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Tuesday, August 29, 2006

पथभ्रष्ट पथिक!


आधी रात व सूनी सड़क
अनवरत चलता वो,
पथभ्रष्ट पथिक!
चलता ही जा रहा है जैसे,
अगले चौराहे पर उसे
कोई अपना मिल जायेगा
सही रास्ता बतायेगा।
उसी चौराहे पर॰॰॰॰॰
अकेला रिक्शा वाला नींद में॰॰॰
पथिक को देखकर बोला,
बाबू जी! अज़नबी अँधियारे व,
गुमनाम सड़क पर, ऐसे क्यों
चल रहे हो
घड़ी की सूई की तरह
जो चलता है हमेशा पर॰॰
पहुँचता कहीं नहीं?
आओ, मैं ले चलता हूँ,
सत्य, अहिंसा, ज्ञान व त्याग
के रास्ते पर,
तब उसने रोडलाईट के चारों तरफ
मंडराने वाले उन बहादुर पतंगों को देखा
जो कोसों दूर से उड़कर आये हैं
व शमा को चूमने के प्रयास में
अपने को जलाते जा रहे हैं,
फिर भी उनका हौसला कम नहीं होता!

ऐ पथिक! देख, इन बहादुर पतंगों को,
और चल,
सत्य, अहिंसा, ज्ञान व त्याग
के रास्ते पर
जिस पर चलकर तू
अपने लक्ष्य तक पहुँचे
और दुनिया को प्रकाशित करे।
आखिर प्रकाश ही तो जीवन है।
---अनिल वत्स (२३-०९-२००५)

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कविताप्रेमी का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

अनिल जी आपने एक पथभ्रष्ट पथिक की अच्छी कल्पना करी है, पढ़कर अच्छा लगा,
पर सच कहूँ तो कहीं न कहीं मेरा दिल थोडी और गहरे की तलाश करता रहा.
शुभकामनाओं समेत
आलोक सिंह 'साहिल'

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