यह चर्चा मैं बहुत दिनों से करने की सोच रहा था, परन्तु अवसर नहीं मिल पा रहा था। कल चिट्ठाचर्चा में उड़न तश्तरी ने 'हिन्द-युग्म' से कॉपी न हो पाने बात उठाकर मुझे मौका दे दिया। समीर भाई अपनी पोस्ट में राजीव रंजन प्रसाद का गीत 'सागर से पूछो दरिया कहाँ है' की वाहवाही तो कर रहे हैं, परन्तु नकल पर गिरिराज भाई ने ताला लगा रखा है, यह कहकर वे पाठकों के समक्ष गीत की चंद पंक्तियों का नज़ारा नहीं पेश कर पा रहे हैं।
चूँकि हिन्दी चिट्ठों की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही है। पाठकों को नारद हररोज़ ५० से अधिक नये पोस्ट दिखा रहा है। पाठक कम समय भी खर्च करना चाहता है और हिन्दी चिट्ठों में जो-जो बेहतर हैं उन्हें पढ़ भी लेना चाहता है। यदि वह सभी चिट्ठों पर बारी-बारी से हिट करके यह पता करेगा कि कौन-कौन बढ़िया हैं? किसे-किसे पढ़ना चाहिए? तो शायद दो दिनों में या तो चिट्ठाचर्चाकार बन जायेगा या चिट्ठापठन का मैदान छोड़कर भाग जायेगा।
मगर जो एक बार पढ़कर फँस गया, हम उसे जाने भी नहीं देना चाहते हैं। इसीलिए चिट्ठाचर्चा की शुरुआत कर दी है। चिट्ठाचर्चाकारों ने यह तय किया है कि वे एक दिन के सभी चिट्ठों की ईमानदार समालोचना करेंगे।
समझने के लिए पारम्परिक रूप से चल रही पुस्तक-समीक्षा और फ़िल्म-समीक्षा का उदाहरण लिया जा सकता है। सामन्य पाठक/दर्शक समीक्षकों की उँगुलियाँ पकड़कर फ़िल्मों/किताबों को हिट करने में अपना बहुमूल्य योगदान देता है। यानी समीक्षक की क्षमताएँ पाठक से अधिक होनी चाहिएँ। उसकी यह कोशिश होनी चाहिए कि वह पाठक या दर्शक को यह बता सके कि बेहतर क्या है? किसी स्टारडम के चक्कर में न पड़े। पूर्वाग्रह का रोगी न हो। ये सारी शर्तें चिट्ठाचर्चाकारों पर भी समान रूप से लागू होती हैं।
वो ऐसा न करे कि दो-चार चिट्ठों की समीक्षा करके बाकियों के संग्रह का बस एक लिंक दे दे। अपने को केवल इस कारण से न बचाये कि अमुक चिट्ठे से तो कॉपी होता ही नहीं, यार! टाइप कौन करे?
अरे भैया! जब टाइप करने से बचना चाहते थे तो चिट्ठाचर्चाकार क्यों बने थे? समयाभाव की डफली बजाकर मात्र लिंक देकर काम चलाओगे तो उभरते चिट्ठाकार तो अंकुरण से पूर्व ही झुलस जायेंगे। कोई बहाना नहीं चलेगा। चिट्ठाचर्चा का जब इतना महत्व है तो उसके संचालकों की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। चिट्ठाचर्चाकारों की पठनियता का सीमांकन नहीं होना चाहिए। यह बात तो होती ही है कि अच्छे लेखक सदैव ही अच्छे पाठक नहीं होते हैं, शायद इसीलिए अधिकतर चिट्ठाचर्चाकार अच्छे पाठक नहीं हैं। फिर चिट्ठाचर्चा वाले अपना यह मंच सुधी पाठकों के लिए क्यों नहीं खोलते हैं? अब यह मत कहना! भाई! कोई आए तो सही! हम चिट्ठावालों के पास कोई नहीं आयेगा, बेड़ा हमने उठाया है तो हमें ही सम्पर्क साधना होगा।
यहाँ तो वही वाली बात हो गयी कि समीक्षक स्वयम् को ही कटघरे में खड़ा कर लिया। अपनी क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगा लिया है। किसी पोस्ट की प्रसंशा करते समय यह मत सोचो कि एहसान कर रहे हो, बल्कि यह सोचो की अपना काम कर रहे हो। घटिया, उबाऊँ, अप्रासंगिक पोस्टों की निंदा करते समय अश्रद्धा का डर न रखो बल्कि यह सोचो कि तुम नहीं सीखाओगे तो इसकी शैली हमेशा यही बनी रहेगी।
दूसरी प्रमुख बात मैं ब्लॉग-तकनीक के जानकारों से करना चाहता हूँ। जबकि चिट्ठाचर्चा का हमारे लिए इतना महत्व है, ऐसी स्थिति में हम यह कभी नहीं चाहेंगे कि 'हिन्द-युग्म' के कविताओं की बानगी चिट्ठाचर्चा पर न देखने को मिले। हर कोई सफल होना चाहता है। हम अपने घर पर ताला अपने हितैषियों के डर से थोड़े लगाते हैं! बल्कि उनलोगों के लिए, जो चोर तो हैं लेकिन दिन-दहाड़े चोरी में विश्वास नहीं करते। ऐसे चोर हैं जो साँप भी मारना चाहते हैं और लाठी भी नहीं तोड़ना चाहते हैं। ऑरकुट पर इस तरह के चोरों की संख्या बहुत है। ऐसे लोग कम से कम हमारे माल की नकल अवैधानिक तरीके से नहीं उतार पा रहे हैं।
हिन्दी-चिट्ठाकार सदैव से आपस में मित्र भाव रखते हुए आगे बढ़ते आए हैं। सभी को याद होगा कि हमलोगों में से बहुतों ने कुछ महीनों पहले चिट्ठाचोरी की हाय-तौबा मचाई थी। हिन्द-युग्म की भी बहुत सी कविताएँ चोरी हुईं। हम अपने ताले की कुँजी भी आपको दे सकते हैं। ब्लॉगविद् यह जानते ही होंगे यह तरीका केवल कम चालाक चोरों को भरमा पायेगा। जिन्हें जुगाड़ पता है वे इसे भी चुरा लेंगे।
ऐसे में ब्लॉगपंडितों को यह नहीं लगता कि कोई ऐसी तकनीक विकसित की जाय जिससे चिट्ठाचर्चाकारों को भी सुविधा हो जाये और किसी भी तरह हमारा माल चोरी न हो? क्या दुनिया के हर भाषा के ब्लॉग चोरी हो रहे हैं? यदि हाँ, तो कब तक हमें आपलोग कोई नायाब टूल दे देंगे? क्या तब तक अपने-अपने ब्लॉग से यह कमज़ोर ताला भी हटा लें? और यदि नहीं, तो फिर उस तकनीक को हिन्दी-ब्लॉग तक पहुँचने में कितना समय लगेगा?