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Tuesday, April 28, 2009

चवन्नी मुस्कान


वह दाँत निपोड़कर हँसता था,
चाँद की परछाई में
अपने बैलों को
घूरा तपाते
दिख जाता था हरदम हीं,
कहता था...
इससे मच्छर भागते हैं साहिब,
मच्छर तंग करेगा तो
रात भर बैल सब कुनमुनाता हीं रहेगा,
फिर हल कौन जोतेगा,
हम तो रहें अकेले जोतने से..
"ज" और "त" के बीच में उसके पीले दाँत
कनैल के जैसे खिल जाते,
कनैल...एक गंधरहित, महत्वरहित फूल !!

कभीकभार
मैं भी बैठ जाता...घूरा तापने,
नाममात्र की लकड़ी,
नाममात्र के उपले,
नाममात्र की गेहूँ,धान की डंठी,
बस घास का घूरा।
वह दुनिया भर की बातें सुनाता
और हर बात पर
मुँह चियारकर हँस देता,
धीरे-धीरे मच्छर बढते,
बातें बढतीं,
बैलों की चिढ बढती
और धीरे-धीरे घूरा
धूरी में मिल जाता,
अंधेरे में उसकी बड़ी-बड़ी डरावनी आँखें
हहा-हहाकर हँसतीं,
मालूम पड़ता मानो
पीपल पर ओले पड़े हों
और भूत बर्फ़-बर्फ़ खेल रहे हों।

भूत!!
अंधेरे में हीं जगेसर महतो का दर्द
बरबोला होता
और भूत के जैसे डराता।
चौंर के एक कोने में
दो मरियल बैलों के साथ
अकेले रहता था वो,
बित्ता भर के खेत को
रोज जोतता ताकि
जिंदा होने का एक सबूत रहे,
बेटा-पतोहू
शहर में कमा-धमा रहे थे.....अपने लिए,
कोई नामी कंपनी थी...अमेरिकन,
अंग्रेजी पैसा देती थी शायद
तभी तो बाप भदेसी लगने लगा था।
कभी-कभी मुझे लगता कि
जगेसर महतो अमेरिका पर हीं हँसता है,
मज़ाक-मज़ाक में
बैलों को अमेरिका-अमेरिका बोलता,
पुचराकता और फिर
खूब हल जोतवाता,
मानो अमेरिका से हीं नौकरी करवा रहा हो।
थक जाता तो फिर
हँसने के लिए मुँह बा देता था।


आज
जगेसर महतो के दोनों बैल
टुअर हो गए हैं,
बाप मर गया दोनों का!
जवाड़-भर के लोग
जमा हो गए हैं चौंर में,
कुछ देर रस्ता देखेंगे
शहरी बाबू का...
फिर जला देंगे जगेसर को।
आए तो कोई बात नहीं,
न आए तो और अच्छा,
आपस में बाँट लेंगे
बैल, बित्ता-भर जमीन और नख-भर की झोपड़ी।

एक कोने में मैं भी खड़ा हूँ..
खुश भी हूँ, दु:खी भी।
आज पहली बार
जगेसर खिखिया नहीं रहा,
मुँह नहीं चियार रहा,
आज पहली बार जगेसर
वही दीख रहा है , जो वह है.....शांत, गंभीर।

लेकिन यह क्या...
चवन्नी मुस्कान तो अब भी है उसके चेहरे पर!!!

-विश्व दीपक ’तन्हा’

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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

मुकेश कुमार तिवारी का कहना है कि -

विश्‍व दीपक जी,

ग्रामीण भारत की एक स्च्ची तस्वीर खींचती इस कविता में जगेसर भले ही एक पात्र हो, मगर वह अपने जैसे सभी बेचारे?(य़दि कह सकूं तो) को भी रिप्रेजेन्ट कर रहा है।

यह व्यथा अकेले जगेसर की नही है, मार्मिक कविता के लिये बधाइयाँ।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

Arun Mittal "Adbhut" का कहना है कि -

बहुत अच्छा लेख है ........... बधाई !

अरुण अद्भुत

admin का कहना है कि -

बढिया है। पर यदि कविता थोडी छोटी होती, तो ज्यादा अच्छा होता।

----------
S.B.A.
TSALIIM.

manu का कहना है कि -

जगेसर को लेकर सही तस्वीर खींची है आपने,,,,,
एक बारगी ज़रा लम्बी तो लगी पर इस तरह से शब्द चित्र बनाने में शायद ये सही हो,,,,,
मुझे ज्यादा छंद मुक्त का पता नही है,,,बस ये अब यहाँ युग्म पर आकर ही देखा पढा है,,,,,
बहुत कुछ मन को इतना chhoo जाता है के अच्छा लगता है,,,,,
ये जरूर कहूंगा के इस से पहले वाली आपकी रचनाएँ ज्यादा असरदार थीं,,,,,,
आपको छंद रहित भी पढा है और छंद में भी,,,,,,,
हाँ इस कविता की लम्बाई को लेकर ज़रा संशय है,,,,,
पर अंत में जो अपने चवन्नी मुस्कान का ज़िक्र किया है,,,,,,,, बहुत दर्दभरा उकेरा है,,,
वो वाकई बहुत दुखद है,,,,,,

Sajeev का कहना है कि -

तकनीकी जानकारी बहुत नहीं है मुझे, पर कविता के भाव बहुत समसामयिक हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं, उभरते हुए भारत के दो मुक्तलिफ़ चहरे हैं ग्रामीण किसान और डॉलर बेटे के रूप में....बेहद सशक्त अभिव्यक्ति है.....

सीमा सचदेव का कहना है कि -

अकविता का भी एक स्टैण्डर्ड है , क्रिपया उसे बनाए रखें । लेख/आलेख अच्छा लगा ।

Divya Narmada का कहना है कि -

मर्मस्पर्शी शब्दचित्र...

रश्मि प्रभा... का कहना है कि -

ganw me basi zindagi ko chitrit kar diya......sabkuch jivant sa ghoom gaya,bahut badhiyaa

Sunil Kumar Pandey का कहना है कि -

grameena kisan aaj ke dour me apne bachchom ke bhavishya ke liye kheta bhechkara ya khetom me kadi mehanat karke paisa jutata hai. padai ke bad bachchhom ko apne bap ko bap kahane me sharma aati hai. khetom ke bikane ka dard betom vala hote hue bhee upekshita gaom me pada huaa baap jagesara sirph gramina bharata ki tasveer hi nahi khichata hai, tathakathit vikasavad evam samvedanaheenata para tamacha bhee marata hai.

kotishah dhanyavad
deepaka jee ko

shabdom ke chayan ke liye bhee
sunil

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