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Saturday, October 14, 2006

तो कितना अच्छा था!


प्रिय,
न जाने क्यूँ, आज
तुम्हारी स्मृति मुझे बेकल किये जा रही है
याद आ रही है
वो अमराईयों की घनी छाँव
जिसमें मैं बेसुध लेटा था
और तुम
मेरे आर-पार अपनी बाँहों से
इन्द्रधनुष बनाती हुई, मेरे ऊपर झुकी थी
नीले चीर में लिपटी तुम
ऐसा लगता था जैसे
सारा आसमान खींचकर बदन पर लपेट लिया हो
आज बहुत याद आता है वो पल
जब प्रेम के अतिरेक में आकर
मेरे अधरों ने तुम्हारे कपोलों को चूमा था
और फिर
शर्माकर तुम्हारा, मेरे सीने से लिपट जाना
वो दो धड़कनों का महासंगम
वो दो साँसों की सरगम
जो आज भी इन गुँजती स्वरलहरियों में ज़िंदा है
तुम्हारी याद में तिल-तिल के मरता ये दिल
रो-रो के ये ही याद करता है कि
जब रखा तुमने सर अपना
सीने पे मेरे
उस वक्त
ये दम ही निकल जाता तो कितना अच्छा था!


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4 कविताप्रेमियों का कहना है :

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

बहुत खूब ...... मनीष जी

Anonymous का कहना है कि -

vaah vaah
bahut badhiya

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

नीले चीर में लिपटी तुम
ऐसा लगता था जैसे
सारा आसमान खींचकर बदन पर लपेट लिया हो



यादों को शब्दों का आकार दे रहें हो
भले कोरी कल्पना का
चित्रण कर रहे हों
अभिव्यक्ति लाजवाब है और
उसका चित्रण अदभूद
हर आगन्तुक प्रेम-रस में डुबेगा
निश्चय ही होके मंत्रमुग्ध

शुभकामनाएँ!!!

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