न्याय बिकता है तराजू तोल ले,
हृदय की संवेदना का मोल ले,
हर तरफ है रुपया आज बोलता,
बेचने अपनी पिटारी खोल ले.
बचे थे जो चार गांधी चुक गये,
सत्य अहिंसा पुस्तकों में छप गये,
हिंदुस्तां की अस्मिता को बेचने
सौदागर ही हर तरफ बस रह गये .
अर्चना से देवता अब डर रहे,
सुन मनुज की मांग कंपन कर रहे,
निज खुशी की है नही चिंता उसे,
दूसरे की हानि का प्रण कर रहे.
कवि कुलवंत सिंह
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
न्याय बिकता है तराजू तोल ले,
हृदय की संवेदना का मोल ले,
हर तरफ है रुपया आज बोलता,
बेचने अपनी पिटारी खोल ले.
aaj ke daur me rupiya hi sab kuch hai sab kuch bikane laga hai bas paisa hona chhiye ..sundar mukat sandesh se bhara..dhanywad kulwant ji
तीनों मुक्तक एक दम सटीक और सार्थक.
" अर्चना से देवता अब डर रहे, सुन मनुज की मांग कंपन कर रहे, निज खुशी की है नही चिंता उसे, दूसरे की हानि का प्रण कर रहे" इसके तो क्या कहने.
कवि कुलवंत जी बहुत बहुत बधाई और आभार.
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राकेश कौशिक
कुलवंतजी,
आज के संदर्भ में आपने बहुत ही सटीक एवं यथार्थवादी चित्रण किया है अपनी रचना में । रुपया आजकल हर जगह बोलता है इसलिये कई साहित्यकार भी अंधेरे में रह जाते हैं । इसी संदर्भ में मेरे दोहों का भी अवलोकन करें । शायद जो संदेश आप अपनी रचना में देना चाहते हैं, उसका कुछ अंश इनमें भी मिल जाये ।
आज भावना देश में, बिके कोड़ियों मोल,
द्वेष मिले हर वेश में, चाहे जितना तोल !
मर जायेगा खोज के, अपना नाही कोय,
पेट भरन को आपना, नोचेंगें सब तोय !
सुन ले प्यासे की कुआँ, ऐसी नाही रीत,
पानी का भी मोल है, सीख सके तो सीख !
चौराहे पर मैं खड़ा , सोचुँ कित को जाऊँ,
पकड़ूँ जिसका हाथ भी, असत ही मैं पाऊँ !
जीने की क्या बात है, चाहे जिस तरह जी,
विष पर भ्रष्टाचार का, अमृत मान और पी
आज की मानसिकता को बयाँ करते हुए
उत्कृष्ट मुक्तक हैं .
अच्छी रचना। धन्यवाद।
तीनो ही मुक्तक बहुत ही सार्थक है पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा.
धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
रुपया तो सदैव ही केन्द्र में रहा है, पर साहित्यकार कब बिका है? अच्छी कविता--
---दूसरे बन्द में लय टूटती है, मात्रा दोष है। बचे थे जो चार गान्धी का क्या अर्थ है?
अर्चना से देवता अब डर रहे,
सुन मनुज की मांग कंपन कर रहे,
निज खुशी की है नही चिंता उसे,
दूसरे की हानि का प्रण कर रहे.
kitni sunder baat kahi hai sach hai bhagvan bhi darne lage hain
saader
rachana
डा0 श्याम गुप्तजी,
जहाँ तक आपकी प्रतिक्रिया कविता अच्छा लगने के बारे में है वहाँ तक तो ठीक है लेकिन आप लय और मात्रा का दोष क्यों निकालने बैठ गये । यदि हमें हिन्दी को बढ़ावा देना है और इसे ग्लोबल बनाना है तो हमें तकनीकी दोष निकालने के बजाय कवि की कही बात के ऊपर धयान देना चाहिये और उसकी सराहना करनी चाहिये क्योंकि कविता हरेक आदमी न ही तो कर सकता है(ये एक प्रकृति प्रदत्त देन है) और न ही इसमें छुपी भावना को समझ सकता । मुझे आशा है आप इसे समझ सकेगें ।
Dr Chadha Ji.. shyam Gupt ji ne bilkul sahi kaha hai... dusare muktak me matra dosh hai...aur yeh baat mujhe malum thi.. lekin majhe nahi pata tha itni baariki se bhi koi yahan dekhata hai...
mai unka saadar aabhar vyakta karta hun... mistake batane ke liye...balki yeh to sahi tarika hai sikhane ke liye... isase ham sabhi sikh sakate hain... Shyam Gupta ji aap ka bahut abhaar...
baat sirf kavita likhane ki nahi hai.. bhav ke sath chanon ki jaanakari bhi aani hi chahiye..
न्याय बिकता है तराजू तोल ले,
हृदय की संवेदना का मोल ले,
हर तरफ है रुपया आज बोलता,
बेचने अपनी पिटारी खोल ले.
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बहुत सटीक और सार्थक मुक्तक
साथ ही साथ अनिल चढ़ा जी के दोहे भी सराहनीय हैं
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