हिंद-युग्म के मार्च माह के यूनिकवि दर्पण साह की कविताओं से गुजरना अपने समय की युवा चेतना की आत्मसंशय की वीथियों से गुजरने जैसा है। उनकी कविताएं आशावाद के सतही काव्यमय आश्वासन देने की बजाय अपने युग के कड़वे सच से साक्षात्कार करते हुए व्यथित करती हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पाठक को प्रथमदृष्ट्या कविता मे उपस्थित वैचारिक नैराश्य और आत्मवंचना असहज लग सकती है। मगर ध्यान से पढने पर हम देखते हैं कि कविता मे किसी एक मनुष्य का व्यक्तिगत दुःख नही वरन् स्वप्नभंग से पीडित पूरी पीढ़ी की व्यथा प्रतिध्वनित होती है। यह समय वैसे भी मोहभंग का समय है। बाजारवाद के बढ़ते हमले के बीच धनवान और निर्धन के बीच की बढती खाई और भ्रष्टाचार का अंतहीन उत्कर्ष हमारी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था की विफलता की कहानी ही कह रहे हैं। समय की इन विद्रूपताओं को कविताबद्ध करते हुए दर्पण हमारे आत्ममुग्धता के आवरण को उघाडने की कोशिश करते हुए आत्मसाक्षात्कार का कड़वा आइना हमारे सामने रखने का प्रयास करते हैं। उनकी कविताएं समस्याओं का कोई आदर्शोन्मुख हल नही सुझाती बल्कि समस्याओं को उनके असली चेहरे मे हमे दिखाती हैं। वे कविताओं मे मौजूद हकीकत की तल्खी को आत्मव्यंग्य से संतुलित करने की कोशिश करते हैं। अपने निजी भाषिक विन्यास को परिपक्व करते हुए वो कविता मे शब्दों के इतर प्रतीकों का भी सावधानी से इस्तेमाल करते हैं। पिछली प्रकाशित कविता ’लोकतंत्र बहरहाल’ के बाद प्रस्तुत है उनकी निम्न कविता।
अपराध और दंडहीनता
मुझे विश्वास है,
एक दिन हमारे सभी अपराध क्षम्य होंगे,
अपराधों की बढ़ती गहनता के कारण,
और ऐसा,
किसी बड़ी लकीर के खींच दिए जाने सरीखा होगा.
हमारे द्वारा किये गए सामूहिक नरसंहार...
क्षम्य होंगे !
किसी 'फ्रेशर' के ए. सी. रूम में लिए गए,
'ब्रेन-स्टोर्मिंग' इंटरव्यू से तुलनात्मक अध्ययन के बाद.
निश्चित ही,
'उफनते उत्साह' के उन कुछ सालों में,
पूरी एक पीढ़ी को,
घेर-घेर के हतोत्साहित किया जाना
सबसे बड़ा पाप है,
नरसंहार 'साली' क्या चीज़ है !
क़यामत के समय...
बख्श दिए जायेंगे हमारे 'डकैती' और 'चोरी' के
सभी सफल/असफल प्रयास.
क्यूंकि ईश्वर व्यस्त होगा...
...कुछ उससे आवश्यक,
बहुत आवश्यक निर्णयों को 'एग्ज़ीक्यूट' करने में.
मसलन...
'पादरियों', 'पंडितों' और 'शेखों' को...
...जलती कढ़ाई में झोंक देने का निर्णय.
मसलन...
'राजनेताओं', 'वैज्ञानिकों' और 'अर्थशास्त्रियों'
को उल्टा लटका देने का निर्णय.
'न्यायधीशों' को...
..ख़ैर छोड़िये !
और ज़ाम का दौर शुरू करिए...
क्यूंकि मैं जानता हूँ,
हम सारे 'नशेडियों' को तो
बस एक ही 'दंड' में नाप दिया जाएगा.
दंड बस दस कोड़ों का...
..या बहुत से बहुत बीस !
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
6 कविताप्रेमियों का कहना है :
यह कविता पढ़कर एक बार तो रोंगटे खड़े हो गए, लेकिन धीरे-धीरे अहसास हुआ की हम आने वाली पीढ़ी को क्या सौंप रहे हैं, सचमुच अपराधों की एक नयी किस्म इजाद हो गयी है जो किसी भी तरह क्षम्य नहीं है.
क़यामत के समय...
बख्श दिए जायेंगे हमारे 'डकैती' और 'चोरी' के
कहीं इसी आशा में तो नहीं बढ़ रहे हैं ये छोटे-मोटे अपराध
पूरी की पूरी व्यवस्था और हमारी जड़ता अंतर्निहित है इस रचना में
कवि धन्यवाद के पात्र है| इतने सहज और सरल तरीके से उन्होंने हमारी चेतनाहीन ब्यवस्था को प्रकट किया है|
..ख़ैर छोड़िये !
और ज़ाम का दौर शुरू करिए...
क्यूंकि मैं जानता हूँ,
हम सारे 'नशेडियों' को तो
बस एक ही 'दंड' में नाप दिया जाएगा.
दंड बस दस कोड़ों का...
..या बहुत से बहुत बीस
वाह क्या करारा व्यंग है... न्याय प्रणाली पर... बहुत अच्छी रचना... बधाई...
रचना के भाव या फिर कहें कथ्य बहुत वजनदार है |
बधाई |
अवनीश तिवारी
मुम्बई
Soch ko awaaz bana dena bhut khoob
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)