देखूं जब भी अंतर्मन को झाड़-पोंछ कर ,
शीतलता का सुख चुराता कोई काल्पनिक चित्रकार .
भव्य चित्र मिटता फ़िर घुलते अंधेरों में,
शून्य बच जाता फ़िर उदासी के घेरे में ....
.काली शंकाएँ ,चिंतित चिंताएँ
क्या कहूँ..
हर तरफ़ छा जाता अन्धकार,धुंध छा जाती धुआंधार
फ़ैल जाती उपेक्षा का मरुस्थल आर-पार ........
उजड़ते ह्रदय का घरौंदा देख मन बरबस डरता,
दृष्टियों को फेंकता हुआ आसमान में आंख गडाता,
उतरता सूनी आँखों में ,अन्तरिक्ष का सूनापन
छलछला जाता आंखों की कटोरियों से ह्रुदयांगन ....
क्या कहूँ ....
हर तरफ़ छा जाता अन्धकार,धुंध छा जाती धुआंधार
फ़ैल जाती उपेक्षा का मरुस्थल आर-पार ........
लेकिन फ़िर ....
चढ़ने उठता मन, भावों के पर्वत , जिज्ञासु मन लिए
दुर्गम दुर्ग की दीवार को ,पैरों में दृढ़ता लिए
दृढ़ इच्छा शक्ति लिए ,आषाढ़ का सृजन लिए
अनमोल पल जीने को अनुग्रह लिए .योगोज्ज्वल भक्ति लिए ...
मन करता है ...
न हो अन्धकार, न धुंध की धार
दिव्य अनुभूति से जीवन हो साकार ,गुनगुना उठे मन के सितार....
सुनीता यादव
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह भावों का सुंदर संयोजन, कविता अपने प्रवाह में बहा ले जाती है....और अंत तक पहुँचते एक सकारात्मक सोच दे जाती है .... बढ़िया प्रस्तुति
''आषाढ़ का सृजन लिए
अनमोल पल जीने को अनुग्रह लिए .योगोज्ज्वल भक्ति लिए ...
मन करता है ...''
*बहुत सुंदर लिखा है आपने सुनीता जी.
*सच है जीवन चलते रहने का ही नाम है,
हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिये.
पहले अंधकार...फिर रौशनी की ओर बढते कदम ....
तमाम कठिनाईयों के बावजूद आगे बढने का हौसला देती आपकी कविता अच्छी लगी
निराशा और आशा के मन:स्थिती का सुंदर कथन है |
बधाई
अवनीश तिवारी
अच्छी बात है कि उपेक्षा के उस मरुस्थल के बावज़ूद कविता का अंत सकारात्मक है। जीवन भी ऐसा ही होना चाहिए। :)
सुनीता जी, बहुत अच्छा लिखा है आपने,जीवन चलते रहने का ही नाम है.
आलोक सिंह "साहिल"
लेकिन फ़िर ....
चढ़ने उठता मन, भावों के पर्वत , जिज्ञासु मन लिए
दुर्गम दुर्ग की दीवार को ,पैरों में दृढ़ता लिए
दृढ़ इच्छा शक्ति लिए ,आषाढ़ का सृजन लिए
अनमोल पल जीने को अनुग्रह लिए .योगोज्ज्वल भक्ति लिए ...
मन करता है ...
न हो अन्धकार, न धुंध की धार
दिव्य अनुभूति से जीवन हो साकार ,गुनगुना उठे मन के सितार....
" अती सुंदर कवीता , मुश्किलों मे भी सकारात्मक सोच लिए उम्मीद की किरण के साथ आगे बड़ते रहना ही जिन्दगी है "
Regards
हमेशा की तरह एक प्रवाहपूर्ण, भावयुक्त, आशावादी रचना
चढ़ने उठता मन, भावों के पर्वत , जिज्ञासु मन लिए
दुर्गम दुर्ग की दीवार को ,पैरों में दृढ़ता लिए
दृढ़ इच्छा शक्ति लिए ,आषाढ़ का सृजन लिए
अनमोल पल जीने को अनुग्रह लिए .योगोज्ज्वल भक्ति लिए
वाह! सुनीता जी!
इन पंक्तियों से आपने हृदय को पुलकित कर दिया। बहुत हीं सुघर एवं सुगढ लेखनी है आपकी। बधाई स्वीकारें।
परंतु आपकी इस कविता मे भीं लिंग-संबंधी दोष है। मसलन " फैल जाती उपेक्षा का मरूस्थल" यहाँ "फैल जाता" होना चाहिए था, जहाँ तक मुझे लगता है।
इस खामी के बावजूद भी कविता अच्छी बन पड़ी है।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सुंदर भाव ....
सुनीता जी.
बधाई |
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)