सुनो,
मेरे पास यही है तरीका
और यही है विकल्प
कि घुमा फिरा कर कहूं
सब कुछ ऐसे
कि तुम समझो बस
और बाकी सब
ताली पीटकर खुश होते रहें
या छाती पीटकर रोते रहें।
मुझे नहीं अनुमति दी गई
कि टहलने निकलो तुम
तो किसी मोड़ से साथ हो लूं
और बतियाता चलूं
सीधे प्यारे अन्दाज़ में
सीधी सीधी बातें।
मैंने चुरा लिया यही ढंग
कि चाँद पे झूला झुलाता रहा तुम्हें
और बादलों पर उड़ते हुए
मतलब बेमतलब का कहता रहा।
तुम नाराज़ हुए
तो अपने घर में
तोते के पिंजरे में
गलतफ़हमियाँ पालकर रोते रहे
कोसते रहे मुझे।
क्या करूं?
मुझे नहीं सिखाया गया मनाना
और जब भी झुकने लगा,
टूट गया,
तोड़ दिया गया
इसलिए मैं हाथी पर चढ़कर
गुजरता रहा चुपचाप
तुम्हारे घर के सामने से,
तोते खाते रहे इमलियाँ।
मेरे पास यही है तरीका
और यही है विकल्प
कि घुमा फिरा कर कहूं
सब कुछ ऐसे
कि तुम समझो बस
और बाकी सब
ताली पीटकर खुश होते रहें
या छाती पीटकर रोते रहें।
मुझे नहीं अनुमति दी गई
कि टहलने निकलो तुम
तो किसी मोड़ से साथ हो लूं
और बतियाता चलूं
सीधे प्यारे अन्दाज़ में
सीधी सीधी बातें।
मैंने चुरा लिया यही ढंग
कि चाँद पे झूला झुलाता रहा तुम्हें
और बादलों पर उड़ते हुए
मतलब बेमतलब का कहता रहा।
तुम नाराज़ हुए
तो अपने घर में
तोते के पिंजरे में
गलतफ़हमियाँ पालकर रोते रहे
कोसते रहे मुझे।
क्या करूं?
मुझे नहीं सिखाया गया मनाना
और जब भी झुकने लगा,
टूट गया,
तोड़ दिया गया
इसलिए मैं हाथी पर चढ़कर
गुजरता रहा चुपचाप
तुम्हारे घर के सामने से,
तोते खाते रहे इमलियाँ।
जाने कैसे
कौनसी प्रक्रिया से
ऐसा हो गया है कि
जब भी इतना दर्द उठता है
कि निकलते नहीं आँसू,
जब इतनी खुशी होती है
कि हँसी नहीं आती,
या आक्रोश सिर चढ़कर बोलता है
और आता है बहुत क्रोध,
जब कुछ भी कहने का
उलाहना लिए बिना
बहुत कुछ कहना होता है,
इतना कुछ कि
आवश्यकता हो
एक महान, अद्भुत, कालजयी कविता की
तब तब लिखी हैं मैंने
अपने जीवन की
सबसे खराब कविताएँ।
कौनसी प्रक्रिया से
ऐसा हो गया है कि
जब भी इतना दर्द उठता है
कि निकलते नहीं आँसू,
जब इतनी खुशी होती है
कि हँसी नहीं आती,
या आक्रोश सिर चढ़कर बोलता है
और आता है बहुत क्रोध,
जब कुछ भी कहने का
उलाहना लिए बिना
बहुत कुछ कहना होता है,
इतना कुछ कि
आवश्यकता हो
एक महान, अद्भुत, कालजयी कविता की
तब तब लिखी हैं मैंने
अपने जीवन की
सबसे खराब कविताएँ।
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
जाने कैसे
कौनसी प्रक्रिया से
ऐसा हो गया है कि
जब भी इतना दर्द उठता है
कि निकलते नहीं आँसू,
जब इतनी खुशी होती है
कि हँसी नहीं आती,
या आक्रोश सिर चढ़कर बोलता है
और आता है बहुत क्रोध,
जब कुछ भी कहने का
उलाहना लिए बिना
बहुत कुछ कहना होता है,
इतना कुछ कि
आवश्यकता हो
एक महान, अद्भुत, कालजयी कविता की
तब तब लिखी हैं मैंने
अपने जीवन की
सबसे खराब कविताएँ।
कविता बहुत ही सुन्दर है सिर्फ नाम ही खराब रखा
दिल को छू लेने वाली कविता है
सुमित भारद्वाज
तोते खाते रहे इमलियाँ...
