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Sunday, January 14, 2007

मंथरा उवाच


मेरे अतीत का कत्ल किया,
पर रोक सके क्या वाणी को?
भले लक्ष सरवर बन जाए यहाँ,
रोका किसने है पानी को ।

था कईयों ने प्रतिकार किया,
मेरे यश का संहार किया।
न्याय हुआ संग रानी के,
पर हमपर किसने उपकार किया ।

नानी से बढकर प्यार दिया,
माँ से बढकर था लाड़ दिया।
कुछ सपने देखे थे मैंने ,
पर किसने मुझे अधिकार दिया ।

थे पुरूषोत्तम वो जगन्नाथ,
था प्रेम मुझे उनसे अगाध।
पर ज्येष्ठ पुत्र से अतिस्नेह,
आया न कभी था मुझे रास।

भरत भी था अनुज उनका,
पर लखन को था हर प्यार मिला ।
क्रुद्ध नहीं मैं भगवन से ,
इस लोक से है मुझे गिला ।

वाल्मीकि ,तुलसी या गुप्त हों,
रामचरित या हो साकेत।
सब भूल गए इस अबला को,
क्या रक्त हो चुका उनका श्वेत ।

एक ,दो वर्षों की कौन कहे,
चौदह वर्षों का मौका था ।
था क्लिष्ट लक्ष्य ,पर्याप्त समय,
रावण का वध क्या धोखा था ।

ना हूर सही,ना नूर सही,
सतयुग की मैं थी धुरी ।
मैं कुब्जा भली,कुरूप भली,
पर बिन मेरे रामकथा अधुरी ।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

अति सुन्दर रचना रचा है, मन्थरा कि व्यथा कि क्य व्याख्या की है?

ना हूर सही,ना नूर सही,
सतयुग की मैं थी धुरी ।
मैं कुब्जा भली,कुरूप भली,
पर बिन मेरे रामकथा अधुरी ।
यह पंक्तियाँ वास्तव मे बहुत कुछ कह रही है।

Anonymous का कहना है कि -

जैसे गुप्त जी को उर्मीला का विरह सहन नहीं हुआ...
दिनकर जी को कर्ण भाया......
लगता है आपको भी मंथरा की पीड़ा समझ में
आ ही गई....।अच्छा प्रस्तुतिकरण...।

Anonymous का कहना है कि -

दीपक , आपने जो विषय चुना कविता का, उससे बहुत प्रसन्नता हुई। आपके पास अच्छे शब्दों की कमी नहीं है। कुछ मित्रवत सुझाव हैं- कविता रामायण युगीन चरित्र के ऊपर है, आपने तत्सम शब्दों का अच्छा उपयोग किया है, "ना हूर सही,ना नूर सही" में 'हूर'और 'नूर' तत्सम शब्दों के बीच थोड़े अलग थलग पड़ जाते हैं ,' कत्ल ' फ़िर भी अपनी जगह ठीक है। कहीं कहीं कविता में अपरिपक्वता झलकती है ऐसा लगा जैसे कविता एक ही बार में लिख दी गयी है। मैं आज आपकी कविता का इंतजार कर रहा था, इतना जरूर कहूँगा कि मैं निराश नहीं हुआ। कविता का विषय और जो भाव आपने डालने की कोशिश की है, वह प्रशंसनीय है। आपमें काफ़ी क्षमता है बस यों ही अच्छी कवितायें पढने का अवसर देते रहिये।
"थे पुरूषोत्तम वो जगन्नाथ,
था प्रेम मुझे उनसे अगाध।
पर ज्येष्ठ पुत्र से अतिस्नेह,
आया न कभी था मुझे रास।"
इन पंक्तियों में जिस प्रकार आपने शब्दों का प्रयोग किया है यह काफ़ी पसंद आया।

Anonymous का कहना है कि -

वाह, सुंदर अभिव्यक्ति के लिये बधाई स्विकारें.

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आप इस कविता की डोर पकड कर पूरा महाकाव्य लिख सकते हैं|

Anonymous का कहना है कि -

हमेशा की तरह सुंदर अभिव्यक्ति।
तन्हाजी बधाई स्वीकर करें।

Anonymous का कहना है कि -

अति सुंदर रचना ।

मैं ने भी अपने ब्लाग पर माँ मंथरा नामक एक खण्डकाव्य लिखना शुरु किया है लेकिन अभी तक इसमें कई खंडों में केवल 107 पद ही पठाए गए हैं ।

Anonymous का कहना है कि -

सुंदर रचना के लिये बधाई !!

