ठूंस दिया गया हूँ जबरन,
रेल के इस डिब्बे में,
इस ताकीद के साथ -
कि लौट जाओ जहाँ से आए थे,
यह शहर तुम्हारा नही,
क्या सचमुच ?
उन सर्द रातों में, जब सो रहे थे तुम,
मैं जाग कर बिछा रहा था सड़क,
और तारकोल का काला धुवाँ,
भर गया था मेरी नाक में,
उस उंची इमारत की,
जोड़ रहा था, जब ईट-ईट मैं,
उग आया था एक सपना,
छोटे से एक घर का, मेरी आँखों में,
जहाँ मेरी मुनिया और उसकी माँ को,
भूखे पेट नही सोना पड़ेगा कभी,
उन दिनों, जब सोता था उस फुटपाथ पर,
सुनता था फर्राटे से दौड़ती, तुम्हारी गाड़ियों का शोर,
आज भी गूंजता है जो मेरे कानों में,
फ़िर जब रहता था उस तंग सी बस्ती में,
जहाँ करीब से होकर गुजरता था वो गन्दा नाला,
तो याद आती थी मुझे, गाँव की वो,
बाढ़ में डूबी फसलें,
और पिता का वो उदास नाकाम चेहरा,
माँ की वो चिंता भरी ऑंखें .
अगले साल ब्याह है छुटकी का,
और बिट्ट्न को भेजना है बड़े स्कूल में,
मेरा हर राज़ जानता है वो.
मेरे सुख दुःख को अपना मानता है वो,
तुम कौन होते हो फैसला सुनाने वाले,
तनिक उससे भी तो पूछो,
कौन अपना है उसका,
मेरा लहू गिरा है पसीना बन कर उसके दामन में,
महक मेरी मिटटी की, बा-खूबी पहचानता है वो .
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
सजीव जी,
सटीक प्रहार है... देश को तोडने वाली ताकतों पर.....यह देश हमारा है... यह शहर हमारे हैं... जो मेरा कहे वह देशद्रोही से अधिक कुछ नहीं... सामायिक सशक्त रचना के लिये बधाई
सजीव जी,
बिल्कुल सही रचना है आपकी। राजनेता हम लोगों की मूर्खता का फायदा उठाते हैं। बेरोजगार लोगों को बरगलाते हैं।
मुझे लगता है कि देश कभी एक था ही नहीं। आप ध्यान से देखेंगे तो लगेगा कि द्रविड़ भारत व उत्तर-पूर्वी भारत खासतौर से भारत के बाकि हिस्से से कटा हुआ सा रहता है। क्या आप टीवी पर उत्तर-पूर्व ीभारत की खबरें सुनते हैं? नहीं।
कानून वहाँ भी तोड़े जाते हैं, हत्यायें वहाँ भी होती हैं, पढ़ाई वहाँ भी चाहिये, गरीबी वहाँ भी है। पर मीडिया को कोई चिन्ता नहीं। ये केवला राजनेता ही नहीं, मीडिया व हम सब जिम्मेवार हैं। मैं अभी चेन्नई गया था, क्या किसी खबरिया चैनल ने रामेश्वरम में १६ गायों की असामयिक मौत के बारे में बताया था? मैंने तो नहीं देखा। ध्यान ही नहीं देते हैं। भारत के ये हिस्से कटे हुए हैं। वो भी हिन्दी प्रदेश के विरूद्ध बोलते हैं। करूणानिधि व ठाकरे जैसे नेता इन्हीं बातों का फायदा उठाते हैं व लोगों के मन में द्वेष भरते हैं। मेरा मानना है कि इस विषय पर चर्चा होनी ही चाहिये वरना विश्व में १० और देश जुड़ते देर नहीं लगेगी।
सजीव जी,
इस विषय पर मैं एक सप्ताह पूर्व लिखने बैठा था लेकिन विषय नें अंतत: इतना उत्तेजित कर दिया कि सटीक शब्द नहीं मिले फिर... अफसोस कि
"यह देश किसके बाप का?
