आज का दिन नारी अस्मिता का दिन है । मेरी पहचान का दिन है। मुझे गर्व है कि मैं एक नारी हूँ । समाज की रीढ़ और पुरूष की शक्ति। अपनी इसी पहचान को शब्दों का बाना पहना कर लाई हूँ। विश्व की हर नारी अपने इस स्वरूप को पहचाने यही कामना है .
खूब पहचानती हूँ
मैं…….
तुमको और तुम्हारे
समाज के नियमों को
जिनके नाम पर
हर बार…….
मुझे तार-तार किया जाता है
किन्तु अब…..
मेरी आँख का धुँधलका
दूर हो चुका है
अब सब कुछ
साफ दिखाई दे रहा है
अरे! हर युग में
तुम्हीं तो कमजोर थे
तुमने सदा ही
भयाक्रान्त हो
मेरी ही शरण ली है
और मैं …….
हमेशा से तुम्हारी
भयत्राता रही
जन्म लेते ही तुम
मुझ पर आश्रित थे
पल-पल …
मेरे ही स्नेह से
पुष्पित-पल्लवित तुम
इतने सबल कैसे हो गए?
मैने ही विभिन्न रूपों में
तु्म्हें उबारा है
माँ, भगिनी, प्रेयसी और
बेटी बनकर
तुम्हें संबल दिया है
और आज भी…
हाँ आज भी…
तुम ……..
मेरी ही …
कृपा के पात्र हो
मेरे द्वार के भिखारी
तुम-- हाँ तुम
किन्तु आज मैने
तुम्हारे स्वामित्व के
अहं को तोड़ दिया है
उस कवच में रहकर
तुम कब तक हुंकारोगे?
आज तुम मेरे समक्ष हो
कवच- हीन….
वासनालोलुप…..
मेरे लिए तरसते…
हुँह!
कितने दयनीय …
लगते हो ना..
अब तुम्हारी कोई चाल
मुझपर असर नहीं करती
अपने आत्मबल से मैं
तुम्हें भीतर देख लेती हूँ
बाज़ी आज मेरे हाथ है
सावधान!
षड़यंन्त्र की कोशिश
कभी मत करना
मेरी आँखों में अँगार है
और……
तुम्हारा रोम-रोम
मेरा कर्जदार है
मैं…….
तुमको और तुम्हारे
समाज के नियमों को
जिनके नाम पर
हर बार…….
मुझे तार-तार किया जाता है
किन्तु अब…..
मेरी आँख का धुँधलका
दूर हो चुका है
अब सब कुछ
साफ दिखाई दे रहा है
अरे! हर युग में
तुम्हीं तो कमजोर थे
तुमने सदा ही
भयाक्रान्त हो
मेरी ही शरण ली है
और मैं …….
हमेशा से तुम्हारी
भयत्राता रही
जन्म लेते ही तुम
मुझ पर आश्रित थे
पल-पल …
मेरे ही स्नेह से
पुष्पित-पल्लवित तुम
इतने सबल कैसे हो गए?
मैने ही विभिन्न रूपों में
तु्म्हें उबारा है
माँ, भगिनी, प्रेयसी और
बेटी बनकर
तुम्हें संबल दिया है
और आज भी…
हाँ आज भी…
तुम ……..
मेरी ही …
कृपा के पात्र हो
मेरे द्वार के भिखारी
तुम-- हाँ तुम
किन्तु आज मैने
तुम्हारे स्वामित्व के
अहं को तोड़ दिया है
उस कवच में रहकर
तुम कब तक हुंकारोगे?
आज तुम मेरे समक्ष हो
कवच- हीन….
वासनालोलुप…..
मेरे लिए तरसते…
हुँह!
कितने दयनीय …
लगते हो ना..
अब तुम्हारी कोई चाल
मुझपर असर नहीं करती
अपने आत्मबल से मैं
तुम्हें भीतर देख लेती हूँ
बाज़ी आज मेरे हाथ है
सावधान!
षड़यंन्त्र की कोशिश
कभी मत करना
मेरी आँखों में अँगार है
और……
तुम्हारा रोम-रोम
मेरा कर्जदार है
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
23 कविताप्रेमियों का कहना है :
षड़यंन्त्र की कोशिश
कभी मत करना
मेरी आँखों में अँगार है
और……
तुम्हारा रोम-रोम
मेरा कर्जदार है
वाह शोभाजी आपने खरी खरी कह दी
shobhaji kavita achhi hai..aapke bheetar ka aakrosh nazar aaya mujhe...par purush ko dar dar ka bhikhari kahna kya uchit hoga...ye donon gadi ke do pahiye hain...ishwar ki kritiyan hain donon...nari shoshan ki trasdi ko main samajhti hun...par dar dar ka bhikhari meri samajh mein nahin aaya...