रीतेश गुप्ता

Anonymous का कहना है कि -

Ab tak aayi kisi bhi tippadi me ek baat shayad bas chut hi gayi, ye सतयुग की मैं थी धुरी ।
"Satyug" ?? sure.. lock kar dun? Hamne to suna tha koi "tretayug" hua karta tha, ho sakta hai main galat hun.
Kavita ki prerana to samjh me aa hi rahi hai, jaise hamare "divine india" ko aayi, haan beshak prastuti karan bhi achcha tha par gati atak atak si jaati thi. jaise "भले लक्ष सरवर बन जाए यहाँ" aur "पर किसने मुझे अधिकार दिया" samet aur bhi jagahen hain jahan padhate padhate rukna hi padta hai. Ap ke jaisa saksham kavi punarvichar kare to gati to sudhar hi sakti hai.
Vaicharik kavita hai to beshak manbhed bhi hinge, bhavon me matbhed avval to apni hi samajh me nahi aate, aur dusara ye ki bhaav itne pavitra bana kar rakhe gaye hain ki matbhed jaisi baton ka us seemapaar koi farak bhi nahi padta.
Haan to apka kahna hai
भरत भी था अनुज उनका,
पर लखन को था हर प्यार मिला
क्रुद्ध नहीं मैं भगवन से ,
इस लोक से है मुझे गिला
to...?? Chalo maan liya manthare teera koi svarth nahi, sab prem vash, par bharat lok prem paa saken iske liye chaudah varsh ?
कुछ सपने देखे थे मैंने ,
पर किसने मुझे अधिकार दिया
Haan ye huyi na asal baat. Par iske liye क्या रक्त हो चुका उनका श्वेत ? Manthare apni mahatvakanshaon ko lok prashidhdhi yaa bharat prem ka jaam pahnaane ke prayason me tum vifal rahi ho, treta me bhi aur aj Tanha ji ki lekhani se sammanit hone ke baad bhi.
Baki Tanha ji kahin baithi dkeh rahi hongi yadi Manthara ji to yah kavita padh prasann avashya huyi hongi. Mehnati kavita.

विश्व दीपक का कहना है कि -

मित्रों ,कविता के लिये समय निकालने और टिप्प्णी करने के लिये आपका धन्यवाद ।
आलोक शंकर जी आपका कथन सही है कि कविता एक हीं बार में लिखी हुई है , इसलिए कहीं-कहीं कमजोर पड़ती है। मैं कोई बहाना नहीं बनाना चाहता या कोई बड़्प्पन नहीं कमाना चाहता ,परंतु मैंने यह कविता तब लिखी थी,जब मुझे शब्दों का अधिक ज्ञान नहीं था। मैंने दसवीं कक्षा में इसे लिखा था ।

राजीव रंजन जी महाकाव्य रचना मेरे बूते का नहीं।
इतना ज्ञान मुझे है हीं नहीं।

उपस्थित जी , आपकी उपस्थिती के लिये आपका धन्यवाद । मुझे भी बाद में यह भान हुआ था कि भगवान राम सतयुग में नहीं थे। परंतु लिखने समय मुझे त्रेतायुग की जानकारी नहीं थी । आपने इसे रेखांकित किया , इसके लिये आपका शुक्रिया । रही बात चौदह साल के वनवास और भरत के प्रति प्रेम की तो इतनी गूढ बात मेरे मस्तिष्क में नहीं आई ,इसलिए मैं अपनी लेखनी को दोषी नहीं मानता क्योंकि मंथरा जैसी तिरस्कृत व्यक्तित्व को लेकर साथ चलना और कुछ छंदॊं में हीं उसे पवित्र साबित कर देना , मुझ तुच्छ के लिए पहाड के समान कार्य है । यह रचना मुझे भी अपूर्ण लगती है । बावजूद इसके इसके कुछ छंद मुझे आज भी अपनी कृतियों में सर्वोपरि लगते हैं । संभव है कुछ लोग इससे सहमत न हों ।

मेरी पसंदीदा छंद जिसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया -

एक ,दो वर्षों की कौन कहे,
चौदह वर्षों का मौका था ।
था क्लिष्ट लक्ष्य ,पर्याप्त समय,
रावण का वध क्या धोखा था ।

मैं अगर कुछ ज्यादा कह गया तो मुझे एक बालक समझ कर माफ कर दीजियेगा ।

Medha P का कहना है कि -

"पर बिन मेरे रामकथा अधुरी ।"
Manthara ki vyatha aur confidence dono dikhayi diya hai.

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