बहुत से जानवर
इलाका बनाते हैं अपना
जिसके भीतर ही
भौंकते-किचकिचाते हैं,
थूकते-चाटते हैं,
और कोने किनारे पाये जाते हैं
टाँग टेढी किये।
मजाल है घुस जाये कोई?
वो मानते हैं कि हम
अपनी गली के शेर
बखिया उधेड सकते हैं
कभी भी-किसी की भी
इलाका अपना है....
एक आदमी, एक रोज
जा रहा था कहीं
काट खाया उसे उसकी ही गली के
किसी सिरफिरे “कुक्कुरश्री” नें
बस तभी से हाल है
खुजलियाँ हो गयीं
काट खाने को फिरता है देखे जिसे
हो मजूरा कि हो टैक्सी ड्राईवर
उसके चश्में में हो आदमी अजनबी।
पंजाब से उसको गेहूँ मिले
धान उसका बिहारी है पर क्या करें?
संतरे से ही गर पेट भरता तो फिर
उसको कश्मीर के सेब क्योंकर मिलें?
उसका सूरज अलग/उसका चंदा अलग
काश होता तो राहत से सोता तो वो
सबका खाता है और ‘मल’ किये जा रहा
और मलमल में मचला के कहता है वो
गाल बजता है और थाल में छेद है
टूट होगी जहाँ से वही सूत्र हूँ
भूमिपुत्र हूँ।
*** राजीव रंजन प्रसाद
27.02.2008
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत से जानवर
इलाका बनाते हैं अपना
जिसके भीतर ही
भौंकते-किचकिचाते हैं,
थूकते-चाटते हैं,
और कोने किनारे पाये जाते हैं
टाँग टेढी किये।
मजाल है घुस जाये कोई?
" अच्छी रचना , अच्छे भाव"
Regards
सबका खाता है और ‘मल’ किये जा रहा
और मलमल में मचला के कहता है वो
गाल बजता है और थाल में छेद है
टूट होगी जहाँ से वही सूत्र हूँ
भूमिपुत्र हूँ।
बहुत खूब !
मर्मभेदी व्यंग्य ! परमात्मा उनको सद्बुद्धि दे जिनको लक्ष्य करके ये कविता लिखी गयी है ! फिलहाल मैं आपको धन्यवाद जरूर दूंगा !
व्यक्तिगत टिपण्णी........
पर है रचना ही मन के उदगार.....
व्यक्ति विशेष पर ख़ास लिखा........
भूमिपुत्र शेर को टेढी टाँग कर दिया.......
राजीव रंजन जी मुझे आपकी कविता पिछली कविताओं के मुकाबले कम प्रभावकारी लगी
आपने जानवरों के जीवन को जिस तरह से दर्शाया है यह तो ठीक है किंतु उतना मज़ा नही आया पदकर
कविता ठीक ठीक है
काट खाया उसे उसकी ही गली के
किसी सिरफिरे “कुक्कुरश्री” नें
बस तभी से हाल है
खुजलियाँ हो गयीं
काट खाने को फिरता है देखे जिसे
एक दम सही कहा ,बहुत अच्छी रचना बधाई
tbराजीव जी
वर्तमान समय में देश की जो दशा है उसपर आपकी कविता बहुत सटीक है।
पंजाब से उसको गेहूँ मिले
धान उसका बिहारी है पर क्या करें?
संतरे से ही गर पेट भरता तो फिर
उसको कश्मीर के सेब क्योंकर मिलें?
उसका सूरज अलग/उसका चंदा अलग
काश होता तो राहत से सोता तो वो
सबका खाता है और ‘मल’ किये जा रहा
अति सुन्दर । ओज पूर्ण रचना के लिए बधाई
Rajeevji as usual The Best :)
पंजाब से उसको गेहूँ मिले
धान उसका बिहारी है पर क्या करें?
संतरे से ही गर पेट भरता तो फिर
उसको कश्मीर के सेब क्योंकर मिलें?
उसका सूरज अलग/उसका चंदा अलग
काश होता तो राहत से सोता तो वो
राजीव जी !
कुत्ते के काटने पर अधिकतम चौदह इन्जेक्सन से इलाज होना सम्भव है, परन्तु आपके कटाक्ष का कोई इलाज भगवान .... बहुत ही तीक्ष्ण कटाक्ष. परन्तु जिन्हें आप लक्ष्य कर रहे हैं कहते हैं उनकी चमड़ी राजनीति में आते ही गैंडे से भी मोटी हो जाती है और आंखों में मगरमच्छी प्रभाव भी आ जाता है .... अस्तु व्यंग्य इतना गहरा है कि बस ... पाठक अपने मनोभावों से तादात्म्य करते ही वाह वाह कहने को विवश है
बहुत से जानवर
इलाका बनाते हैं अपना
जिसके भीतर ही
भौंकते-किचकिचाते हैं,
थूकते-चाटते हैं,
और कोने किनारे पाये जाते हैं
टाँग टेढी किये।
मजाल है घुस जाये कोई?
