आज मैं जब भी
रखता हूँ अगला कदम
तो उस से पहले सौ बार
सोचता हूँ
कि अजन्मे इस कदम के
बीज की कौन सी फ़सल उगेगी
धरती पर -
किस तरह बेचूँ इस बीज का
महत्त्व , कि अगली सदी में
बनें मूर्तियाँ मेरी शक्ल कीं
उन्होंने भी रोपे थे पौधे
मुझसे पहले-
कि आज तक
पूजी जाती हैं
वहीं मूर्तियाँ
जिनमें कोई आत्मा न हो-
आत्मा की मूर्ति गढ़ने
वाला बीज
अब तक पड़ा है
सुराही में ,
सदियों से-
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
किस तरह बेचूँ इस बीज का
महत्त्व , कि अगली सदी में
बनें मूर्तियाँ मेरी शक्ल कीं
उन्होंने भी रोपे थे पौधे
मुझसे पहले-
बहुत ही अच्छा विचार है आलोक जी |आपके बिम्ब तो हमेशा प्रभावित करते है |
bhut sundar rachana ki hai aapne. badhai ho. likhate rhe.
बहुत प्रभावशाली
ek kasak hai is kavita mein jo kuch sochne par majboor karti hai,aaj talak wo bij bandh hai surahi mein.ek prabhavi kavita ke liye bahut badhai.
आलोकजी-
जिनकी मूर्तियाँ पूजी जाती हैं (भले ही उसमें आत्मा ना हो----वैसे यह भी हम-आप कह सकते हैं-जो पूजते हैं वे तो यही समझते हैं कि इसमें आत्मा है) उन्होने यह सोंच कर अगला कदम नहीं रक्खा कि ---किस तरह बेचूँ इस बीज का महत्व कि अगली सदी में बने मूर्तियाँ मेरी शक्ल की ।
आत्मा की मूर्ति गढ़ने वाला बीज ( अर्थात ऐसी मूर्ति जिसमें आत्मा हो) धरा में अंकुरित नहीं होता।
-----देवेन्द्र पाण्डेय।
कि अजन्मे इस कदम के
बीज की कौन सी फ़सल उगेगी
धरती पर -
किस तरह बेचूँ इस बीज का
महत्त्व , कि अगली सदी में
बनें मूर्तियाँ मेरी शक्ल कीं
रचनाकार की उद्दाम जिजीविषा समर्थ बिम्बों और साधु शब्दावली में व्यक्त हो बहुत प्रभावशाली बन पडी है !
सशक्त प्रस्तुति
आलोक सिंह "साहिल"
कि अजन्मे इस कदम के
बीज की कौन सी फ़सल उगेगी
धरती पर -
किस तरह बेचूँ इस बीज का
महत्त्व , कि अगली सदी में
बनें मूर्तियाँ मेरी शक्ल कीं
चिरप्रभावी रचना...
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