क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला पेट की भूख़ भूल जाता,
और प्यासे मन की दाह को तृप्त कर पाता,
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला अपनी थकन को खूंटी पर उतार टांगता,
और पसीने से लथ-पथ बदन को हवाओं में लिपटा पाता,
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला देख पाता अपना अक्स उसमें,
और टूटे ख्वाबों की किरचों को फ़िर से जोड़ पाता,
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला रुई की मानिंद हल्का हो जाता,
पंछियों सा उड़ता, और मछलियों सा तैर पाता,
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
जिसका हर्फ़ हर्फ़ आँखों में आंसू की तरह उतर आता,
परदे़स में आयी, वतन की याद सा बिखर जाता....
....सुबह जब देखी,
रात भर की जगी...
थकी... उदास...
...ऑंखें तुम्हारी मैंने,
बस यही सोचा -
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता.....
( दिल्ली के रेड लाइट इलाके से खींची गयी एक तस्वीर, सौजन्य - मनुज मेहता, छायाकार, हिंद युग्म )
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34 कविताप्रेमियों का कहना है :
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला देख पाता अपना अक्स उसमें,
और टूटे ख्वाबों की किरचों को फ़िर से जोड़ पाता,
वाह संजीव जी! ऐसा ही हर कवि का ख्वाब होता है
सजीव जी ,
ऐसा लगा जैसे मे अपनी ही कविता पढ़ रहा
क़ाश कलम मैं ताकत आज भी उतनी ही होती
सच को सच कहकर जो झूट से नफरत करती
सुंदर रचना......
रचना पसंद आयी |
छायाचित्र के साथ सामाजिक समस्या को छेदने की कोशिश भी अच्छी है |
अवनीश तिवारी
bhaut khoob likha hai
सजीव जी,
आपकी रचनाओं का चिर-परिचित मोहक स्वाद है। रूई के फाहे जैसे शब्द और घाव न जलें इस लिये "डिटॉल" की जगह "सेवलॉन"....
*** राजीव रंजन प्रसाद
I can't think of any new words to praise your poetry. Fantastic!
सजीव जी,
सुन्दर भाव भरी रचना है.. बधाई
मैने भी एक कविता लिखी थी कुछ यही भाव लिये.. पेश है
काश मैं बन पाता
नजर, नजारो के लिये
चमन, बहारों के लिये
चमक, सित्तारों के लिये
दवा, बिमारों के लिये
लहर, किनारों के लिये
मगर सोती आंखों से देखे हुये सपने
रोती हुई आखों के सपने बन रह गये
एक एक कर
पेट की भट्टी में
गृहस्ती की चक्की में
वक्त की आंधियों के साथ बह गये
मन का पथरीला आक्रोश
बूंद बूंद पानी बन पिघल गया
सपनों पर लगाम लगा
हवा में उडता चित
फिर किसी छोटी सी खुशी से बहल गया
जिसे झुकना नहीं
टूटना मंजूर था वही शक्स
कमान सा दोहरा हो
जरुरतों की रस्सी से कस गया
काश में बन पाता .....
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला देख पाता अपना अक्स उसमें,
और टूटे ख्वाबों की किरचों को फ़िर से जोड़ पाता,
सुंदर रचना.
Regards
सजीव जी आपकी कविता सचमुच मेरी भूख प्यास , थकान दूर कर रही है सोच काफी अच्छी है
बहुत सुंदर लिखते रहिये
वाह संजीव जी!
सुंदर रचना......आपने वो रचना लिख दी है जो
आप लिखना चाह रहे थे आपके मन के उदगार आपकी कलम के जरिये हम तक पहुंच गये है मुबारक हो
वाह सजीव जी वाह!
बहुत सशक्त रचना -
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला देख पाता अपना अक्स उसमें,
और टूटे ख्वाबों की किरचों को फ़िर से जोड़ पाता,
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला रुई की मानिंद हल्का हो जाता,
और मनुज जी बहुत बहुत बधाई आपके हुनर के लिये.. समाज की एक सच्चाई...
बढ़िया,
लेखन में पूर्ण स्वाभिव्यक्ति इसे ही कहते हैं, मन की बेचैनी, अपनी अक्षमता, कल्पना सभी को जगह मिली है इस रचना में।
बधाई!!
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला देख पाता अपना अक्स उसमें,
और टूटे ख्वाबों की किरचों को फ़िर से जोड़ पाता,
बहुत सुंदर सजीव जी ..
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला रुई की मानिंद हल्का हो जाता,
पंछियों सा उड़ता, और मछलियों सा तैर पाता,
कविता लिखने वाला हर दिल शायद कुछ ऐसा ही सोचता है ..बहुत सुंदर लगी आपकी यह रचना दिल को छू जाने वाली .. बधाई सुंदर रचना के लिए !..मोहिंदर जी आपका लिखा भी बहुत अच्छा लगा !!
इस चित्र मे गहरी उदासी है ....आपकी कविता की तरह
....सुबह जब देखी,
रात भर की जगी...
थकी... उदास...
...ऑंखें तुम्हारी मैंने,
बस यही सोचा -
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता.....
सजीव सारथी जी,
कविता पढने के बाद मैं भी यही कहने पर मजबूर हूँ कि "क़ाश... मैं भी ऐसी कोई कविता लिख पाता...."
