आज हम इंसान बनने की तरफ हैं,
पर इंसानियत के गुण सब एक तरफ हैं।
हँसते हुये चेहरे को हँसी मत समझना,
मन को बहलाने के बहाने बहुत हैं।
देखकर दुनिया हैराँ होते तारे,
हमसे ज्यादा तो यहाँ इंसाँ बहुत हैं।
ज्यों जला दीपक तो उसको यह पता चला,
उसकी लौ को बुझाने वाले तो बहुत हैं।
शब्द बोता जा रहा मैं, इस खेत में,
काटने को तो यहाँ मंजर बहुत हैं।
बहता रहता है मन ना जाने कहाँ-कहाँ,
इस मन को रहने के ठिकाने बहुत हैं।
- अनिल कुमार त्रिवेदी (सन् २००३)
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कविताप्रेमी का कहना है :
अनिल कुमार त्रिवेदी बहुत अच्छा लिखा आपने
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