वह सो गया है
बैठे-बैठे,
अपनी छोटी सी नाव में।
उसका बाप मछलियाँ भून रहा है,
नाव ही घर है उसका
बाप ही परिवार।
माँ मर गयी है,
उसे भूख की बीमारी थी।
लहरों की चोट से
जैसे ही हिलती है नाव,
हिलने लगते हैं उसके सपने।
सबकुछ गड़मड हो जाता है जैसे,
वह चीजों को अलग-अलग
पहचानने की कोशिश करता है।
पलकों से दबी पुतलियाँ,
तेजी से घूमने लगती हैं।
घबराहट से नींद टूट जाती है
देखता है-
बाप मछलियों में मगन है,
वह मुस्कुराकर आँखें बंद कर लेता है।
उसके चेहरे पर संतोष है,
सपने स्पष्ट,
पुतलियाँ स्थिर,
पानी शांत।
--मनीष वंदेमातरम् (२८ जून २००५)
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3 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुन्दर!
घुघूती बासूती
agar kahun to fakat behatarin hi kah sakta hun.
फकत दो जून के रोटी को तरसती ....लोगो के सपने आपने स्पस्ट कर दिए अपनी कविता मे...........अच्छी प्रस्तुति ............ .
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