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ठूंठ पीढ़ियां, बेबस माली...


जिन पेड़ों ने फल नहीं दिए,
उन्हें भी सींचा गया था सलीके से
भरपूर खाद-पानी और देखभाल के साथ..
हवा भी उतनी ही मिली थी उन्हें,
जितनी बाक़ी पेड़ों के नसीब में थी....
उम्मीद के लंबे अंतराल ने दिया
माली को ठूँठ पेड़ों का दुख..

ये दुख नहीं बना चर्चा का विषय
बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवियों के बीच
या किसी भी अखबार के पन्ने पर,

पीढ़ी दर पीढ़ी उगते रहे ठूंठ
और घेरते रहे जगह,
फलदार पेड़ों के बरक्स....

फलदार पेड़ों को क्या था..
झूमकर लहराते रहे अपनी किस्मत पर....
ठूंठ पेड़ों से बिना उलझे,
मुंह घुमाकर समझते रहे,
कि हर ओर हरी है दुनिया....

उधर मालियों ने फिर भी सींचा,
नए बीजों को, नई उम्मीद से...
जब तक नीरस नहीं हुई पूरी पीढ़ी...

फिर बेबस मालियों ने सोचा उपाय
ठूंठ पेड़ों से कुछ काम निकाला जाये..
गर्दन में फंसाकर फंदे,
वो झूल गए इन्हीं पेड़ों पर...
और थोड़े-से फलदार पेड़ देखते रहे
अपनी तयशुदा मौत का पहला भाग...

काश! फलदार पेड़ों ने किया होता प्रतिरोध
ज़रा-सा भी,
तो ठूंठ पेड़ों में फल तो नहीं आते,
मगर वो समय रहते शर्म से
टूटकर गिर ज़रूर जाते,

कि ज़िंदा रहते माली
ताकि,
फलदार पेड़ों की भी हरी रहती डाली....

 
निखिल आनंद गिरि