मैंने चुरा लिया यही ढंग
कि चाँद पे झूला झुलाता रहा तुम्हें
और बादलों पर उड़ते हुए
मतलब बेमतलब का कहता रहा।
तुम नाराज़ हुए
तो अपने घर में
तोते के पिंजरे में
गलतफ़हमियाँ पालकर रोते रहे
कोसते रहे मुझे।
बहुत खूब!
कौनसी प्रक्रिया से
ऐसा हो गया है कि
जब भी इतना दर्द उठता है
कि निकलते नहीं आँसू,
जब इतनी खुशी होती है
कि हँसी नहीं आती,''
-कभी कभी समझ नहीं आता कि जीवन की इन बारीकियों को गौरव तुम इस छोटी उमर में कैसे महसूस कर पाते हो???
बस --अपनी लेखनी को संभाल कर रखना.जीवन की आपा धापी में कहीं खो न जाए!
शुभकामनाएं
गौरव,
अगर बहुत से असबंधित प्रंसग डालने से अगर एक अच्छी कविता बनती तो शायद यह भी एक अच्छी कविता होती... मुझे तो सचमुच खराव कविता लगी.. सिर्फ़ आखिर में आप कुछ कहने में सफ़ल हुये.
चांद पे झूला
तोते के पिंजरे में
हाथी पर चढ कर
तोते इमलियां खाते रहे
पढने में शायद अच्छे लगें पर मुझे कहीं प्रभावित करते प्रतीत नहीं हुये
अच्छी लगी आपकी कविता
ऐसी ही खराब कवितायें लिखिये। मुझे अच्छी लगती हैं।
पहली बार कविता पड़ते हुए लगा की गौरव की होगी........
और जब तुम्हारी कविता निकली तो अच्छा लगा.....
पर ये तुम्हारी सबसे ख़राब कविता तो नही लगी.....
गौरव जी आपकी सबसे ख़राब कविता हमें बड़ी अच्छी लगी , ऐसे ही लिखते रहिये , शुभकामनाएं
^^पूजा अनिल
गौरव जी,
अल्पना जी सही कह रही हैं, आपकी कलम बारीकियों को मोटा कर देती है और समझाने मे सफल हो जाती है छोटी छोटी बातों का बड़ा बड़ा अर्थ..
लिखते रहें.. शुभकामनायें..
आपकी कविता अच्छी लगी.
anish12345आपके प्रतिभा से परिचित हूँ |
लेकिन, मुझे यह रचना ज्यादा नही भायी |
समझने के मेरी कमजोरी के कारण शायद |
आपके नयी रचना के प्रतीक्षा मे ...
अवनीश तिवारी
जब किसी से हम प्यार करते हैं तो धीरे धीरे उसके हर अच्छे बुरे को हम प्यार करने लगते हैं,आजतक आपकी अच्छी कवितायेँ पढीं,पसंद की,लो आज बुरी भी पढ़ ली,सुंदर
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत दिनों से इधर आना नहीं हुआ, आया तो सोलंकी जी की ख़राब कविता के दर्शन हो गए.
गौरव जी, सुनो !
मेरे पास भी यही है तरीका,
और यही है विकल्प
कि घुमा फिरा कर कहूं
सब कुछ ऐसे
कि तुम समझो बस
और बाकी सब
ताली पीटकर खुश होते रहें
या छाती पीटकर रोते रहें।
गौरव!!
तुम्हारी यह कविता उन लोगों पर एक कटाक्ष है, जो अपने झूठे आक्रोश को किसी कविता या कहानी के माध्यम से दर्शाते हैं, वे लोग जो कहना कुछ चाहते हैं लेकिन उस पर एक बनावटी परत डाल कर पेश करते हैं। और इस कविता की खासियत यह है कि यह कविता भी उसी अंदाज़ में लिखी गई है ताकि बस समझने वाले को हीं समझ आए और जो समझेगा वह इसे खराब कविता हीं मानेगा ;)
बाकी लोगों को यह अच्छी लगेगी निस्संदेह !!!
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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