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Wednesday, October 18, 2006

उत्‍सव


ईद हो या हो दीवाली,
आये खुशियों की हरियाली।
पर्व हो उत्‍साह उमंगों का,
और हो होली के रंगों का।।

त्‍यौहारों का अवसर होता है,
घर-घर में उत्‍सव होता है।
त्‍यौहारों में नफरत की जगह नहीं,
पर्वों पर सारा जग मिलकर रहता है।

पर्व भेद भाव मिटाते हैं,
बडे छोटों को भी गले लगाते हैं।
भाई चारे की टूटी खाई में,
ये उत्‍सव मलहम बन जाते हैं।

17.10.2006 को मित्र शुभम के द्वारा त्‍यौहर पर मागे जाने पर रचित

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2 कविताप्रेमियों का कहना है :

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

अच्छी कविता रच डाली आपने बहुत कम समय में।

बधाई!!!

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

ये पर्व ही जहाँ हम सबकुछ भूल जाते हैं,
जाति भूल जाते हैं, धर्म भूल जाते हैं
क्या अमेरिका, क्या इरान क्या पाकिस्तान
हम सब एक-दूज़े में शक्कर की तरह घुल जाते हैं।

बहुत अच्छा प्रयास है, प्रमेन्द्र जी,
लिखते रहिए।

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