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Friday, December 29, 2006

आ जाओ


ऐ सुनो!
चाँद छुपने चला है,
साथ-साथ मेरे, एक तारा,
रात भर जला है।
ताक-ताक के रास्ता तुम्हारा
सड़के पथरा गई हैं।
तुम तक पहुँची नहीं आह मेरी
शायद
दीवारों से टकरा गई है।
टूटने लगा है सब्र मेरा
अब और न तड़पाओ।
आ जाओ।
हवाओं में सिहरन छाने लगी है।
रात की खामोशी गुनगुनाने लगी है।
अक्स दरख़्तों का,
लगा तुम्हारा साया है।
पत्तों की सरसराहट ने मुझको,
रात भर भरमाया है।
हालत पे मेरी कुछ तो तरस खाओ।
आ जाओ।
एक-एक करके साँसों का बोझ
कम होता जा रहा है,
पल-पल करके अंधेरा
खोता जा रहा है।
एक मुझे ही नहीं,
इस चाँद को,
इन तारों को,
इन पथराई सड़कों को,
इस गुम होते अँधियारे को,
सबको,
तुम्हारा ही इंतज़ार है।
मेरी न सुनो
पर
इनकी गुजारिश न ठुकराओ।
आ जाओ।
ऐ! आ जाओ।


कवि- मनीष वंदेमातरम्।

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3 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

ए आ जाओ
और बोगस बात ये सुन कर
अंडे टमाटर दे जाओ
या किसी
टूटी चप्पल से
मेरा अभिनंदन कर जाओ

Anonymous का कहना है कि -

एक मिठी, मनभावन कविता। पढकर आनंद आ गया। शब्दों का चयन बहुत प्यारा है।लगता है मन लगाकर किसीको पुकारा है। अहा। अपनी बिरहा की रातों का आलम याद आ गया। बार बार पढने के लिये मन ललचा गया। मज़ा आ गया।

तुषार जोशी, नागपुर

Anonymous का कहना है कि -

very good

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