१ (आत्मकथा १)
मैं उस दौर में पैदा हुआ
जब भूख से तड़प कर
एक ही परिवार के
सात लोग मरे थे,
और तब
देश की अधिकांश जनता
'डायटिगं' करती थी........
'फीगर मेन्टेन' करने के लिए
२ (आत्मकथा २)
मैं उस दौर में पैदा हुआ
जब लोग
धरती पर जनमते थे
और
चाँद पर रहते थे....
३ नई उपमा
जब से सुना है
चाँद पर मकां बनने वाले हैं
मुझे उसका चेहरा
आधी खुल खिड़की सा, दिखता है
४ सयानापन
कच्चेपन की मुझमें
ज़रा भी गुंजाइश नहीं
वक्त ने दोनों तरफ़
बराबर सेंका है मुझे
रोटी की तरह
५ इसीलिए
मेरे मन में खाद है कहीं
आँखों की जमीन में, माकूल नमी
इसीलिए
मेरे ज़ख्म
हमेशा हरे रहते हैं
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरे मन में खाद है कहीं
आँखों की जमीन में, माकूल नमी
इसीलिए
मेरे ज़ख्म
हमेशा हरे रहते हैं
" वाह बहुत सुंदर अभीव्य्क्ती, दर्द भरी , अच्छी लगी "
Regards
कच्चेपन की मुझमें
ज़रा भी गुंजाइश नहीं
वक्त ने दोनों तरफ़
बराबर सेंका है मुझे
रोटी की तरह
वाह मनीष लगता है हम जैसे कई लोगो की कहानी है यह...बेहतरीन रचना...तुम्हारी श्रेष्ठ क्षणिकाओं में से है यह...
मनीष भाई, बहुत ही उम्दा. फुलझडि़याँ नहीं - पटाखे़. बाकमाल अदायगी. शुक्रिया, पढ़ कर भुत अच्छा लगा.
बहुत खूब मनीष ..तुम माहिर हो इस विधा में ..कोई शक नही यह कहने में ..बहुत ही अच्छी लगी सबकी सब पर यह विशेष रूप से पसंद आयीं
नई उपमा
जब से सुना है
चाँद पर मकां बनने वाले हैं
मुझे उसका चेहरा
आधी खुल खिड़की सा, दिखता है
*****
इसीलिए
मेरे मन में खाद है कहीं
आँखों की जमीन में, माकूल नमी
इसीलिए
मेरे ज़ख्म
हमेशा हरे रहते हैं
मनीष जी आप इन्हे फूलजड़ीयां कहते हैं . पर ये तो शोले है जो आग लगा जाते है . अच्छा लगा पढ़कर .
मनीष जी,
अरसे बाद आपको पढा और तृप्त हुआ। दोनों ही आत्मकथायें क्षणिका का अप्रतिम उदाहरण हैं जिसमें "घाव करे गंभीर चरितार्थ होता है"। क्षणिकायें सभी अच्छी बन पडी हैं, सयानापन विषेश पसंद आयी।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मनीष क्षणिकायें बहुत ही सटीक और सार्थक हैं।
कच्चेपन की मुझमें
ज़रा भी गुंजाइश नहीं
वक्त ने दोनों तरफ़
बराबर सेंका है मुझे
रोटी की तरह
lajavb....behtareen..aor aakhiri vali bhi achhi lagi.
एक बात पक्की है कि आप उस दौर में पैदा हुए हैं, जिसकी कविता को आपकी बहुत जरूरत है। एक साथ इतनी अच्छी क्षणिकाएं कम ही पढ़ने को मिलती हैं मनीष जी।
पहली आत्मकथा अपने आप में पूरी किताब है...
लिखते रहिए।
आपकी क्षणिकाएँ बहुत -बहुत अच्छी लगी ,विशेषकर स्यानापन aur nai upama.....seema
सभी क्षणिकाएँ बहुत अच्छी है |
अवनीश तिवारी
मनीष भाई आप आ ही गए,बहुत अछे,एक से बढ़कर एक क्षणिकाएँ,बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
वाह मनीष जी
बहुत खूब
आपकी क्षणिकाएँ बहुत पसंद आई
बधाई आपको
बहुत सुंदर बधाई
बहुत अच्छा लिखा है मनीष जी चेतना को झंझोड़ दिया आपने...
हमेशा की तरह इस बार भी.... ऐसी ही उम्मीद रहती है आपसे ...
वाह मनीष जी क्षणिकाओं पर आपकी अच्छी पकड़ है
नई उपमा
जब से सुना है
चाँद पर मकां बनने वाले हैं
मुझे उसका चेहरा
आधी खुल खिड़की सा, दिखता है
आप तो सचमुच सयाने हो गए हैं कविवर....
मनीष जी आपने हर बार की तरह इस बार भी हिला कर रख दिया ..
बहुत ही अच्छा लिखा है ....
"मैं उस दौर में पैदा हुआ
जब भूख से तड़प कर
एक ही परिवार के
सात लोग मरे थे,
और तब
देश की अधिकांश जनता
'डायटिगं' करती थी........"
पहली आत्मकथा में 'फ़ीगर मेनटेन करने के लिए' नहीं भी होता तो भी बात पूरी होती। कुछ पाठकों के लिए भी छोड़ देते....
शेष सभी उम्दा है। जिस तरह आप इन क्षणिकाओं में सेलेक्टिव हुए हैं, चूजी हुए हैं, वैसा ही बने रहने की दरक़ार है।
मस्त है..उम्दा....शैलेश जी, वो "फिगर" वाली पंक्ति उस क्षणिका की जान है...ये कवि का कटाक्ष है....कविता उसके पहले ही पूरी हो जाती है...कवि उसके बाद पूरा होता है....
रोटी वाली क्षणिका तो युग्म की अमर पंक्तियाँ हैं, शर्तिया कह सकता हूँ...,.
बधाई...
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