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Monday, April 27, 2009

न जाने....


तड़प दोनों में है बराबर का
न जाने किसका दर्द ज्यादा है
जमीं पे गिरे टुकड़े का...
...या बदन के उस हिस्से का

सबब ज़िन्दगी है दोनों में
न जाने किसमें सीलन ज्यादा है
बहते लहू के क़तरों में...
...या ढ़लकते हुए अश्कों में

असर हालात कर गए ऐसे
न जाने कौन पहले थम जाए
थम-थम के चलती-सी सांसे...
...या बेतहाशा दौड़ती धड़कन

न जाने क्या होने वाला है...
न जाने किसका दर्द ज्यादा है...
न जाने किससे आस बाकी है...
न जाने कौन आनेवाला है?

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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

मुकेश कुमार तिवारी का कहना है कि -

अभिषेक जी,

पहले दो और आखिरी टुकड़े में कहीं भी विरोधाभास नही है और बात बहुत हि अच्छे से कहि गई है।

मेरी बधाईयाँ स्वीकारें।

परंतु तीसरे हिस्से में मेरे अपने विचार में एक विरोधाभास है देखें :-

थम-थम के चलती-सी सांसे...
...या बेतहाशा दौड़ती धड़कन

मैं यदि विज्ञान (फिजियोलॉजी)की नजर से देखूँ तो यह पाता हूँ कि " थम थम के चलती हुई सांसों और बेतहाशा दौड़ती धड़कनें एक साथ नही होने वाली अवस्था है और विरोधाभासी है। जहाँ तक सृजनात्मकता की बात है तो रचना बहुत अच्छी है, गहरे भाव जगाती है।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

mohammad ahsan का कहना है कि -

"तड़प दोनों में है बराबर का
न जाने किसका दर्द ज्यादा है
जमीं पे गिरे टुकड़े का...
...या बदन के उस हिस्से का"

यह बंद व्याकरण के हिसाब से गलत है. जहां जहां 'का' इस्तेमाल हुआ है 'की' इस्तेमाल होना चाहिए था. तड़प शब्द के साथ 'की' ही आना चाहिए.
'सबब ज़िन्दगी है दोनों में'- भला इस पंक्ति अर्थ क्या हुआ? सबब के म'अनी होते हैं 'कारण' . अर्थ स्पष्ट नहीं है.
तीसरा बंद ठीक है
चौथे बंद की पहली पंक्ति बेबहर है
तीसरे और चौथ बंद वैसे पढने में अच्छे लगे.

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

रचना अच्छी है , अर्थ - भाव और लय में |

लेकिन, मोहम्मद अह्शन जी के कुछ बातें भी सही हैं , जैसे तड़प स्त्रीलिंग होने के कारन "की" होना चाहिए आदि |

दोनों को बधाई |

अवनीश तिवारी

प्रिया का कहना है कि -

acchi rachna!

"अर्श" का कहना है कि -

BADHIYA AUR KHUBSURAT RACHANAA KE LIYE BADHAAYEE...


ARSH

manu का कहना है कि -

सुंदर रचना,,,,,
अहसान जी ने "का" और "की" वाली बात एकदम सही कही है,,,,,
या तो टाइपिंग मिस्टेक है या जो भी है पर आखर रही है,,,,,वो भी बेवजह,,,

पर चौथे बंद की पहली पंक्ति वाली बात से ज़रा ज्यादा सहमत नहीं हूँ,,,
क्यूंकि मुझे नहीं लगता के ये रचना बहर को ध्यान में रख कर रची गयी है,,,,, या बहर पर ध्यान देना ही जरूरी है इस में
हाँ कई जगह पर खूबसूरत ले बन पडी है,,,

Pritishi का कहना है कि -

तड़प दोनों में है बराबर का
न जाने किसका दर्द ज्यादा है
जमीं पे गिरे टुकड़े का...
...या बदन के उस हिस्से का

रश्मि प्रभा... का कहना है कि -

न जाने क्या होने वाला है...
न जाने किसका दर्द ज्यादा है...
न जाने किससे आस बाकी है...
न जाने कौन आनेवाला है?
.......bahut gahre bhaw

Divya Narmada का कहना है कि -

अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं कहते

Kavi Kulwant का कहना है कि -

दर्द को सलीके से बयां करने के लिए.. बधाई...

mona का कहना है कि -

found the poem good after being able to understand it properly

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