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मेरी मर्जी


मै स्वतन्त्र हूँ
अपनी मर्जी का मालिक
गीता पढ़ुं या नमाज़
कहाँ का कैसा समाज
जो डाले मुझ पर दबाव
यह मैं और मेरा स्वभाव ।

मुझे है सड़ीगली प्रथाओं से परहेज़
यह बात अलग
कि खुद अपनी इच्छा से
बेटी के लिये दे रहा दहेज
बड़े आये तुम हड्डी में कबाब
कैसा और कौन सा दबाब
अपना घर फूँक कर
पितरों की शांति के लिये
बुलाता पन्डितों की फौज
शान से करवाता मृत्युभोज
भाड़ मे जाय समाज-सुधार
मेरा स्टेटस, मेरा अहम
मैं जो करूं मेरी मर्जी ।

हाँ मर्जी गई भाड़ में
जब जीन्स पहने कोई ग्रामीणबाला
तो करदो उसका मुँह काला
रचाये ब्याह उँचे कुल में
नीचे कुल की छोरी
या विधवा बने फिर से दुल्हन
हमारा करेगी मानमर्दन
तो काट कर रख देगें गर्दन
रहे अपनी मर्जी से अकेली
पति के नाम पर आँसू बहाकर
या अब लो जीवनमरण का प्रश्न
कोई अपनी इच्छा से
होना चाहे सती
तो धर लेगें मौन
दबाव देने वाले हम कौन
उसके प्राण उसकी मर्जी ।

भीतर का आतंकवादी
भावनाओं का करता ब्लैकमेल
और चिल्लाता
मुझे किसी ने बहकाया नहीं
फँसाया नहीं
गुमराह नहीं किया
मजहब के लिये मैं करता आत्मबलिदान
दुनिया, समाज
और यह परिवेश क्या करें ?
जो मै करता वह मेरी मर्जी ।

- हरिहर झा