काव्यसदी की तीसरी कड़ी में पढ़िए कवि केशव तिवारी की कविताएँ। केशव लम्बे समय से बुंदेलखंड-क्षेत्र में रह रहे हैं, इसलिए इनकी कविताओं में वहाँ की स्थानीय गंध है, जो इस शृंखला के तहत ग्लोबल हो रही है।
केशव तिवारी
जन्म- 4 नवम्बर, 1963; अवध के जिले प्रतापगढ़ के एक छोटे से गाँव जोखू का पुरवा में।
‘इस मिट्टी से बना’ कविता-संग्रह, रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा (म.प्र.), सन् 2005; ‘संकेत’ पत्रिका का ‘केशव तिवारी कविता-केंद्रित’ अंक, 2009 सम्पादक- अनवर सुहैल। देश की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ व आलेख प्रकाशित। ‘आसान नहीं विदा कहना’ कविता-संग्रह, रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर
सम्प्रति- बांदा (उ.प्र) में हिन्दुस्तान यूनीलीवर के विक्रय-विभाग में सेवारत।
सम्पर्क- द्वारा पाण्डेये जनरल स्टोर, कचेहरी चौक, बांदा (उ.प्र)
मोबाइल- 09918128631
ई-मेल- keshav_bnd@yahoo.co.in
जन्म- 4 नवम्बर, 1963; अवध के जिले प्रतापगढ़ के एक छोटे से गाँव जोखू का पुरवा में।
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गहरू गड़रिया
छियासी बरस का
सधा हुआ हैकल शरीर
बिना मडगाड की
पुरानी साइकिल
के हैंडिल पर
दो-चार कमरी रखे गहरू
हाज़िर हो जाते हैं
किसी भी कार परोजन में
पूरे इलाक़े में कहाँ क्या है
गहरू से जादा कौन जानता है
पहुँचते ही वहाँ काम में हाथ बँटाना
अवधी में टूटे-फूटे
छंद सवैया दोहराना
रह-रह कमरी के गुन गिनाना
ये इकट्ठा हुये लोग ही
गहरू का बाज़ार
जिनके सुख-दुःख
कई-कई पीढ़यों का
सजरा रहता है इनके पास
गहरू और
उनके बाज़ार का रिस्ता
तभी समझा जा सकता है
जब किसी के न रहने पर
फूट-फूटकर रोते हैं गहरू
और
सबके साथ बैठकर
सिर मुड़वाते हैं
शिखा-सूत्रधारी ब्राह्मणों के बीच
जब सिर मुड़वाये
तनकर खड़े होते हैं
तब तो
गड़ेरिया नहीं
सिर्फ गहरू होते हैं
अपनी संवेदना के साथ
जब कुछ दिन नहीं दिखते हैं
उनकी खोज-खबर लेते हैं लोग
अजब संसार है यह
गहरू उनकी कमरी
और उनके ग्राहकों का
जहाँ लोग कमरी से ही नहीं
गहरू की गहराई से भी
ताप ग्रहण करते हैं।
बाज़ार
मौज़ूदा दशक में बदरंग, अकालग्रस्त और बेउम्मीद जनपद को पुनर्प्रतिष्ठित करने वाले खुद्दार कवि हैं केशव तिवारी। केशव तिवारी की कविता ‘जनपद’ अंचल, जवार, सिवान की गँवई मिट्टी, देहाती बयार, वहाँ का रस, गंध, स्वाद और उबड़-खाबड़पन से उपजी है। कविता में जनपद को जीवित करना केशव के लिए मनमोहक फैशन या नास्टेलजिया नहीं, बल्कि उनकी स्वभाविक धड़कनों का हिस्सा है। यही उनकी आत्मा का मूल स्वभाव है। वे जनपद को सिर्फ जीवन के लिए नहीं जीते, बल्कि अपनी प्रौढ़ संवेदनशील शरीर पर चढ़े हुए उसके अथाह ऋण को उतारने के लिए जीते हैं। आजकल फैशन चल पड़ा है- बात करेंगे गम की, और रात काटेंगे रम की- केशव में यह दोहरापन एक सिरे से गायब है। केशव तिवारी की शब्द-सत्ता में जनपद की मौज़ूदगी चटक, सप्राण और गहरी है, लेकिन वही उनकी कलम की अटूट सीमा भी बन जाती है। केशव जनपद से बाहर निकलकर भी अपनी पूर्णता प्राप्त करेंगे।
-भरत प्रसाद
बाबा के लिये इसका मतलब -भरत प्रसाद
एक लद्दी बनिया था जो
गाँव-गाँव घूम कर
अनाज के बदले देता नमक
कुछ और छोटी-छोटी चीज़ें
पिता के लिये यह एक
भरा पूरा बाज़ार था जो
बुला रहा था ललचा रहा था
मेरे लिये यह एक तिलिस्म है
जिसका एक हाथ मेरी गर्दर पर
और दूसरा मेरी जेब में है।
एक सफ़र का शुरू रहना
तुम्हारे पास बैठना और बतियाना
