एक आदिम मानव
दफ़न है मेरे भीतर
पर ज़िन्दा है
कई बार मेरे
प्रवृतियों-आदतों-शौकों पर
हावी होने की
कोशिश करता है
कई बार मुझ में भी
वही आदिम सोच-भाव
पैदा होते हैं
एक आदिम रूदन की इच्छा होती
एक आदिम हंसी की चाह जगती
एक आदिम भूख..एक आदिम प्यास....
एक आदिम निद्रा..एक आदिम जागृति..
मैं अपनी तमाम उर्जा लगाकर
दफ़न कर डालता हूँ
उन आदिम हरकतों को..प्यास को
इस डर से कि
कहीं लोग मुझे
सामंत या साम्यवादी
न घोषित कर दे
इस लोकतंत्र में !
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
कई बार मुझ में भी
वही आदिम सोच-भाव
पैदा होते हैं
जब आप पहले ही यह कह चुके हैं कि
एक आदिम मानव
दफ़न है मेरे भीतर,
तो फ़िर मुझ में भी आपके पिछले कथन की जरूर त नहीं रहने देता , स्पष्ट नहीं हो पाता कि पिछली बात किसके लिये थी ।
उर्जा - ऊर्जा
हंसी - हँसी
कथ्य में और स्पष्टता की आवश्यकता है ।
आलोक जी नें आकी रचना पर जो प्रकाश डाला है उसके आगे मैं अल्प विराम और पूर्णविराम जैसी आवश्यकताओं पर आपका ध्यान खींचना चाहूंगा जिसके अभाव में इतना सशक्त कथ्य घुल गया है।
कथ्य दमदार है।
***राजीव रंजन प्रसाद
एक आदिम रूदन की इच्छा होती
एक आदिम हंसी की चाह जगती
एक आदिम भूख..एक आदिम प्यास....
एक आदिम निद्रा..एक आदिम जागृति..
मैं अपनी तमाम उर्जा लगाकर
दफ़न कर डालता हूँ
"अच्छी सोच और अच्छा विषय है"
Regards
अभिषेक जी
बहुत सुंदर लिखा है-
मैं अपनी तमाम उर्जा लगाकर
दफ़न कर डालता हूँ
उन आदिम हरकतों को..प्यास को
इस डर से कि
कहीं लोग मुझे
सामंत या साम्यवादी
न घोषित कर दे
इस लोकतंत्र में !
आज देश मैं यही हालत है.
यह तॊ बताइए कविता आप ने लिखी है आदिम मानव ने।
अभिषेक जी कविता की शुरुआत अच्छी हुई है लेकिन
(...मैं अपनी तमाम उर्जा लगाकर
दफ़न कर डालता हूँ
उन आदिम हरकतों को..प्यास को ) के बाद लगता है कि कविता में अब और उठान आना चाहिये असली पडताल की उम्मीद बनती है. लेकिन अफ़सोस अचानक कविता गिर पडती है. कविता का जल्द अंत करने की हडबडी दिखाई देती है. इस कविता में एक अच्छी कविता होने के बीज मौजूद हैं.
लंबे अंतराल के बाद आपको देखा वो भी इतनी दमदार प्रस्तुति के साथ,अच्छा लगा,बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत सुन्दर कविता।
एक आदिम मानव
दफ़न है मेरे भीतर
पर ज़िन्दा है
अच्छा है इसे जिन्दा रखें।
कविता में जिस चिंता या कहें सोच को शब्दों का जामा पहनाया गया है वह बहुत गहरे अर्थ लिए हुए है.
सरल कविता में गहरी सोच का समावेश अच्छा लगा.
अभिषेक जी,
कविता बेहद हीं प्रभावी है। लेकिन मैं अवनीश जी की बातों से भी सहमत हूँ। कविता पूरे चरम पर पहुँच नहीं सकी है। थोड़ी और मेहनत की जरूरत जान पड़ती है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
एक आदिम रूदन की इच्छा होती
एक आदिम हंसी की चाह जगती
एक आदिम भूख..एक आदिम प्यास....
एक आदिम निद्रा..एक आदिम जागृति..
मैं अपनी तमाम उर्जा लगाकर
दफ़न कर डालता हूँ
अच्छी सोच है...
मैं अवनीश जी से सहमत हूँ। आप एक मुकम्मल कविता कब लिखेंगे?
bahut sundar kavita hai.
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