बाज़ार में रहते हैं, हर ओर दुकानें हैं
बदजात परिन्दे हम आकाश के दीवाने हैं
खामोश कहो कैसे इस रुत में रहे कोई
शोर के हाथों में गुमसुम वीराने हैं
उस रात शहर भर में ढूंढ़े भी न मिलते थे
आज जिधर देखो, कितने मयखाने हैं
एक उम्र की रेखा है, काटे भी नहीं कटती
बाकी लकीरों के सब बन्द से खाने हैं
तुम काहे पाल बैठे ये शौक मोहब्बत का
हमको सारे रिश्ते नफ़रत से निभाने हैं
फिर भूल गया कोई, मिलने का समय देकर
अफ़सोस तो ये है कि फिर वही बहाने हैं
वो झील में डूबा चाँद, सर्दी की वे रातें
तुझ बिन जीना क्या, बस दिन ही बिताने हैं
कुछ और जलाओ अब, कुछ और फूंक डालो
उन सपनों के मातम अब हुए पुराने हैं
चुपचाप सहो सब कुछ, कैसी मजबूरी है
है बाँह फड़कती फिर, फिर होठ चबाने हैं
एक बलि माँगती हैं सबकी लम्बी नींदें
अब इंक़लाब गा दो, मेरी मौत सिरहाने है|
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
बाज़ार में रहते हैं, हर ओर दुकानें हैं
बदजात परिन्दे हम आकाश के दीवाने हैं
बहुत खूब गौरव जी
कई शेर अच्छे बन पडे हैं मसलन:-
बाज़ार में रहते हैं, हर ओर दुकानें हैं
बदजात परिन्दे हम आकाश के दीवाने हैं
कुछ और जलाओ अब, कुछ और फूंक डालो
उन सपनों के मातम अब हुए पुराने हैं
एक बलि माँगती हैं सबकी लम्बी नींदें
अब इंक़लाब गा दो, मेरी मौत सिरहाने है|
शेरों के स्तर से कोई शिकायत नहीं, प्रवाह खटकता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत खूब....
अच्छे...असली जँगल वाले शेर ....
कोई गीदड नहीं..
लिखते रहें...
गौरव भाई बढिया कोशिश है. सारे शेर अच्छे कहे हैं. पहले शेर में कुछ चूके है आप. दोनों पक्तियों के बीच में सीधा सम्बन्ध नहीं बन पा रहा है ऐसा मुझे लगता है. और थोडा वज़न(मात्राएँ) पर भी ध्यान देंगे तो अच्छा रहेगा.
सबसे अच्छा शेर जो मुझे लगा..
चुपचाप सहो सब कुछ, कैसी मजबूरी है
है बाँह फड़कती फिर, फिर होठ चबाने हैं
शुभकामनाएँ.
एक उम्र की रेखा है, काटे भी नहीं कटती
बाकी लकीरों के सब बन्द से खाने हैं
तुम काहे पाल बैठे ये शौक मोहब्बत का
हमको सारे रिश्ते नफ़रत से निभाने हैं
फिर भूल गया कोई, मिलने का समय देकर
अफ़सोस तो ये है कि फिर वही बहाने हैं
वो झील में डूबा चाँद, सर्दी की वे रातें
तुझ बिन जीना क्या, बस दिन ही बिताने हैं
bas meri jindagi se milati julati hai ees liye achhi lagi........tuching hai..........
तुम काहे पाल बैठे ये शौक मोहब्बत का
हमको सारे रिश्ते नफ़रत से निभाने हैं
यह शेर अगर इस तरह होता तो कैसा लगता
तुम काहे पाल बैठे ये शौक मोहब्बत का
सारे रिश्ते 'ग़र नफ़रत से निभाने हैं
है बाँह फड़कती फिर, फिर होठ चबाने हैं
एक बलि माँगती हैं सबकी लम्बी नींदें
अब इंक़लाब गा दो, मेरी मौत सिरहाने है|
अच्छी लगी
स्नेह
भाव सुंदर है पर निहित मूल भावना को मैं पकड़ नही पाया.
बढिया रचना है।बधाई।
कुछ और जलाओ अब, कुछ और फूंक डालो
उन सपनों के मातम अब हुए पुराने हैं
गौरव तुम्हारी रचना पसन्द आयी ।
बधाई.....
