
व्यंग के लिये पूरा स्थान और वह भी एक बेहद संवेदन्शील तथा सभ्यता के परिप्रेक्क्ष मे विचारणीय होने की हद तक हस्यास्पद विषय पर, "धर्म",
"उसके उस मौन को
मैं हूँ "क्या" "कौन्" को
उस पल तब जाना था
जबकि कुछ हाथों ने मस्जिद गिराई थी
राम अब तक घुटता है भीतर मेरे
फिर कुछ हाथों ने मंदिर जलाया था
रहीम के चेहरे में अब भी फफोले हैं" ।
माफ़ किजियेगा यदि आपका उद्देश्य ना हो फ़िर भी मैंने इन पंक्तियों मे भरपूर व्यंग सुना है ।
प्रतिक्रिया देते हुये मैं आप पर अत्तीतोन्मुखी होने का अरोप तो नहीं लगा सकता क्योंकी बड़ी सफ़ाई से आप इस बात को छुपा गये हैं । इस बात के लिये बधाई दूंगा, और हां इसके लिये भी कि सवाल जगा, जवाबों की झड़ी नहीं लगाई आपने, बस एक हल्का सा कविता की हर पंक्ति मे रचा बसा जवाब(समाधान कहीं नहीं!!) और इसे ही मैं एक कविता, एक रचना की सच्ची सफ़लता मनता हूं ।
तरक्की पर सवाल उठा, रक्त्बीज चिन्हित कर, कहीं भी समाधान के लिये कोई आग्रह नहीं... प्रश्न अपराजेय हैं, रहेंगे, उत्तर मैदान छोड़ भाग सकते हैं कभी भी...
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