दिनेश शुक्ल की कविताओं में स्मृतियाँ भी आती हैं तो भी सरोकारों के साथ। शायद इन्हें चौकन्ना कवि भी कहा जा सकता है जो अपने आस-पास होने वाली हर घटना से एक संवेदनशील मनुष्य की तरह जुड़ता है। 'मौनान्द' की अंतर्वस्तु बहुत अनुभव से उपजी है।
10. प्रयोगशाला में
अमूमन दुपहर के बाद वाले घंटों में ही
प्रैक्टिकल की कक्षाएँ लगती हैं
जब दिन बह रहा होता है अनमनी मटमैली मन्थर
नदी-सा
लेकिन प्रयोगशाला में घुसते ही
ओजोन, बिजली और स्प्रिटलैम्प की सुगन्ध में
नदारद हो जाती हैं नींद की जमुहाई
और शरारत भर जाती है बॉडी में-
कई मौलिक आविष्कार ऐसे ही शरारतन हो गये....
लेन्स, चुम्बक, मैग्निमीटर और तमाम दूसरे उपकरण
बाहर फैली बेकारी की छाया भी नहीं पड़ने देते
जब तक चलता है प्रैक्टिकल क्लास
थोड़ा-थोड़ा घर घुस आता है प्रयोगशाला में
वहीं कोने में फ्लास्क में उबलती रहती है
अध्यापकों की चाय और वे लगते हैं ज़्यादा निकट
कभी-कभी अचानक ही प्रकट होते हैं
निकिल कोबाल्ट लोहे के हरे नीले लाल गाढ़े रंग
माँ की तहा कर धरी हुई साड़ियों की याद दिलाते,
कभी अमरूद-सी कभी खटमलों-सी फार्मेल्डिहाइड
की गन्ध
भर देती पूरे वातावरण को, तीखी गैस
आँखों में पानी भर आता
और ऐसे में ही कभी-कभी आँखें उलझ जातीं और फिर
उलझती चली जातीं जीवन भर....
प्रयोगशालाएँ यों भी अच्छी लगतीं कि उनके बाद
फिर और कक्षाएँ नहीं होती थीं-
सामने फैला खुला मैदान खेलों का
प्रयोगशाला का बड़ा-सा हॉल उनकी भी आज़ादी का
आँगन था
जिन्हें कॉलेज के बाद
रास्ते की फ़िक़रेबाज़ियों में भीगते हुए वापस घर लौटना था
और घर पहुँचकर फिर ख़ातून-ए-ख़ाना बन जाना होता था....
फिर भी प्रयोगशाला की याद
अक़सर सालों बाद रसोई में सूखते होंठों पर
आकर फैल जाती थी अकारण मुस्कान-सी
11. मौनान्द
कुछ के जीवन की नींव ही पड़ती है टेढ़ी
पीटे तो वे अक़सर ही जाते हैं
लेकिन इन दिनों, पिट जाने के कारण ही
अनावश्यक हिंसा फैलाने के ज़िम्मेदार भी
वे ही ठहराये जाते हैं-
फलस्वरूप और पीटे जाते हैं।
ढूँढ़े वे ही जाते हैं
अब चाहे मामला हो मेंढकी के जुकाम का
बकरे की माँ के ख़ैर मनाने का या... या....
नक्कारख़ाने में तूती के बेसुरेपन का,
वे ही पकड़ मँगाए जाते हैं
एक बार चढ़ जाए नाम रजिस्टर में
तो तलब-पेशी में आसान रहता है सरकार को
सबकुछ पारदर्शिता की कसौटी पर खरा-
तय है अपराध, अपराधी, प्रक्रिया, दंड....
हर न्यायिक जाँच में वे ही पाए गये दोषी
अपनी बीमारी ग़रीबी और पिछड़ेपन जैसे संगीन अपराधों के भी!
जैसा कि होता है ही है प्रजातन्त्र में
हारे भी वही हर-बार
और होते-करते
होते-करते
उन्होंने भी मान लिया कि चलो भाई सब अपने किये का फल
तो अब जब भी होती है धरपकड़
वे ख़ुद-ब-ख़ुद हाज़िर हो जाते हैं
और सरकार के वकील से भी कड़ी
जिरह करते हैं अपने ही ख़िलाफ़
और फिर घिघियाकर कहते हैं
हुज़ूर छोड़ दिहल जाई ई बार
और मज़े की बात कि कभी-कभी छूट भी जाते हैं!
वैसे शोर-शराबे और वक्तव्यों के बीच
वे डूबे रहते हैं अपने ही मौन-आनन्द में ज़्यादातर वक़्त,
प्रजातंत्र की सफलता का
यही सबसे बड़ा रहस्य है!
12. नयी कॉलोनी
अरावली पर्वतमाला फिर हार मानकर
आज और कुछ ज़्यादा पीछे खिसक गयी है
भय से आँखें बन्द किये मैं देख रहा हूँ
इन्द्रप्रस्थ के पास खांडव-वन को खाता
छिड़ा हुआ इक घमासान है-
जिसमें धरती हार रही है,
बजी ईंट से ईंट भर गया आत्मा में कंक्रीट
चिन गया दीवारों में प्रेम
पर्वतों की छाती रौंद
बन रहे ऊँचे ख़ूब मकान
फट रहा आसमान है
ट्रैक्टर की मिक्सर की खड़खड़
अब भी उतनी ही कर्कश है इस साइट पर-
किन्तु आज आदमी बहुत थोड़े आये हैं
लगता है अब सिमट चला है काम
झुग्गियों के चूल्हे अब तक सोये हैं
नहीं उठ रहा धुँआ
लग रहा चले गये मज़दूर भोर होने से पहले....
आज नहीं आयीं गायें भी जूठन खाने
धरती भी है गाय, गाय भी धरती ही है
लगता वे भी बिकीं और लद गयीं
लद गया समय, लद गये स्वप्न, लद गये स्वजन
और अब अरुणाभा तक नहीं, कि
ऐसी फीकी भोर कभी इस ठौर नहीं देखी थी मैंने
अभी वहाँ पर दूर दिख रहे थे जो थोड़े से लोग
न उनमें मिस्त्री या मज़दूर
सिर्फ़ ठेकेदारों का जमावाड़ा है-
आसपास की हवा घास कुस काँस जल रहे हैं हिंसा में
नाप-जोख चल रही, इक नयी कॉलोनी बनने वाली है