आस्था -१
मुझे गहरी आस्था है तुम पर
पत्थर को सिर झुका कर
मैने ही देवत्व दिया था
फिर
तुम तो मेरा ही दिल हो..
*** राजीव रंजन प्रसाद
आस्था -२
हमारे बीच बहुत कुछ टूट गया है
हमारे भीतर बहुत कुछ छूट गया है
कैसे दर्द नें तराश कर बुत बना दिया हमें
और तनहाई हमसे लिपट कर
हमारे दिलों की हथेलियाँ मिलानें को तत्पर है
पत्थर फिर बोलेंगे
ये कैसी आस्था?
*** राजीव रंजन प्रसाद
आस्था -३
सपना ही तो टूटा है
मौत ही तो आई है मुझे
जी नहीं पाओगे तुम लेकिन
इतनी तो आस्था है तुम्हे
मुझपर..
*** राजीव रंजन प्रसाद
आस्था -४
पागल हूं तो पत्थर मारो
दीवाना हूँ हँस लो मुझपर
मुझे तुम्हारी नादानी से
और आस्थाये गढनी हैं...
*** राजीव रंजन प्रसाद
आस्था -५
तुमनें
बहते हुए पानी में
मेरा ही तो नाम लिखा था
और ठहर कर हथेलियों से भँवरें बना दीं
आस्थायें अबूझे शब्द हो गयी हैं
मिट नहीं सकती लेकिन..
*** राजीव रंजन प्रसाद
आस्था -६
मेरे कलेजे को कुचल कर
तुम्हारे मासूम पैर ज़ख्मी तो नहीं हुए?
मेरे प्यार
मेरी आस्थायें सिसक उठी हैं
इतना भी यकीं न था तुम्हें
कह कर ही देखा होता कि मौत आये तुम्हें
कलेजा चीर कर
तुम्हें फूलों पर रख आता..
*** राजीव रंजन प्रसाद
६.०१.१९९७
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
आप आखिरी वाली में मजाक कर रहे हैं, है न!! बकिया...बेहतरीन हैं, सुंदर भाव, बधाई.
आपके प्यार की दास्ताँ पढ़कर तो ऐसा ही लगता है कि समीर भाई ठीक कह रहे हैं।
प्रत्येक क्षणिका दिल से लिखी गयी है।
पढ़कर मज़ा आ गया।
बड़ा कठोर कलेजा है!
निःसंदेह "अद्भुत" आस्थायें,छः सुन्दर मोतियों से गुँथी हुयी अनमोल कृति,धन्यवाद् |
सभी आस्थाएँ अच्छी लगीं, बहुत सुन्दर अनुभूति हैं
बड़ी खतरनाक आस्थाएं हैं :)
रचना को स्नेह देने के लिये आप सभी का धन्यवाद
शब्द संयोजन सुधारें।
अच्छा प्रयास है।
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