जैसे बचपन में रुक-रुक कर
एक कमल का फूल पाने के लिए
थहाना गरहे तालाब को
डूबने के भय और पाने की खुशी
के साथ-साथ डटे रहना
तुमसे मिलकर बीते दिनों की याद
जैसे अमरूद के पेड़ से उतरते वक़्त
खुना गई बाँह को रह-रह कर फूंकना
दर्द और आराम को
साथ-साथ महसूस करना
तुमसे कभी-न-कभी
मिलने का विश्वास
चैत के घोर निर्जन में,
पलास का खिले रहना
किसी अजनबी को
बढ़कर आवाज़ देना
और पहचानते ही
आवाज़ का गले में ठिठक जाना
तुम्हारे चेहरे पर उतरती झुर्री
मेरे घुटनों में शुरू हो रहा दर्द
एक पड़ाव पर ठहरना
एक सफ़र का शुरू रहना।
आसान नहीं विदा कहना
आसान नहीं विदा कहना
गजभर का कलेजा चाहिये
इसके लिये
इस नदी से विदा कहूँ
भद्वर गर्मी और
जाड़े की रातों में भी
भाग-भाग कर आता हूँ
जिसके पास
इस पहाड़ से
विदा कहूँ जहाँ आकर
वर्षों पहले खो चुकी
माँ की गोद
याद आ जाती है
विदा कहूँ इन लोगों से
जो मेरे हारे गाढे खडे रहे
मेरे साथ
जिन्होंने बरदाश्त किया
मेरी आवारगी
हर दर्जे के पार
आसान नहीं है
विदा कहना।
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
कवि केशव तिवारी जी की रचनाएँ गहराई तक असर छोड़ती है .. जमीन से जुड़ी रचनाएँ
बात करेंगे गम की, और रात काटेंगे रम की-
यह दोहरापन एक सिरे से गायब है।
बेशक....
सिरे से ही गायब है....
बात करेंगे गम की, और रात काटेंगे रम की-
यह दोहरापन एक सिरे से गायब है।
बेशक....
सिरे से ही गायब है....
bahut kamal kavitayen
तुम्हारे चेहरे पर उतरती झुर्री
मेरे घुटनों में शुरू हो रहा दर्द
एक पड़ाव पर ठहरना
एक सफ़र का शुरू रहना।
adbhut
मेरे लिये यह एक तिलिस्म है
जिसका एक हाथ मेरी गर्दर पर
और दूसरा मेरी जेब में है।
gahri baat shayad aese hi kahi jati hai.
bahut sunder
saader
rachana
हिंदी युग्म द्वारा ’ काव्यसदी ‘ के रूप में एक अच्छी शुरुआत की है। यह युवा कविता को सामने लाने का एक सराहनीय प्रयास है। इस प्रयास को सफलता पूर्वक आगे बढ़ाने का दायित्व इस समय के महत्वपूर्ण युवा कवि-आलोचक भरत प्रसाद को दिया जाना और भी सराहनीय है। भरत हमारे समय के ऐसे युवा आलोचक हैं जिनकी अपने समाकालीन लेखन में चैकन्नी दृष्टि रहती है। इसका प्रमाण उन्होंने काव्यसदी के अतंगर्त अब तक प्रस्तुत कवियों के चयन में भी दिया है। अब तक जिन तीन युवा कवियों का चयन उन्होने किया है निर्विवाद रूप से वे इस समय में महत्वपूर्ण रच रहे हैं। आशा है यह स्तम्भ अपने स्तर को आगे भी बनाए रखेगा। जहाँ तक इस बार के स्तम्भ में केशव तिवारी की कविताओं का संदर्भ है इस बारे में यहाँ इतना ही कहूँगा कि केशव जनपदीय चेतना के सशक्त कवि हैं। उनकी जनपदीयता में वैश्विकता की अपील है। जनपदीय होते हुए भी वे वैश्विक हैं। उनकी कविता जितनी अपनी जमीन में धँसी है उतनी ही आकाश में फैली हुई है। उनकी जनपदीयता की एक खासियत यह है कि वह भावुकता में डूबी न होकर द्वंद्वात्मक है। यह बात उनको लोक के अन्य तमाम कवियों से अलग करती है।
मेरे लिये यह एक तिलिस्म है
जिसका एक हाथ मेरी गर्दर पर
और दूसरा मेरी जेब में है।
sabhi rachnaayen achhi hain... vishesh kar baazaar mujhe bahot pasand aai....badhaai....
जाड़े की रातों में भी
भाग-भाग कर आता हूँ
जिसके पास
इस पहाड़ से
विदा कहूँ जहाँ आकर
वर्षों पहले खो चुकी
माँ की गोद
याद आ जाती है
..ye pankiyan bahut bha gayee man ko..
Keshav ji ko bahut bahut badhai
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