मौत का एहसास पलपल
देह में अनुनाद कलकल
धमनियां फैली शीरा में
काल की गुर्राहटें भी
देह बुनता लाल चादर
राख में हैं सलवटें भी
फिर दिखी फूलों की माला
डालती सांसों पे ताला
फिसलने लगी जीजिविषा
लो चरमराती हड्डियों पर
मौत का एहसास पलपल
देह में अनुनाद कलकल
फलसफा अपना बनाकर
भीड़ को सौंपे जो नारे
सृष्टि अपनी ही रची
मैंने बनाये चाँद तारे
ढह गई फिर से दीवारें
हिल उठे वे खंडहर भी
धमाके से स्वर्ग आई
जल चुकी जो लाश चलकर
मौत का एहसास पलपल
देह में अनुनाद कलकल
-हरिहर झा
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी कविता..
फिसलने लगी जीजिविषा
लो चरमराती हड्डियों पर
मौत का एहसास पलपल
देह में अनुनाद कलकल
सुंदर कविता,
पढ़ कर अच्छा लगा
सुंदर रचना |
अवनीश तिवारी
वाह ! वाह ! वाह ! atisundar adwiteey रचना.पढ़कर मन vibhor mantramugdh हो गया.aapkee lekhni को नमन.
bahut khoob, nayi nayi upmaoon ka pryog aacha laga.
धमनियां फैली शीरा में
काल की गुर्राहटें भी
देह बुनता लाल चादर
राख में हैं सलवटें भी
फिर दिखी फूलों की माला
डालती सांसों पे ताला
wah
फलसफा अपना बनाकर
भीड़ को सौंपे जो नारे
सृष्टि अपनी ही रची
मैंने बनाये चाँद तारे
ढह गई फिर से दीवारें
हिल उठे वे खंडहर भी
धमाके से स्वर्ग आई
जल चुकी जो लाश चलकर
मौत का एहसास पलपल
देह में अनुनाद कलकल
बहुत अच्छी लगी ये पंक्तियाँ
सादर
रचना
सृष्टि अपनी ही रची
मैंने बनाये चाँद तारे
ढह गई फिर से दीवारें
हिल उठे वे खंडहर भी
धमाके से स्वर्ग आई
जल चुकी जो लाश चलकर
मौत का एहसास पलपल
देह में अनुनाद कलकल
फिर दिखी फूलों की माला
डालती सांसों पे ताला
फिसलने लगी जीजिविषा
लो चरमराती हड्डियों पर
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