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Friday, July 14, 2006

आख़िर जीना कौन नहीं चाहता!


कि एक कुनबा था
हँसता-खेलता
एक तीसरे ने चुगली की
आँगन में दीवार खड़ी हो गई
बड़ों ने एक दूसरे के सिर फाड़े
बच्चों ने कपड़े
आये दिन
आँगन में पत्थर बरसने लगे
दिन साज़िश में गुजरता
रात दहशत में
घर में मुर्दानी छा गई
खुशियों को काठ मार गया
आँगन का अंधियारा इतना गाढ़ा हो गया
कि खुद की बर्बादी भी नज़र नहीं आती

॰॰॰ कि एक दिन
यूंही
एक लड़के ने
उस दीवार पर दीया जला दिया
उसी साझी दीवार पर
दोनों आँगन रौशन हो गये
बच्चे किलकारी मार आँगन में जमा हुये
मर्द चारपाई डालकर लेटे रहे
औरतें सब्जी चाकू ले आयीं
सबके चेहरे दमक उठे
अंधेरा पिघला
खुशी बही
जिंदगी तैरने लगी
आख़िर जीना कौन नहीं चाहता?
---मनीष वंदेमातरम्
(१७-०७-२००५)

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4 कविताप्रेमियों का कहना है :

आशीष "अंशुमाली" का कहना है कि -

मर्द चारपाई डालकर लेटे रहे
औरतें सब्जी चाकू ले आयीं
बहुत सुन्‍दर गहरी सम्‍प्रेषणीयता है।

आलोक साहिल का कहना है कि -

AKHIR KAUN JINA NAHI CHAHTA, Manish ji apne kya khoob rachi!
Jindagi ko jee pane ki ek adani si koshish ka jo sunder chitran apne kiya hai wo wakai kabile tarif hai.

Anonymous का कहना है कि -

मनीष जी ,
सचमुच भाव बहुत ही अच्छे और उतनी ही अच्छी सम्प्रेसनियेता ..काश! येसा अपने नेता सोचते तो आज भारत और पाकिस्तान ,या हिंदू मुस्लिम के बिच ये दुरिया नही होती .......न ही दो संप्रदाय ,जात कौम के बीच घमासान ............यह कविता उन्हें पढ़नी चाहिए .....................

सदा का कहना है कि -

बहुत ही अच्‍छा लिखा है, बधाई ।

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