कई भोर बीते, सुबह न आई
तो सूरज से पूछा
हुआ क्या है भाई?
पिघलती हुई एक गज़ल बन गये हो
ये पीली उदासी है या चाँदनी है
वो अहसास गुम क्यों
वो गर्मी कहाँ है?
अगर रोशनी है,कहाँ है छुपाई?
कई भोर बीते, सुबह न आई..
तो सूरज ने मुझको
हिकारत से देखा
आँखें दबा कर
शरारत से देखा
कहा अपने जाले से
निकला है कोई
तुम्हारे ही भीतर
तुम्हारी है दुनिया
तुम्हीं पलकें मूंदे अंधेरा किये हो
तुम्हें देती किसकी हैं बातें सुनाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..
तुमसे है रोशन
अगर सारी दुनिया
तो मेरी ही दुनिया में
कैसा अंधेरा?
ये कैसा बहाना
कि इलजाम मुझपर
ये कैसी कहानी
कि बेनाम हो कर
मुझे ही मेरा दोष
बतला रहे हो?
मुझे दो उजाला तुम्हे है दुहाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..
ये उजले सवरे उन्हें ही मिलेंगे
जो आंखों को मन की खोला करेंगे
यादों की पट्टी पलक से हटाओ
कसक के सभी द्वार खोलो
खुली स्वास लो तुम
अपने ही में गुम
न रह कर उठो तुम
तो देखो हरएक फूल में
वो है तुमनें
पलक मूंद कर जिसको
मोती बनाया
नई मंज़िलों को तलाशो तो भाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..
*** राजीव रंजन प्रसाद
२.०१.२००७
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही अच्छी रचना ।
bahut hi achchhi rachna hai.
bahut sundar likha hai apne.
राजीव जी,
चलिए अच्छा है। तुषार के बाद आप भी आशावादी कविता के साथ प्रस्तुत हुये हैं।
आप निम्न पंक्तियों ने मुझे भी जगाया-
ये उजले सवरे उन्हें ही मिलेंगे
जो आंखों को मन की खोला करेंगे
यादों की पट्टी पलक से हटाओ
कसक के सभी द्वार खोलो
खुली स्वास लो तुम
अपने ही में गुम
न रह कर उठो तुम
तो देखो हरएक फूल में
वो है तुमनें
पलक मूंद कर जिसको
मोती बनाया
नई मंज़िलों को तलाशो तो भाई
सही है.
अतिसुन्दर आशावादी कविता.
यादों की पट्टी पलक से हटाओ
कसक के सभी द्वार खोलो
खुली स्वास लो तुम
सही है.
श्रेष्ठ भाव और सुन्दर रचना, सिर्फ़ एक बात- "यादों की पट्टी " से शिकायत है। पूरी कविता उत्कृष्ट मानवीय चेतना की वकालत करती है और जब चेतना पाने के उपाय की बारी आती है तो कवि "यादों की पट्टी " को अचेतना का कारण बताकर खानापूरी कर लेता है जो
"ये उजले सवरे उन्हें ही मिलेंगे
जो आंखों को मन की खोला करेंगे"
जैसी पंक्तियों की सुन्दरता पर प्रहार करते हैं।
कविता की उत्कृष्टता सराहनीय है।
"स्वास" की जगह "श्वास" होना चहिये , पर संभवतः यह "टाइपिंग मिस्टेक" है
कविता की सराहना के लिये धन्यवाद|मैं आलोक शंकर जी से सहमत हूं कि "जब चेतना पाने के उपाय की बारी आती है तो कवि "यादों की पट्टी " को अचेतना का कारण बताकर खानापूरी कर लेता है" तथापि मुझे लगता है कि "यादों कि पट्टी" पलक से न हटे तो "कसक के सभी द्वार" कैसे खुलेंगे? "खुली स्वास लो" तुम लिखने के अभिप्राय को पानें के लिये बंधन से मुक्ति के चित्रन का प्रयास था जो असफल रहा| इतनी सटीक समालोचना के लिये आलोक जी को साधुवाद|यद्यपि "स्वास" की जगह "श्वास" करने पर अर्थ में अंतर नहीं पडता किंतु काव्य पठन के समय उसकी रवानी में अंतर आता है, मेरे अनुसार भी टाइपिंग मिस्टेक है की जगह "स्वांस" होना चाहिये था, यत्न करूंगा कि अगली पोस्टिंग में ये गल्तियाँ न हों
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