नाग का या साँप का?"
आपने स्पंदित कर दिया। बहुत अच्छी रचना।
***राजीव रंजन प्रसाद
बिलकुल सटीक प्रहार.. राजनैतिक उठा पटक मे होती आज की भारत दुर्दशा पर..
आपके पास बहुत संवेदनशील विषय था सजीव जी और मेरे ख़याल से इस पर और बहुत बेहतर लिखा जा सकता था।
और जहाँ तक ठाकरे की बात है, वे अकेले नहीं हैं। राज ठाकरे एक पूरी पीढ़ी की सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें रोक भी दें तो कुछ नहीं होने वाला।
मैं जन्म से राजस्थान में रहा, लेकिन मैंने वह मानसिकता बहुत करीब से देखी है जो हमेशा मुझे दूसरे प्रांत का समझती रही। आज भी वहाँ मेरे आस पास के दोस्त तक भी मुझे राजस्थानी नहीं मानते होंगे। यू.पी. और बिहार के लोगों को इस पूर्वाग्रह का सबसे अधिक सामना करना पड़ता है। मैंने भी इस देश में रहकर यही जाना है कि हम पहले भी भारतीय नहीं थे, अब भी नहीं हो पाए हैं।
आज के समय को कहती एक भाव पूर्ण सशक्त रचना ..!!बधाई
सजीव जी रोम रोम गनगना उठे बहुत ही,बहुत ही सशक्त अंदाज में आपने प्रहार किया है,पिछली रचना के बरक्स ई गुना जोर्दा कविता,मजा आ गया
आलोक सिंह "साहिल"
विषय सही है. कविता और बेहतर हो सकती थी. सजीव जी आपकी रचनाओं में अपने समय की सही समझ झलकती है.
संतुलित रचना.. चुन-चुन कर शब्दों का प्रयोग किया है आपने..वैसे आप और भी बेहतर लिख सकते थे सजीव जी..
और राजीव जी.. मैं तो इंतज़ार कर रहा था इस विषय पर आपको पढ़ने के लिए .. मैं सोच ही रहा था की हमेशा सामयिक विषयों पर लिखने वेल राजीव जी की नज़रों से यह विषय कैसे बचा रह गया..
आशा है आप मेरी ख्वाहिश पूरी करेंगे..
सजीव जी,
बहुत सही विषय चुना आपने। प्रभावोत्पादक रचना खासकर तब जबकि कविता हमारी जिन्दगी का हिस्सा हो।
बहुत भाव पूर्ण रचना है,ये देश ये शहर भी सब का है |किसी राज निति का मैदान नही है |
बहुत ही बेहतरीन रचना !एक आम इंसान की मानसिकता राजनीतिज्ञों से कितनी भिन्न होती है ये हम सभी जानते हैं एक इंसान जो अप[न घर बार छोड़ कर कितने सपने अपनी आंखों में लिए किसी अनजान शहर को अपना बना लेता है उसकी बेहतरी में अपना हर सम्भव योगदान देता है मगर चाँद लोग उनके मन में दहशत बिठा देते हैं ये बताते हुए की ये शहर तुम्हारा नहीं है !आपने उस इंसान की अन्दर की आवाज़ को बहुत ही बेहतरीन तरीके से हम तक पहुँचाया है !बधाई ........धन्यवाद .....
सजीव काव्यात्मक अभिव्यक्ति. ज्वलंत मुद्दों पर कवितायेँ भी प्रभाव डालती हैं इसका प्रभाव है.
दीपक भारतदीप
सजीव जी
मुम्बई के पास रह कर और अपने प्लांट के मजदूरों की दशा देख कर जिनमें अधिकांश उत्तर भारतीय हैं मैं आप की रचना का मर्म समझ सकता हूँ. बहुत अच्छा लिखा है आपने. बधाई.