सजीव जी,
हर सच्चे कवि की यह ख्वाहिश होती है कि वह ऎसा कुछ लिख सके , जिससे समाज में कुछ सुखद परिवर्त्तन आएँ।
आपकी कविता में भी उसी आरजू के स्वर सुनाई पड़ते हैं।
अंतिम पंक्तियों में एक कवि की प्रेरणा झलक पड़ी है।कवि दु:ख देखकर दु:खी है और यही कवि की सच्चाई भी है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
सजीव जी, "ऐसी कोई कविता"अच्छी लगी।
कविता मानवीय सरोकार से जुडी हुई है।
जो पीडा आपने महसूस की है,वही एक लेखक का
धर्म है।हम चाहकर भी किसी की प्रत्यक्ष सहयोग नही कर सकते। रचना ही हमारी ताकत होती है।
इन थकीं, रतजगी और् उदास आँखों को देखकर कोई भी उध्द्वेलित हो जाएगा,यही रचनाकार की सफलता है।आप अपने प्रयास में सफल रहे हैं। बधाई!
waah maza aa gaya sanjeev...behad sunder rachna...
कितना सच है आपकी कविता में हर कवि का सपना यही होता है कि उसकी कविता किसी एक के दिल को ता सकून दे । अति सुंदर रचना । अभिनन्दन !
काश मैं ऐसी कविता लिख पाता, पर ऐसी कविता तो आप लिख गये और वो बनी भी खूब, थोड़ी उदास है कविता पर हर दिल की कहानी है ये कविता
दोस्तों कविता पसंद आई इसके लिए धन्येवाद, पर निराश भी हूँ की जो कविता के माध्यम से कहना चाहता था वो शयाद आप तक पहुँच नही पाया, क्यों नही पहुँच पाया इसका उत्तर ढूँढ रहा हूँ...... मैंने एक तस्वीर भी लगाई थी, पर किसी ने भी नही सोचा की आखिर उस तस्वीर का कविता से क्या सम्बन्ध है ...... खैर, गलती मेरी ही होगी..... अगली बार बिम्ब और सरल रखूँगा
सजीव जी
वाह! अतीव सुंदर -
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला रुई की मानिंद हल्का हो जाता,
पंछियों सा उड़ता, और मछलियों सा तैर पाता,
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
जिसका हर्फ़ हर्फ़ आँखों में आंसू की तरह उतर आता,
अपने सच मैं ऐसा ही लिखा है. बधाई
सजीव सर बेजुबान कर दिया आपने हमें,साथ ही तस्वीर भी अच्छी,लाजवाब
आलोक सिंह "साहिल"
क्या कहूँ सजीव जी? ऊपर २४ कमेंट हैं। मेरी तरफ से सारे दोबारा पढ़ लें। वैसे "काश" शब्द हताशा व्यक्त करता है। कईं बार हम बहुत ही असहाय से महसूस करते हैं। मुझे नहीं पता मैं क्या कहूँ।
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला देख पाता अपना अक्स उसमें,
और टूटे ख्वाबों की किरचों को फ़िर से जोड़ पाता,
bahut khoob, meri khinchi is tasveer ko shabd de diye aapney.
bahut khoob sajeev ji.
regards
Manuj Mehta
सुबह जब देखी,
रात भर की जगी...
थकी... उदास...
...ऑंखें तुम्हारी मैंने,
बस यही सोचा -
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता.....
iske liye to kya khoon, us ladki ke manobhav aapne to khol kar rakh diye hain
manuj mehta
Sajeev
tumari yeh kavita padkar aisa laga
ki kii sachmooch tum ne woh kavita likh di hai jo tum likhna chahte ho,Dil ko chhoo gayi tumari kavita
Kash dost main bhi tumari tarah likh pata, chalo tumhe likhe ko padkar hi khush ho leta hoon
....सुबह जब देखी,
रात भर की जगी...
थकी... उदास...
...ऑंखें तुम्हारी मैंने,
बस यही सोचा -
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता...
..तो सजीव जी यहाँ है वो बात जो आप कहना चाहते हैं ठीक बात है इन औरतों का दर्द कितने लोग समझ पाते हैं और आप इनके दर्द में सहभागी होना चाहते हैं. मैं आपकी इस तकलीफ और सम्वेदना को समझ सकता हूँ. पर यह कविता सिर्फ यहीं तक नहीं है यह और आगे जा कर व्यापक जीवन तक मिलती है.
sajeev dost! shayad yahi niyati hai aur ismain samaaj ka bahut bada haath hai lekin har qalam yadi isi nek khawahish ke saath utthe to nishchit roop se aap jaison ki khawahish poori ho sakti hai . bahut achchhi koshish hai!
डा. रमा द्विवेदी said...
’काश’ शब्द ही बहुत कुछ कह देता है....फिर सीकचों के पीछे खड़ी लड़की का दर्द एक ज्वलंत सामाजिक समस्या की ओर संकेत करता है जो अंतिम पंक्तियों में उभरा है...शायद आप यही कहना चाहते थे। वेदना कविता को जन्म देती है....और आपकी यह कविता अपने संदेश को संप्रेषित करने में सफल रही है...बधाई और शुभकामनाएं..मनुज जी को बहुत बहुत बधाई ..
....सुबह जब देखी,
रात भर की जगी...
थकी... उदास...
...ऑंखें तुम्हारी मैंने,
बस यही सोचा -
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता.....
मैं सहमत हुँ आपसे कि काश! आप ये कविता लिख पाते या कि ये कविता लिखी ही हुई है उन आँखों में पर काश! आपकी तरह और भी पढ़ पाते इसे।
sanjeev ji maine fir se aapki kavita padhi...mujhe to bahut achhi lagi....
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला पेट की भूख़ भूल जाता,
और प्यासे मन की दाह को तृप्त कर पाता,
क़ाश... मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
बहोत खूब संजीव जी।
काश....मैं भी ऐसी कोई कविता लिख पाती...!
डॉ अमरकुमार का आभार जिनके कारण इस भावभीनी कविता को पढ़ने का मौका मिल गया.
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