मानवी
ओ मानवी
किंचित लेना
सर्वस देना
तेरी यही रीति
दुनिया है जानती
मरुस्थल की
जान्हवी
वन्दिनी
संगिनी
बनी रहना
मत बनना
पुरुष के हाथ का खिलौना
स्वार्थ भरी मनु की दृष्टि भला
कब देना चाहेगी तुम्हें
दैवीय पद
वह दृष्टि बना देगी
तुम्हें
एक त्रासदी
एक विवशता
जरा सोचो
त्याग ही तो
बन गया
तेरा शोषण
इसलिए नवयुग का आधार बनो
नव युग का संचार करो तुम
बन कामायनी
मनु का मनोविकार हरो तुम
आपके कर्ज़दार हैं, मान लिए हमने तो,..... आज का दिन आपको बहुत मुबारक.....
जन्म लेते ही तुम
मुझ पर आश्रित थे
पल-पल …
मेरे ही स्नेह से
पुष्पित-पल्लवित तुम
इतने सबल कैसे हो गए?
' बहुत सुंदर , भावनाओं की , एक पहचान की अच्छी अभीव्य्क्ती "
Regards
शोभा जी
आज के महिला दिवस पर सर्वप्रथम आप सब महिलाओं को प्रणाम , मेरा सदा ही व्यक्तिगत मत यही रहा है जो आपकी पंक्तियों में झलकता है और...... मेरी अपनी .... सारी श्रष्टि की जन्मदात्री नारी का यही स्वरूप मुझे सबसे अधिक प्रिय है और मैं इसमें सारी दुनिया को सुरक्षित अनुभव करता हूँ .
प्रणाम
कितने दयनीय …
लगते हो ना..
अब तुम्हारी कोई चाल
मुझपर असर नहीं करती
अपने आत्मबल से मैं
तुम्हें भीतर देख लेती हूँ
महिला दिवस पर आपकी समसामयिक रचना पड़ना एक सुखद अनुभूति है. आपका स्नेह चाहिए ताकि आपको पड़कर मी भी कुछ रच सकू.
आज के दिन को सार्थक करती आपकी यह कविता बहुत अच्छी लगी शोभा जी बधाई आज के दिन की भी और इस रचना की भी !!
पुरूष अहं पर प्रहार करती कविता-
खूब पहचानती हूँ
मैं…….
तुमको और तुम्हारे
समाज के नियमों को
एक दफ़े पहचान हो जाए फ़िर क्रांति होने में कितनी देर है? सुन्दर रचना।
मेरी आँखों में अँगार है
और……
तुम्हारा रोम-रोम
मेरा कर्जदार है
बहुत सुंदर नारी दिन अच्छी रचना दोनों के लिए बहुत बधाई
सभी महिलाओं महिला दिवस की शुभकामनायें देते हुए सारी श्रष्टि की जन्मदात्री को नमन करते हुए आपकी रचना के बारे मे सिर्फ़ यही कहुंगा कि आपने
इसमें एक अबला नारी की वेदना और एक क्रंतिकारी नारी के मन के उद्गारों को बहुत अच्छी तरह से अभिव्यक्त किया है इसके लिये आप यकीनन बधाई की हकदार हैं
वाह् ! बड़ी ही सशक्त रचना :
बौने हो गये सब..
"हुँह!"
यह ,एक छोटा-सा शब्द ,हीं पूरी कहानी कहने में सक्षम है।
अंतिम पंक्तियों तक आते-आते आपने, शोभा जी,नारी शक्ति का बोध करा दिया है।
मेरी आँखों में अँगार है
और……
तुम्हारा रोम-रोम
मेरा कर्जदार है
बधाई स्वीकारें।
और हाँ,आपको महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
शोभा जी आपकी सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई
मेरी आँख का धुँधलका
दूर हो चुका है
अब सब कुछ
साफ दिखाई दे रहा है
इन पंक्तियों से झलकता है की आज की नारी सशक्त हो गई है
उसे भी जीना आ गया है अब वह किसी पर निर्भर नही है
जो की सच है
वास्तविकता है
बहुत खूब
शोभा जी !
आपने बिल्कुल सत्य कहा है। आपकी इस कविता ने समाज में फैले सत्य को उभार कर सामने लाया है ।
पुरूष सदा नारी पर निर्भर रहते हैं जबकि वे इस सच्चाई को नकारते हैं कि बिना स्त्री के उनका कोई वज़ूद ही नहीं ।
मैं इस कविता से पूर्णतः सहमत हूँ । आप इसी प्रकार नारी जागृति की हुँकार भरते रहिए ।
श्वेता मिश्र
मेरी आँखों में अँगार है
और……
तुम्हारा रोम-रोम
मेरा कर्जदार है
बहुत सुंदर
जो नारी की महत्वता से इन्कार करे वह तो निश्चय ही अंधा है...
