जो भी अभियान है,
एक दूकान है
जैसे कोई अधेड़न लिपिस्टिक लपेटे
लबों पर खिलाती हो मुर्दा हँसी
तुम हँसे वो फँसी।
एक दूकान है
जैसे कोई अधेड़न लिपिस्टिक लपेटे
लबों पर खिलाती हो मुर्दा हँसी
तुम हँसे वो फँसी।
मैं फरेबों में जीते हुए थक गया
शाख में उलटे लटक पक गया
जिनके चेहरों में दिखते थे लब्बो-लुआब
मुझको दे कर के उल्लू कहते हैं वो
सीधा करो जनाब
ख़्वाब सारे तो हैं झुनझुने थाम लो
ले के भोंपू जरा टीम लो टाम लो
बिक सको तो खुशी से कहो, दाम लो
मर सको तो सुकूं से मरो, जाम लो
जो करो एक भरम हो जो जीता रहे
जीत अपनी ही हो, हाथ गीता रहे
रेत के हों, महल उसकी बुनियाद क्या?
पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
जा के नापो फकीरे सड़क दर सड़क
मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को
यूं जमीं मे गड़ा, सुनता फरियाद क्या?
मैं पहाड़ी नदी से मिला था मगर
उसकी मैदान से दोस्ती हो गयी
मैं किनारे की बालू में टूटा हुआ
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?
*** राजीव रंजन प्रसाद
6.04.2008
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
मैं फरेबों में जीते हुए थक गया
शाख में उलटे लटक पक गया
जिनके चेहरों में दिखते थे लब्बो-लुआब
मुझको दे कर के उल्लू कहते हैं वो
वाह राजीव जी पढ़ कर मजा आया
बढिया है..
सही बात है राजीवजी टूटे हुए मन पर कोई मुआवजा नहीं मिलता। काश एेसा हाे पाता। रेत के हों, महल उसकी बुनियाद क्या?पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
कितना गहरा अर्थ है ईनमें
बहुत अच्छे
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?
अतिसुंदर!! राजीव जी, आपका लेखन-कौशल प्रभावी है। कविता में शुरू से आखिर तक प्रवाह कायम है।
"जा के नापो फकीरे सड़क दर सड़क" यहाँ फकीरे नापने से क्या मतलब है?? कृप्या स्पष्ट करें।
रविकांत जी,
केवल मुहावरे का कथ्य में मिश्रण है। फकीर को कुछ न देने की स्थिति में "रास्ता नापने" की सलाह दी जाती है। एसे में फकीर ही याचक के सम्मुख हो तो?....बस कथ्य में इसी को "जेब की पैबंद" के साथ कहने का मैने यत्न किया है। आभार कि आपने रचना को पसंद किया।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या
kya baat hai?.....these lines touch the heart
बहुत खूब कहा राजीव जी
जो करो एक भरम हो जो जीता रहे
जीत अपनी ही हो, हाथ गीता रहे
और
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?
बहुत अच्छा लिखा है , बधाई
पूजा अनिल
जीत अपनी ही हो, हाथ गीता रहे
रेत के हों, महल उसकी बुनियाद क्या?
पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
जा के नापो फकीरे सड़क दर सड़क
मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को
यूं जमीं मे गड़ा, सुनता फरियाद क्या?
बहुत खूब लिखा है आपने राजीव जी ..सच खूब निखर के आया है आपकी इस रचना में .
मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को
यूं जमीं मे गड़ा, सुनता फरियाद क्या?
बहुत ही सुंदर तरीके से आपने एक सोच प्रस्तुत की है अऔर् आम -आदमी की भावना को प्रदर्शित किया है ..
मैं फरेबों में जीते हुए थक गया
शाख में उलटे लटक पक गया
जिनके चेहरों में दिखते थे लब्बो-लुआब
मुझको दे कर के उल्लू कहते हैं वो
सीधा करो जनाब
राजीव जी क्या सच्च बयान किया है aapne , man ko choo gai aapki kavita
'जो करो एक भरम हो जो जीता रहे'
एकदम खरी बात कह दी है आपने.
कविता में प्रवाह और प्रभाव दोनों हैं.
कविताकिसी भी आम इंसान के दिल की बात कह रही है.
त के हों, महल उसकी बुनियाद क्या?
पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
जा के नापो फकीरे सड़क दर सड़क
मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को
यूं जमीं मे गड़ा, सुनता फरियाद क्या?
बहुत खूब,राजीव जी बहुत अच्छा लिखा आपने.बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
डा. रमा द्विवेदीsaid...
अच्छी रचना है राजीव जी....कथ्य ,शिल्प और संप्रेष्णीयता सब कुछ का समन्वय है इस रचना में,लेकिन आगे आपको और सावधानी बरतनी होगी....आप ऐसा कर पाएंगे ..मुझे विश्वास है....
शुभकामनाओं सहित ...ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं....
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवजे क्या?
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