गिलहरियाँ
आईने के उस तरफ से घूरता आदमी
देखता है एक अजनबी की तरह
और इस तरफ खड़े आदमी को
नज़र आती हैं गुलमोहर के शाखों पर
खेलती गिलहरियाँ
याद
पहली बार महसूस हुआ
आंखों की पुतलियों के बीच
कभी-कभार...कई कारणों से
आ जाने वाले हल्के गर्म पानी की जरूरत
और अनायास अम्मा की याद आ गई
भ्रम
समय ने कहा कि
वह स्थिर है
और उसके सापेक्ष
हर कुछ गति में.....
बरसात
पूस से जेठ तक
नज़रों से खोदा करते थे लोग
आसमाँ को....तब कहीं जाकर
उतरता था आषाढ़ में पानी
भूख
किन नज़रों से देखें
उन बच्चों की माएं... आसमां को
जिनको मयस्सर नहीं
दो जून की रोटी
ताकि पानी की जगह
दूध बरसे आसमाँ से
बेखबर
गांव का घर
बाढ़ में बह गया..
...उसे पता ही नहीं
बिजली नहीं थी
जिस दिन टीवी पर
खबर आई थी
पछतावा
खुदकुशी से पहले तक
वह दूसरों की ही
खुशी देखता था..
उसके चेहरे पर..
आज पहली बार
पछतावा दिखा
समाज
हर कोई अपाहिज है
हर कोई भिखारी भी
सिर्फ बदलता रहता है...
दाता-याचक का रिश्ता
नाउम्मीद
हर पल लगा कि
अब कुछ अच्छा होगा
इसी उम्मीद में ...
एक और ज़िन्दगी गुजर गई
वियोग
हवा ने पलट दी बाजी
उड़ते-उड़ते ख़बर आई
कि बन्नो अपने मुंहबोले भाई के साथ
घर से भाग गई है...
अनोखा सच
हर बच्चा जानता है
माँ उसे प्यार करती है
और हर माँ जानती है
वह किसे प्यार करती है
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
यह क्षणिकाएँ मनभावन है
अभिषेक जी
भुत ही सही कहा-
हर बच्चा जानता है
माँ उसे प्यार करती है
और हर माँ जानती है
वह किसे प्यार करती है
साधुवाद
काफ़ी अच्छी क्षणिकाएँ थीं अभिषेक जी..पर मुझे बहुत ही अच्छे से पता है क़ि आप इससे भी बेहतर लिख सकते हैं ...
यह वाली क्षणिका विशेष पसंद आई......
"पूस से जेठ तक
नज़रों से खोदा करते थे लोग
आसमाँ को....तब कहीं जाकर
उतरता था आषाढ़ में पानी "
काफ़ी अच्छी क्षणिकाएँ थीं अभिषेक जी..पर मुझे बहुत ही अच्छे से पता है क़ि आप इससे भी बेहतर लिख सकते हैं ...
यह वाली क्षणिका विशेष पसंद आई......
"पूस से जेठ तक
नज़रों से खोदा करते थे लोग
आसमाँ को....तब कहीं जाकर
उतरता था आषाढ़ में पानी "
अभिषेक जी आपकी क्षणिकाएं पसंद आयी ....गिलहरियाँ,बरसात ,याद ,
बेखबर, समाज , नाउम्मीद...........ये सब बहुत अच्छी लगी ...
प्रेम
पहली बार महसूस हुआ
आंखों की पुतलियों के बीच
कभी-कभार...कई कारणों से
आ जाने वाले हल्के गर्म पानी की जरूरत
और अनायास अम्मा की याद आ गई
behad khubsurat badhai
याद-भ्रम-बरसात-भूख-पछतावा-समाज-नाउम्मीद-वियोग-अनोखा सच- से बेखबर-------गुलमोहर के शाख पर खेलती हैं --गिलहरियॉ।
अभिषेक भाई एक एक क्षणिका लाजवाब है, किसी एक की तारीफ नही कर सकता, जबरदस्त.... सब कुछ समेट दिया चाँद पंक्तियों में....
क्या बात है अभिषेक जी. बेजोड़. वाह !
क्षणिकायें क्या मणिकायें हैं जी मणिकायें..
बहुत बढिया अभिषेक जी..
अभिषेक जी ,
सभी क्षणिकाएँ बहुत अच्छी हैं,
शुभकामनाएं
^^पूजा अनिल
एक - दो तो इतनी अच्छी बनी है कि क्या कहा जाए - superb !!!
अवनीश तिवारी
पाटनी जी,किस क्षणिका की तारीफ़ की जाए?सब एक से बढ़कर एक है,बेहतरीन
आलोक सिंह "साहिल"
मैं तो अभिभूत हूं...मैं सोच भी नहीं सकता इस स््तर तक...लेकिन क्षणिकाएं पढ़ने के बाद बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हो गया....कैसे लोग इतनी गहरी बात सोच लेते हैं...और उसे इतने खूबसूरत अंदाज में पेश भी कर देते हैं...अभिषेक जी मुझे आपसे मिलने की दिली तमन््ना है...बधाई....
मैं तो अभिभूत हूं...मैं सोच भी नहीं सकता इस स््तर तक...लेकिन क्षणिकाएं पढ़ने के बाद बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हो गया....कैसे लोग इतनी गहरी बात सोच लेते हैं...और उसे इतने खूबसूरत अंदाज में पेश भी कर देते हैं...अभिषेक जी मुझे आपसे मिलने की दिली तमन््ना है...बधाई....
सब की सब बहुत अच्छी लगी अभिषेक भाई।
विशेषकर ये दोनों
पूस से जेठ तक
नज़रों से खोदा करते थे लोग
आसमाँ को....तब कहीं जाकर
उतरता था आषाढ़ में पानी
किन नज़रों से देखें
उन बच्चों की माएं... आसमां को
जिनको मयस्सर नहीं
दो जून की रोटी
ताकि पानी की जगह
दूध बरसे आसमाँ से
हर एक क्षणिका उल्लेखनीय है। इसलिए जगह की बर्बादी बचाने के लिए मैं किसी का उल्लेख नहीं कर रहा :)
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
Deep meaning of various aspects of life are always well portrayed by the poet. I really liked :
नाउम्मीद
हर पल लगा कि
अब कुछ अच्छा होगा
इसी उम्मीद में ...
एक और ज़िन्दगी गुजर गई
एक और जिंदगी गुजर गई....वाह बहुत ही सुंदर
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