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Friday, November 28, 2008

पर्वतों के दरख्त


पर्वतों के दरख्त
गवाह हैं कि,
शरमाई
सकुचाई
लाली भरी
शाम का मुँह काला कर
आज फिर जा डूबा
सूरज समंदर में
न समझो इसे
आत्मघात
वह तो
कल फिर आयेगा
किसी नई नवेली
सुबह पर
डोरे डालता हुआ
और फिर....
उसका भी
यही अंजाम होगा
पर्वतों के दरख्त
गवाह है.....

--विनय के जोशी

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कविताप्रेमी का कहना है :

manu का कहना है कि -

sab kuchh achha likha hai magar abhi man mein pahle se umadate bad khyaal hi kam nahin ho rahe hai ki is ko gahraai se samajh kar koi betar comment de sakoon.

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