क्या
फर्क पड़ता है
मेरे
जीने या मरने से
क्योंकि
मैं ना तो
जीते जी धरती पर बोझ हूँ
ना ही
मेरे मरने से दुनिया
खाली होने वाली है
क्या फर्क पड़ता है
मेरे जीने या मरने से
हाँ कुछ अन्तर
अवश्य आएगा
उस जगह, घर या
आसपास में
जहां मैंने इस
नाकुछ जीवन
के पचास साल
गुजार दिए हैं
मेरे बिस्तर का
वह हिस्सा खाली हो जाएगा
जहाँ मैं सोता हूँ
और मेरी पत्नी
कहलाने वाली औरत
को अकेले सोना पड़ेगा
क्योंकि वह
एक घरेलू भारतीय
महिला है
तथा जवान होते
बच्चों की माँ है,
कोई और
विकल्प भी तो नहीं हैं
उसके पास।
मेरे बेटे के
पास आ जाएगा अधिकार
मेरी जमा पूँजी को
अपने हिसाब से खर्च करने
का
इसलिए उसके आँसू
उसका गम
पत्नी के गम की तुलना में
क्षणिक होगा
मेरे दफ्तर की कुर्सी भी
एक दिन
के लिए
खाली हो जाएगी
फिर काबिज
हो जाएगा उस पर
बाबू राम भरोसे
बहुत दिन
से प्रतीक्षा में है
बेचारा
मेरी पुरानी साइकिल
को ले जाएगा कबाड़ी
क्योंकि
वह नहीं रह जाएगी
पहले भी कब थी ?
इस घर के लायक।
अलबत्ता
‘बुश’ मेरा कुत्ता
शायद ‘मिस’ करेगा
सुबह सुबह
मेरे साथ टहलना।
क्योंकि कोई और उसे
बाहर नहीं ले
जाता अल सुबह ;
पर शायद
उसके बरामदे का फर्श
खराब करने की आदत
से तंग आकर
पत्नी संभाल लेगी ;
यह काम भी,
और बुश भी
भूल जाएगा
मेरा दुलारना डाँटना दोनों
क्या फर्क
पड़ता है
मेरे जीने से
या मरने से?
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
फ़र्क़ तो पड़ता है अगर आप अपने सपने सच कर दिखाने वाले हैं!
अच्छा लिखा
अच्छी कविता साधुवाद
श्याम जी,
बहुत ही सुन्दर कविता, इस विषय पर मैने पहले भी कुछ कविताए पढी है और सभी की तरह ये भी बहुत अच्छी लगी
सुमित भारद्वाज
सच कहा आपने कुछ दिनों बाद सब अपनी-अपनी गतिविधियों में लग जाते है, किसको क्या फर्क पड़ता है..........
आपकी कविता में आक्रोश है | फर्क तो सबको पङता है लेकिन मजबूरी सबकुछ करने को मजबूर कर देती है जिंदा रहने वालो को | यह तो अपनी अपनी सोच है ,जाने वालो की यादे कभी नही मिटती और न ही कमी पूरी होती है | मई कुछ ज्यादा भावुक हो गई | आपकी कविता अच्छी है .....सीमा सचदेव
फर्क पडता है भई', हमें नगीने और नागफनियों वाली गजल कौन सुनायेगा...?
..aaj ke bhautikvadi parivesh aur pdaarthvaadi smaaj ka steek chitran hai aapki ye kavita.. hr koi apni ichhaaoN tk hi simit ho ke reh gya hai... ythaarth ke thos dhraatal pr itni saadgi se likhi gyi kavita pr badhaaee svikaareiN.- ---MUFLIS---
एक पाठक के तौर से मुझे रचना नही भायी |
कोई आकर्षक बात नही लगी |
आपकी और अच्छी पेशकश की प्रतीक्षा में ..
अवनीश तिवारी
Harkirat Haqeer ने सही कहा आपने ब्लॉगर के दुनिया को छोड़कर ही सोचा है.
वैसे यह बात भी सही है कि कमी का प्रभाव उस हरेक जगह पड़ेगा जहाँ से आपका संपर्क है.
हाँ, जब ऐसी स्थिति रहे कि कोई नहीं है मेरा मुझे पहचानकर तब तो कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.
आपका
महेश
http://popularindia.blogspot.com
बहुत फर्क पड़्ता है किसी के होने और न होने का.होना केवल अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी उतना ही अहमियत रखता है.मह्सूस करने से फर्क पड़ता है.
फर्क पड़ता है
पत्नी को यूँ फर्क पड़ता है--
चुनती है जितना उतना ही रोती
गमों के सागर में यादों के मोती
जाने क्या सोंचती
न जागी न सोती
पती की याद में
रात भर
भींगती रहती है-----
पति न रहे
तो भारतीय पत्नी
उम्र भर उदास रहती है।
फर्क पड़ता है
पुत्र को यूँ फर्क पड़ता है---
पिता जब नहीं रहते
जीवन के सब रंग तेजी से बदल जाते हैं
तितलियाँ, मछलियाँ, मेढक, भौंरे,
सब होते हैं
लेकिन इस मोड़ पर
बचपने
कहीं खो जाते हैं
जिंदगी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल जाती है
पिता जब नहीं रहते
उनकी बहुत याद आती है।
फर्क पड़ता है
दफ्तर में भी फर्क पड़ता है
इतना संवेदनशील व्यक्ति
आज दफ्तर में
कहाँ मिलता है
फर्क पड़ता है
कुत्ते को भी फर्क पड़ता है
कुत्ता आदमी नहीं
जो अवसर मिलते ही
मालिक बदल देता है।
आप फर्क की बात करते हैं
कृपया अपना विचार बदल दें
क्योंकि
ऐसी सोंच से भी
बेड़ा गर्क होता है।
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-देवेन्द्र पाण्डेय।
ये सच है की किसी के जाने से दुनिया रूकती नही पर जो पीछे रह्जाते हैं उनसे पूछिये दर्द कम नही होता मै जानती हूँ समय घाव भरता नही आंसू शायद कम हो जायें पर ख़त्म नही होते
सुंदर है कविता
सादर
रचना
अच्छा लिखा है श्याम जी.
पर यहाँ मुझे दो कवितायें पढ़ने को मिली...
अच्छा लगा पढ़ कर...
हमें फर्क पडा होगा तो फर्क आगे भी पडेगा
झीना एक है हवेली में हर कोई इससे ही चढेगा
साधूवाद ...
हम भी देवेन्द्र जी की बात से पूरा इत्तिफाक रखते हैं ,
दोस्तों ,कोई भी रचना तभी सार्थक होती है जब वह पढ़ने सुनाने वाले को उद्वेलित करे ,चाहे हर्ष ,विषाद या आक्रोश ही पैदा करे ,इस मायने में क्या फर्क पङता है सफल रही है ,उसके दो आपस में दो विपरीत -कोण हैं देवेंदर जी व् श्री मुफलिस के शब्द -आप सभी की जीवन्तता को धन्यवाद श्याम सखा
WOW,WOW,WOW!
behatarin
alok singh "sahil"
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