उनकी बातें लगीं झिड़कियों की तरह।
जख्म मेरे खुले खिड़कियों की तरह।।
जल गये मेरे अरमां सभी के सभी।
फूंक डाली गई झुग्गियों की तरह।।
छोड़ कर चल दिये वो हमें दोस्तो।
आम की चूस लीं गुठलियों की तरह।।
बात अपनी कहो कुछ मेरी भी सुनो।
शोख चंचल खिली लड़कियों की तरह।।
जिन्दगी फिर रही है तड़पती हुई।
जाल में फँस गई मछलियों की तरह।।
प्यार करना ही है गर तुम्हें तो करो।
मीरा, राधा या फिर गोपियों की तरह।।
काश हो जाते हम नामवर दोस्तो।
कैस,मजनूं या फिर रोमियों की तरह
आ लिखें,फ़िर से खत,एक दूजे को हम
बालपन में लिखीं तख्तियों की तरह
देखकर,आपको धड़कने ,हैं हुई
कूदती,फाँदती हिरनियों की तरह
टूट ही तो गये मेरे सपने सभी
पनघटों पे टूटी मटकियों की तरह
चाहते आप ही बस नहीं हैं हमें।
घूमता है जहां फिरकियों की तरह।।
माफ कर दें इन्हें आप भी ‘श्याम’ जी।
आपकी अपनी ही गलतियों की तरह।।
घूमना है बुरा तितलियों की तरह।
घर भी बैठा करो लड़कियों की तरह।।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
उनकी बातें लगीं झिड़कियों की तरह।
जख्म मेरे खुले खिड़कियों की तरह।।
" बहुत प्रभावशाली अभीव्यक्ति '
regards
bahuta khoob.. shyam ji..
मित्रो ! ये कुछ पंक्तियां केवल उन लोगों के लिये हैं ,जो मेरी तरह्गज़ल के विद्यार्थी हैं,माहिर दोस्त तो पहले ही जानते हैं,
बहर के रुक्न हैं फ़ाइलुन,फ़ाइलुन,फ़ाइलुन,फ़ाइलुन ;अतः वज्न हुआ २१२.२१२,२१२,२१२,
अब आते है मतले पर यहां जो मत्ला है
उनकी बातें लगीं झिड़कियों की तरह।
जख्म मेरे खुले खिड़कियों की तरह।
इस मे. काफ़िये हैं झिड़्कियां.खिड़्कियां ,अब अगर हम इसे मतला मान लें तो अगले शे’रों मे [उर्दू में शेर का बहुवचन अशआर होता है ]तितलियों ,गोपियों
आदि काफ़िये नहीं आयेंगे ,क्योंकि अब इनमें ड़्कियों यथा झिड़्कियों ,लड़्कियों ,खिड़्कियों आना जरूरी है ,ग़ज़ल नियमानुसार,मगर .अगर हम अन्तिम श‘र को मतला मान लें तो यह समस्या हल हो जाती है
यथा अब पहला शे‘र मतला व दूसरा हुस्ने मतला कहलयेगा। और मतले मे काफ़िये बंध गये तितलियों ,लड़कियों अब बाकी काफ़िये गोपियों हिरनियों,फ़िरकियों
आदि जायज माने जाएँगे
घूमना है बुरा तितलियों की तरह।
घर भी बैठा करो लड़कियों की तरह।
उनकी बातें लगीं झिड़कियों की तरह।
जख्म मेरे खुले खिड़कियों की तरह।।
जल गये मेरे अरमां सभी के सभी।
फूंक डाली गई झुग्गियों की तरह।।
जिन्दगी फिर रही है तड़पती हुई।
जाल में फँस गई मछलियों की तरह।।
प्यार करना ही है गर तुम्हें तो करो।
मीरा, राधा या फिर गोपियों की तरह।।
उनकी बातें लगीं झिड़कियों की तरह।
जख्म मेरे खुले खिड़कियों की तरह।।
जल गये मेरे अरमां सभी के सभी।
फूंक डाली गई झुग्गियों की तरह।।
क्या बात है ग़ज़ल बहुत ही अच्छी है . आप ने व्याख्या की इस लिए आप का धन्यवाद
सादर
रचना
चाहते आप ही बस नहीं हैं हमें।
घूमता है जहां फिरकियों की तरह।।
घूमना है बुरा तितलियों की तरह।
घर भी बैठा करो लड़कियों की तरह।।
वाह...अच्छी रचना
आ लिखें,फ़िर से खत,एक दूजे को हम
बालपन में लिखी तख्तियों की तरह **********
श्याम जी बहुत सुंदर लिखा गया है .और आप से हम उम्मीद ही क्या कर सकते है ,व्याख्या लिखने के लिए भी धन्यवाद इससे नए पाठकों को बहुत सहायता मिलती है ग़ज़ल को समझने के लिए
जल गये मेरे अरमां सभी के सभी।
फूंक डाली गई झुग्गियों की तरह।।
well composed
regards
श्याम जी !
आपकी गज़ल वैसे हीं सदैव प्रशंसनीय होती है, लेकिन इस दफे प्रशंसा की प्रमुख पात्र है आपके द्वारा की गई गज़ल की व्याख्या।
मेरे जैसे गज़ल के छात्र के लिये यह व्याख्या बेहद उपयोगी साबित होगी।
धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
बहुत ही अच्छा लिखा है श्याम जी ....
छोड़ कर चल दिये वो हमें दोस्तो।
आम की चूस लीं गुठलियों की तरह।।
आ लिखें, फ़िर से खत,एक दूजे को हम।
बालपन में लिखीं तख्तियों की तरह।।
वाह वाह ... क्या खूब लिखा है?
बधाई ....
हरीश चंद्र संसी, शालीमार बाग, दिल्ली।
बहुत ही अच्छा लिखा है श्याम जी ....
छोड़ कर चल दिये वो हमें दोस्तो।
आम की चूस लीं गुठलियों की तरह।।
आ लिखें, फ़िर से खत,एक दूजे को हम।
बालपन में लिखीं तख्तियों की तरह।।
वाह वाह ... क्या खूब लिखा है?
बधाई ....
हरीश चंद्र संसी, शालीमार बाग, दिल्ली।
एक बार को तो मुझे लगा आपने एक गलती कर दी
आपने मकते के बाद एक शे'र रख दिया ज्बकि मकता आखरी शे'र होता है
पर बाद मे आपकी टिप्पणी पढकर समझ आया कि आपने मतले को गलती से मकते के बाद रख दिया था
सुमित भारद्वाज
बहुत ही दमदार कविता लगी.मजा आ गया.
आलोक सिंह "साहिल"
माफ कर दें इन्हें आप भी ‘श्याम’ जी।
आपकी अपनी ही गलतियों की तरह।।
क्या कहने सखा जी madhu
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)