राजीव रंजन जी बहुत खूब !
अच्छे भाव, मर्मभेदी व्यंग्य ! अति सुन्दर रचना के लिए बधाई
बस तभी से हाल है
खुजलियाँ हो गयीं
काट खाने को फिरता है देखे जिसे
हो मजूरा कि हो टैक्सी ड्राईवर
उसके चश्में में हो आदमी अजनबी।
बड़ा हीं गूढ व्यंग्य है राजीव जी। आपसे ऎसी हीं रचना की उम्मीद रहती है। सजीव जी ने जब इस विषय पर लिखा था, तभी लगा था कि आप भी कुछ न कुछ लेकर आएँगे हीं। बहुत अच्छी लगी "भूमिपुत्र"।
थोड़ी-सी आलोचना भी करूँ?
आप जब दिल के बहुत करीब का कोई विषय उठाते हैं तो कई बार काव्य थोड़ा घट-सा जाता है। इस बार भी अंतिम पैराग्राफ में मुझे बस एक कहानी दिखी, काव्य नगण्य-सा लगा। इसलिए आपसे आग्रह करूँगा कि हमें एक बहुत हीं बेहतरीन रचना से वंचित न किया करें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
प्रिय राजीव जी ,
भूमिपुत्र में जिस सामयिक समस्या को आपने उठाया है, वह आज की ज्वलंत समस्या है । विषय का चयन आपकी विशेषता रही है। कविता का शीर्षक व्यंग्य में सही परंतु उन धंधेबाज् हरामखोरों के लिए सटीक नही है, जो देश की एकता और अखंडता के दुश्मन हैं। कविता की शुरूवात जिस प्रकार हुई है अंत में कसाव की कमी महसूस हो रही है। कविता का क्थ्य स्प्ष्ट है।
राजीव जी आपका प्रशंसक हूँ, इसलिय कहना चाहता हूँ आज कल आप भावों को अपने उपर हावी नही देते, बल्कि ख़ुद भावों पर हावी हो जाते हैं, इससे आपकी कविता में वो पहले सी स्वाभाविकता नही देख पा रहा हूँ, आपने अद्भुत रचनाएँ लिखी है, इसलिए आपसे उम्मीदें भी अधिक रहती है...
गहरा कहूँ या श्रंग कहूँ
पैना कहूँ या व्यंग कहूँ
लड़ने का कोई ढंग कहूँ
या समूची जंग कहूँ
नमन..
समय के अनुरूप लगी आपकी यह रचना भी ...!!
राजीव जी अब आपको क्या कहे,आपने हमेशा ही समसामयिक मुद्दे पर काव्य सृजन किया है,इसबार भी एक करारा प्रहार
आलोक सिंह "साहिल"
राजीव जी! रचना और उसके व्यंग्य की धार की तारीफ़ तो मैं आपसे इसे सुनकर पहले ही कर चुका हूँ. यूँ भी आपकी रचनायें अपनी सटीकता और प्रभाव के चलते किसी तारीफ़ की मोहताज़ नहीं रह जातीं. यहाँ तो मैं तन्हा जी की आलोचना से अपनी सहमति ही दर्शाऊँगा. यद्यपि मुझे लगता है कि ’इस बार भी अंतिम पैराग्राफ में मुझे बस एक कहानी दिखी’ में उनका आशय कविता के दूसरे पद से होगा, अंतिम से नहीं. यदि ऐसा है तो मैं उनसे सहमत हूँ.
आखिरी पद की आखिरी पंक्ति पर आकर इस पूरे पद में प्रयुक्त लयबद्धता का भंग होना भी अखरता है.
shrikant ji aajkal chaudah injection nahin lagte hain...dekhte hain ki kutta pagal to nahin ho gaya hai...us hisaab se lagate hain...
rachna achhi hai....par ajeeb se bhaav paida karti hai...
माफ़ी चाहूंगी राजीव जी
मैंने कविता का विषय नही समंझा
यह तो आपने नए विषय पर लिखी और अच्छी रचना है
भूल हो गई कविता समंझने में
भाव अच्छे है ...
वाह राजीव जी, बेहद सटीक प्रहार। कविधर्म का बखूबी निर्वहन किया है आपने। बधाई।
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