फिर भूल गया कोई, मिलने का समय देकर
अफ़सोस तो ये है कि फिर वही बहाने हैं
कुछ और जलाओ अब, कुछ और फूंक डालो
उन सपनों के मातम अब हुए पुराने हैं
सुंदर लगे यह आपके लिखे कुछ शेर ...गौरव !!
बाज़ार में रहते हैं, हर ओर दुकानें हैं
बदजात परिन्दे हम आकाश के दीवाने हैं
बहुत खूब जनाब , लिखते रहे
गौरव जी,
सभी शेर पसंद आए -
लेकिन यह शेर बहुत उम्दा लगा---:
''एक उम्र की रेखा है, काटे भी नहीं कटती
बाकी लकीरों के सब बन्द से खाने हैं''
बहुत बड़ी बात कह दी आपने!
अवनीश जी
इस सुझाव से मैं भी सहमत हूँ ''थोडा वज़न(मात्राएँ) पर भी ध्यान देंगे तो अच्छा ''.
लेकिन पहले वाला शेर तो बहुत बढिया है.
इस शेर में तो कवि की उदासियों ने कमाल कर दिया
''एक बलि माँगती हैं सबकी लम्बी नींदें
अब इंक़लाब गा दो, मेरी मौत सिरहाने है''
ग़ज़ल में सभी ख्याल बहुत उम्दा लगे .
अवनीश जी और अल्पना जी,
आप सही कह रहे हैं। बहुत जगह मात्राओं पर ध्यान देने की जरूरत है। बस सीख रहा हूं अभी तो, इसलिए ऐसी ग़लतियाँ होती रहेंगी। :)
अवनीश जी, आपने एक शेर में जो परिवर्तन सुझाया, उस से मेरा अर्थ बदल जाता।
राजीव जी, प्रवाह की शिकायत भी दूर करने की कोशिश करूंगा।
बाकी आप सब का बहुत शुक्रिया इस स्नेह के लिए...
उस रात शहर भर में ढूंढ़े भी न मिलते थे
आज जिधर देखो, कितने मयखाने हैं
I am not able to understand these lines with the context of the poem i got!
please solanki clear this
उस रात शहर भर में ढूंढ़े भी न मिलते थे
आज जिधर देखो, कितने मयखाने ह.....
एक बलि माँगती हैं सबकी लम्बी नींदें
अब इंक़लाब गा दो, मेरी मौत सिरहाने है
....kuchh bhee mango magar neend ko bakhsh do...just joking...excellent...likhte raho
गौरव जी.. मैं तो फिदा हो गया तुवाडी शेरों पर
कुछ शेरों पर तो सांस ही रुक गयी..
देख लो अब..
सही में एक एक शेर पाताल लोक से निकाली हो जैसे...
फिर भूल गया कोई, मिलने का समय देकर
अफ़सोस तो ये है कि फिर वही बहाने हैं
"वाह वाह बहुत खूब , ये शेर मुझे पसन्द आया "
great.
regards
गौरव जी बहुत रचना है,बहुत बहुत बधाई.
शुभकामनाओं समेत
आलोक सिंह "साहिल"
एक बलि माँगती हैं सबकी लम्बी नींदें
अब इंक़लाब गा दो, मेरी मौत सिरहाने है
बहुत बढ़िया । प्रभावशाली रचना।
शिल्पगत कमियों को यदि नज़रअंदाज़ कर दें तो यह बहुत प्रभावी ग़ज़ल कहलायेगी क्योंकि लड़के ने हर शे'र में जान फूँकी है।
डॉ॰ रामजी गिरि जी और बंसल जी,
ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र स्वतंत्र होता है। कोई ज़रूरी नहीं है कि एक शे'र का दूसरे से मतलब हो। इसलिए किसी ग़ज़ल में न शीर्ष शे'र होता है न ही भूल भावना या केन्द्रीय भाव। हाँ, लेकिन हर शे'र अपने आप में पूरी बात कहता हो, यह अनिवार्य आवश्यकता है। ग़ज़ल में शीर्षक रखने की भी परम्परा नहीं है, आप कुछ अनुभवी ग़ज़लकारों को पढ़िए, आप ऐसा ही पायेंगे। यदि शीर्षक मिलेगा तो उसी ग़ज़ल के किसी शे'र के १-२ शब्द होंगे।
कुछ शे'र याद रह जायेंगे-
कुछ और जलाओ अब, कुछ और फूंक डालो
उन सपनों के मातम अब हुए पुराने हैं
एक बलि माँगती हैं सबकी लम्बी नींदें
अब इंक़लाब गा दो, मेरी मौत सिरहाने है|
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)