हमने तो हाथ ऊपर खडे कर लिये हैं..
:)
अब…..
मेरी आँख का धुँधलका
दूर हो चुका है
अब सब कुछ
साफ दिखाई दे रहा है
AND
जन्म लेते ही तुम
मुझ पर आश्रित थे
पल-पल …
मेरे ही स्नेह से
पुष्पित-पल्लवित तुम
इतने सबल कैसे हो गए?
Shobhaji, I have been always saying you that you are writing any article from the within of your heart. Aapki soch ke ANGAREN ekdam sahaj se in shabdon mein dikhayi de rahe hai. Ab kya kya shabdon ko copy paste karke bataye, har ek shabd mein naari shakti ki jhalak deekhayi de rahi hai.
Bus ek baat nahi janchi aapki,
और आज भी… हाँ आज भी… तुम ……..
मेरी ही … कृपा के पात्र हो मेरे द्वार के भिखारी
तुम-- हाँ तुम
Shobhaji, Nar aur Naari donon ek rath ke do pahiye hote hai, isi liye yah jo Bhikhari ka vishesan diya hai aapne poorushon ko, thoda sa chubh gaya mann mein. Kyon ki har ek aadmi vaisa bhi nahi hi hota jaisa ki generally samja jata hai........
Once again Congratulations on this beautifullllllllll article.
'''बाज़ी आज मेरे हाथ है
सावधान!
षड़यंन्त्र की कोशिश
कभी मत करना
मेरी आँखों में अँगार है
और……
तुम्हारा रोम-रोम
मेरा कर्जदार है''
**शोभा जी....सही लिखा है आपने....
ये हुआ नहले पर दहला...या फिर आने वाला कोई जलजला....
शोभा जी आप को नहीं लगता कि कविता कुछ ज्यादा आक्रमणक हो रही है, ऐसा लगता है कि नारी हाथ में तलवार लिए दौड़ रही है और निरिह पुरुष उसके गुस्से से बचने की कौशिश में छुपता फ़िर रहा है, ठीक है हमारे साथ ज्यातियां हुई है अब भी हो रही हैं पर पुरुष को नीचा दिखाने से नारी ज्यादा माननीय हो जाती है मुझे नहीं लगता। सशक्त इतनी बन कि कोई दुरव्यवहार करने की सोच भी न सके पर उस शक्ती का प्रयोग किसी के दमन के लिए नहीं अपने उत्थान के लिए हो। हमें तो ऐसा ही लगता है, न पुरुष ही जी पाए स्त्री बिना सदियों से न नारी ही जी पायी पुरुष बिना सारे अन्यायों के बावजूद्।
अपने सभी पाठकों का मैं हृदय से धन्यवाद करती हूँ जिन्होने मेरी भावनाओं को समझा और मेरा उत्साह बढ़ाया।
मेरे कुछ मित्रों को इसमें नारी अभिमान की गन्ध आई । हाँ यह सही है लेकिन बन्धु जरा सोचो परिवार और समाज के लिये सर्वस्व हँसते-हँसते देने वाली नारी यदि कभी रोष में आती है तो ऐसे शब्द अस्वाभाविक कहाँ रहे?
नारी ने तो हमेशा पुरूष का साथ दिया है किन्तु अपने आस-पास अथवा समाचारों में जब नारी को प्रताड़ित देखती-
सुनती हूँ तो मेरी नसें फूलने लगती हैं ।
अनिता जी
टिप्पणी के लिए धन्यवाद। आप सच कह रही हैं । लेकिन सोचिए जिस शक्ति की हम पूजा करते हैं उसने भी अत्याचारी के लिए तलवार नहीं उठाई थी ? और आप इस ग़लत फहमी में मत रहिए कि पुरूष बेचारे डर कर भआग रहे हैं । नर ने नारी को सदा अपने सुख और मनेरंजन का साधन समझा है। हाँ सब पुरूष ऐसे नहीं है अपवाद हो सकते हैं । किन्तु विदित रूप से नारी जो कुछ सहन करती है उसके मुकाबले में यह आक्रोष कुछ भी नहीं ।
यदि किसी पाठक की भावनाओं को ठेस लगी हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ । सस्नेह
मैं शोभाजी से क्षमा चाहता हुए अपनी टिप्पणी हटा रहा हूँ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)