नीरज
मेरा लहू गिरा है पसीना बन कर उसके दामन में,
महक मेरी मिटटी की, बा-खूबी पहचानता है वो .
बहुत खूब सजीव जी!
बेहतरीन लिखा है आपने।
एक इंसान अपना घर छोड़कर दूसरी जगह जाता है तो इसके पीछे उसकी कुछ मजबूरियाँ होती हैं। लेकिन वह इंसान उस दूसरी ज़गह को सींचने और सँवारनें में वही जी-जान लगाता है जो उसने अपने घर के लिए लगाया था। फिर वह अपने दोनों घरों में अंतर नहीं कर पाता। अभी की वस्तु-स्थिति भी यही बताती है कि कौन-सा शहर किसका है ,वह कोई नहीं बता सकता। हर शहर को बनाने में उस शहर में रहने वाले हरेक व्यक्ति का खून-पसीना लगा है।इसलिए किसी शहर या प्रांत या देश पर किसी की मिल्कियत नहीं हो सकती।
इसी विषय पर लिखी मेरी एक त्रिवेणी मुझे याद आ गई।
सेहरा था जब तलक कोई पूछता न था,
एक दूब जो दीखी तो मिल्कियत दीख गई।
"महा""राज" की जिद्द है,उन्हें चाँद चाहिए॥
-विश्व दीपक ’तन्हा’
"और पिता का वो उदास नाकाम चेहरा,
माँ की वो चिंता भरी ऑंखें "
आह-वाह....विस्थापन पर लिखी गई एक गंभीर रचना....काश! मैं भी कुछ ऐसा लिख पाता (जबकि महसूस रोज़ करता हूँ...)..
Hello Sajiv
Ek Behtareen rachna
ek Teekha prahar
ya yun kahoon ki desh ko todne wali takaton ko ek aaina dikha diya aapney.
Desh ko Jati ke naam par bantna to ek gambhir vishay raha hi hai, aapki lekhni ne "Raj Thakre" ki is manmani aur atyachar ko ek baar phir se rubaroo kara diya.
manuj mehta
सालों साल शहर में श्रम कर आदमी बड़ी मुश्किल से अपने सपनो को जब संजोया पाता है, उसे अचानक चंद सिरफिरे नेताओं का मुहरा बन , जब शहर से बेदखल होना पड़े तो ये कितना भयावह होता होगा ये उसका परिवार ही समझ सकता है। अच्छा प्रयास किया है आपने उस असहाय इंसान के दर्द को समझने का।
दर्द को बखूबी शब्दों मे ढाला है आपने. बहुत शुक्रिया इस कविता की कडी देने का.
सजीव जी!
ये कविता,कविता नहीं हसिया है।
मै पूरे अंतःकरण से चाहूँगा कि ये हसिया उन तक पहुँचाएं जिन्होने ये नफरत की फसल बोई है,उनसे कहें कि भाई तुम्हारी फसल अब पक गयी है काट लो,कि अब प्यार की फसल बोई जाए........
......
......
देर ना हो जाये कहीं................
सजीव जी,
सामायिक सशक्त रचना के लिये
बधाई
मित्र.......
कोइ भी व्यक्ति जो इस देश की सीमा में रहता है...
वो चाहे किसी भी जाति का,
किसी भी धर्म का,
किसी भी प्रांत का......हो.....केवल भारत-वासी है....
और कहीं भी रहने का अधिकार रखता है.....
संसार के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में....
ऐसी घटना या प्रश्न गुनाह से कम नहीं......शर्मनाक है..
ये अधिकार.... किसने दिया....????????
जात-पात का भेद मिटाकर,
जो तन-मन से सेवा करते..
वही सच्चे देश-भक्त बनकर
जन-मन के हृदय में बसते,
आभार
गीता पंडित
dear sajeev
today i really happy that i am in touch with you, i like your poetry plese keep sending me whatever you wright.
praveen
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