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आने से तेरे दिल का मौसम बदल रहा है
हाँ अब ये लग रहा है के वक्त चल रहा है
ना पूछ राज़ जाना फींकी-सी इस हँसी का
काँटा कोई पुराना इस दिल में खल रहा है
शमएं कई जलीं दिल के मोम कितने पिघले
आ देख मोम है पर दिल मेरा जल रहा है
जैसे हवाओं से लौ शमओं की थरथराये
यादों से उसकी ये दिल जल-जल मचल रहा है
इब्तेदा-ओ-कुर्बत, इन्तहा* थी उसकी मर्ज़ी
पूरब से निकला सूरज, पूरब में ढल रहा है
पर तू है जब से आया, फिर धूप खिल रही है
दिल-संग* ये मेरा भी कुछ-कुछ पिघल रहा है
दिल है के जैसे कैफी* देखे किसी हंसी को
अब-अब ये लडखडाया, अब-अब संभल रहा है
जो हाथ तूने थामा, बदली लकीर उसकी
बेनासीब वो पुराना ख़ुद हाथ मल रहा है
तेरे साथ आज हँसते इक आया बूँद आंसू
रस्सी तो जल चुकी है थोड़ा-सा बल रहा है
दिल मेरा गर यूँ रोये, संभाल यार लेना
तू 'आज' है मेरा पर, वो मेरा 'कल' रहा है
लकीर लम्बी खेंचो हो दूजी छोटी करनी
यूँ भी कई लकीरे-किस्मत का हल रहा है
तेरी बज़्म पता शब् न दिन का चल रहा है
हाँ अब ये लग रहा है के वक्त चल रहा है
हुस्ने-गज़ब कंवल सा सहरा* में खिल रहा है
आने से तेरे दिल का मौसम बदल रहा है
~RC
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संग = पत्थर, इब्तेदा=शुरुआत,
कैफी = नशे में
कुर्बत=नजदीकी, इन्तेहा = end
शमआ = शमा, दीपक
सेहरा=मरुस्थल
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
जो हाथ तूने थामा, बदली लकीर उसकी
बेनासीब वो पुराना ख़ुद हाथ मल रहा है
तेरे साथ आज हँसते इक आया बूँद आंसू
रस्सी तो जल चुकी है थोड़ा-सा बल रहा है
शेयर अच्छे लगे
cool...........
ALOK SINGH "SAHIL"
"लकीर लम्बी खेंचो हो दूजी छोटी करनी
यूँ भी कई लकीरे-किस्मत का हल रहा है"
सुंदर भाव...
सुंदर रचना है ,बधाई ,हाँ चाहें तो वजन भी कई जगह गडबडा रहा है संभालें
ना की जगह मत कर लें ,ना ग़ज़ल में वर्जित होता है ,सेहरा नहीं सहरा लफ्ज़ है सुभाष आर्य
इस बार आपकी गज़ल बहुत ही जल्दी समझ आ गयी इस बार पढते हुए लय नही बिगडी
आपकी पिछली रचनाओ की तुलना मे इस मे कठिन शब्द ना के बराबर है
सुमित भारद्वाज
ना पूछ राज़ जाना फींकी-सी इस हँसी का
काँटा कोई पुराना इस दिल में खल रहा है
जी सही कहा तुम इतना क्यों मुस्कुरा रहे हो क्यों दर्द है जिसको छिपा रहे हो
इब्तेदा-ओ-कुर्बत, इन्तहा* थी उसकी मर्ज़ी
पूरब से निकला सूरज, पूरब में ढल रहा है
ये भी लाजवाब शेर है
पूरी ग़ज़ल ही सुंदर है
सादर
रचना
वाह क्या बात है. लगता है कोई ग़ज़ल न हो बल्कि हलकी मद्धिम चाल से बहती हुयी कोई नदी हो. क्या न्ग्म्गी भरी ग़ज़ल है !, क्या रवानी है, माशाल्लाह , बड़ा मुश्किल है . किस श'एर की तारीफ़ करूं किसे छोड़ दूँ ,ऐसी खूबसूरत ग़ज़ल लिखने के लिए आप मुबारकबाद की मुस्तहेक हैं.
मुहम्मद अहसन
इब्तेदा-ओ-कुर्बत, इन्तहा* थी उसकी मर्ज़ी
पूरब से निकला सूरज, पूरब में ढल रहा है
.
bahut accha , badhai.
vinay
बड़ी उम्दा और खूबसूरत ग़ज़ल है......
मुझे कोई भी शे'र बहुत पसंद नहीं आया। ग़ज़ल में एक ही काफिया के साथ लोग बहुत से मिसरे लिखते हैं। बड़ा शायर भी ऐसा करता है, लेकिन पब्लिक को वही सुनता/पढ़वाता है, जो कम से कम उसे बहुत दमदार लगे। कम से कम खुद को प्रथम आलोचक बनाना चाहिए। हर बंद से मोह त्यागना होगा।
Shailesh ji -
With due respect to your comment ....
Ek hi Kaafiye ke saath likhe gaye kaunse Ashaar ki or sanket hai?
This is not a comment on your comment but a serious and sincere question. I cd not find it, may be we are on different pages so wanna understand what you mean to say. Kindly let me know what you are pointing at.
If you're talking about the green/blue colored text...... then its not just the Kaafiya, but the whole Misraa is repeated. This generally does not happen in "Gazals". I did it intentionally and the color has been given to point out the repetition.
Rest ..... Poetry is subjective!!
RC
यहाँ शायद मैं समझा नहीं सका। मेरा कहना है हर गजलगो ग़ज़ल लिखने के अभ्यास के दौरन ढेरों शे'र (या मिसरे) लिखता है, लेकिन सुनाता वहीं है, प्रकाशित करता वही है जिससे कम से कम उसे संतुष्टि मिले। मेरे विचार से आपको इस गज़ल में चूजी होना चाहिए था। दोलाइनर से मोह त्यागना चाहिए था।
ghazal ki class chal rahee hai, log GURUJI se zyada se zyada seekhne ke liye muntazir haiN. `RC` ki ghazal pr Shalaish Bharatvaasiji ke tabsire ke baad GURUJI se guzaarish hai k iss baare meiN apni vaajib raae aur mashvire se navaazeiN. Aur RCji aapka radde.amal qaabil.e.ghaur hai. Your reaction is just commendable, and needs attention of all, including Bharatvaasiji.
Shailesh ji -
Ok, aap ki baat main bhi samajh gayi ab.
Everybody, Muflis ji - Thank you so much! Appreciate it!
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