क्या विडंबना है - हम इतनी तरक्की कर पाए,
भिखारी को मोबाइल तो दे सके किंतु रोटी न दे पाए ।
क्या विडंबना है - साठ साल से प्रौढ़ शिक्षा चला रहे हैं,
बच्चों को अनपढ़ रख उन्हे बूढे़ होने पर पढा रहे हैं ।
क्या विडंबना है - शहरों में मेट्रो रेल तो ला सके हैं,
लेकिन आम आदमी को अभी तक एक घर न दे सके हैं ।
क्या विडंबना है - खेती की पैदावार दस गुना बढ़ा चुके हैं,
लेकिन किसानों की आत्महत्या को नही रोक सके हैं ।
क्या विडंबना है - लाखों डिग्री धारक बना दिए हैं,
लेकिन उनको रोजगार के कोई साधन नही दिए हैं ।
क्या विडंबना है - कितने कोर्ट कचहरी खुलवाए
लेकिन एक मुकदमा निपटाने को चार जन्म लेने पड जाएं ।
क्या विडंबना है - कितने करोड़पति पैदा किए घर से
लेकिन आधी जनता दो वक्त की रोटी को तरसे ।
क्या विडंबना है - सबसे अधिक कानून हमने बनाए
लेकिन भ्रष्टाचार देश का अभिन्न अंग है यही समझ पाए ।
क्या विडंबना है - बच्चे भगवान का रूप होते हैं,
लेकिन सबसे अधिक बाल मजदूर हमारे यहां ही होते हैं ।
क्या विडंबना है - मल्टीप्लेक्स, माल्स, गगनचुंबी इमारते हैं,
लेकिन यहां आधे लोग झुग्गी झोपड़ी में रहते हैं ।
क्या विडंबना है - देश को ये नेता चलाते हैं,
जो देश को कम देशवासियों को ज्यादा चलाते हैं ।
कवि कुलवंत सिंह
http://kavikulwant.blogspot.com
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
कवि कुलवंत जी आपकी कविता पर टू मई यही कहूं गी की :-
यह समस्याएं तो इतनी
कि ख़त्म होती नही
पर दुःख तो है इस बात का
इक आँख भी रोती नही
बहुत अच्छी कविता |बधाई
इतनी सारी विडम्बनायें पढ़कर लगता है कि इस देश का नाम बदलकर विडम्बना हो जाना चाहिये।
बताया आपने सही है पर कुलवंत जी आप इससे कहीं अच्छा लिख सकते हैं।
सच कैसी विडम्बना है ये ,har pankti sarthak sawal karti hai,bahut khub badhai
अजीब विडंबना है की आज आपकी कविता भियो वादाम्बनीय ही लगती है.खैर,कुछ विदाम्बनाएं जरुरी हैं ताकि जीवन चल सके
आलोक सिंह "साहिल "
बातें अच्छी हैं,लेकिन कविता ज़ीरो।
कवि जी, इस पर ध्यान दें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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