मैं प्रोफेसर
मेरे कुछ उसूल हैं
भले हो विद्यार्थिनी
कुछ पक्षपात नहीं करता
मेरे घर का दरवाजा
पढ़ने के लिये कौन खटखटाता
इसका एहसास नहीं होता मुझे
ढँक लेता कोहरे में
उसकी शारीरिक-संरचना
मैं लहरों की कगार पर खड़ा
नहीं देखता उफनती नदी
बगिया की
पंखुड़ी अपनी अल्हड़ अदा में
भले ही खिल रही हो
बाँहे फैला कर नहीं तलाशता मैं
प्रेम की फुहार
नहीं महसुसता
आंचल से प्रस्फुटित प्रेम
भले हों किसी की बाहों में भटकती
हजारों तमन्नायें
नही सिमटता उसमें
खेल रही हो अठखेलियां
तो नहीं देखता मैं गर्दन उचकाये
नहीं बुझाता अपनी प्यास
यह सिद्धान्त ही मेरा संयम
- हरिहर झा
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
aap ki kavita ka professor kuchh
pakhshpaat nahi karta...jo nahi kehta... wo sub to keh diya unhone apni kavita mei...khair, aap to smjhaa hi sakte haiN unhei,
sanyam-siddhaant se !!
---MUFLIS---
पहली टिपण्णी शायद तकनीकी खराबी के कारण पोस्ट नहीं हो पायी.....या शायद मुफलिस जी की ई मेल मैं चली गयी है ...खैर जो है ठीक है.......शायद ने मेरे ही लिए कहा होगा.
"बक रहा हूँ जूनून में क्या कुछ,
कुछ न समझे खुदा करे कोई.."
जाने क्यों आपकी कविता में "आपका सा" वाला दम नहीं लगा.माफ़ी चाहूँगा.
आलोक सिंह "साहिल"
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