19 अक्टूबर 2007 (शुक्रवार)
हिंद-युग्म साप्ताहिक समीक्षा : 13
(8 अक्टूबर 2007 से 14 अक्टूबर 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
मित्रो!
आज मैं आप लोगों को हताश करूंगा इसलिए क्षमायाचना के साथ बात आरंभ करता हूँ.
हुआ यों कि रात कई घंटे लगाकर मैंने इस स्तम्भ के लिए अब तक की सबसे विस्तृत समीक्षा बड़े मनोयोग से तैयार की और यह सोचकर ड्राफ्ट के रूप में संजो ली कि आराम से प्रूफ़ रीडिंग / एडिटिंग करके प्रेषित करूंगा. सो अभी कुछ देर पहले ड्राफ्ट का सम्पादन शुरू किया तो 'एरर' की सूचना दिखाई दी ; और सब कुछ गायब हो गया. और फ़िर लौट कर नहीं आया.
मैं उस सब को पुनः शब्द बद्ध करने में असमर्थ हूँ अतः इस बार क्षमा चाहता हूँ.
१२ कविताओं पर १२ पंक्तियाँ मात्र .
१. प्रश्न(राहुल पाठक) पुरुषों की दुनिया में स्त्री की असुरुक्षा का बयान है. रूपक विधान करुणा उपजाने में समर्थ है. अंत हताशा पूर्ण है.
२. कब से(श्री कान्त मिश्र 'कान्त') उदात्त की ओर बढ़ते हुए प्रेम का गीत है - बल्कि प्रेम की खोज का. कवि को तत्सम शब्दावली का मोह है.
३. तुमने अपना चेहरा(राजीव रंजन प्रसाद ) में प्रेम पात्र के आत्म गोपन के रहस्य के उद्घाटन का प्रयास है लेकिन रहस्य अंत में भी खुल नही पाता. तुमने होठों पे जिह्वा फिरा जो लिया - व्याकरण की दृष्टि से गड़बड़ है.
४. कागज़ की नाव(मोहिंदर कुमार) के प्रथम दो अंश साधारण होते हुए भी शैली की दृष्टि से विशिष्ट हैं. अन्तिम चार अंश डिप्रेशन जनित हैं और काव्य बोध नहीं उपजाते . अवसाद में से भी जीवनासक्ति की खोज की जा सकती है.
५. सृजनशील(अनुराधा श्रीवास्तव) का विषय उत्तम और प्रेरणा दायी है लेकिन विचार को कविता में ढालने के लिए आवश्यक सौंदर्य परक उपकरणों का प्रयोग नही किया गया है. विचार को कविता की हत्या का अधिकार नहीं देना चाहिए.
६. दिल की पुकार(रंजना 'रंजू') में पंक्तियाँ छोटी बड़ी हैं. छलकने/रखने के साथ होने/जीने की तुक उत्तम नही मानी जा सकती. दूसरा और छठा अंश भाव की दृष्टि से उत्तम है.
७. मैं बिक गया( गौरव सोलंकी) में व्यंग्य के उपकरणों का सटीक इस्तेमाल हुआ है. कुछ स्फीति है जिससे बचा जा सकता था. निषेध का विधेयात्मक प्रयोग सराहनीय है.
८. हुजूम(सजीव सारथी) में ईसा के सलीब का छुट्टी के बाद हलके हो जाने का प्रयोग आकर्षक है. बचपन की छवियाँ अच्छी उभरी है.
९. हिन्दी को(अजय यादव) में मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के प्रति निष्ठा व्यक्त हुई है. कुंडली का पहला और अन्तिम शब्द एक ही होना चाहिए. मात्र ६ पंक्तियाँ होने से कुंडली नही होती.
१०. ओ बाबा(तुषार जोशी) में नई पीढ़ी द्वारा पुरानी पीढ़ी के स्नेह और संरक्षण की स्वीकृति निहित है. संबंधों की गरमाहट जब तक बनी रहेगी तब तक भारतीय संस्कृति की कौटुम्बिकता भी सुरक्षित रहेगी.
११. मैं मधुशाला( विपुल) में यथार्थ की अमानुषिकता और निष्ठुरता के बयान के साथ साथ कारुणिकता भी उभरकर आई है खीझ तो है ही.
१२. मैं अकर्मण्य(विश्व दीपक 'तन्हा') में निष्क्रिय बुद्धिजीवियों की अच्छी ख़बर ली गई है. व्यंग्य खूब बन पड़ा है.
तो यह तो हुई कविताओं पर अति संक्षिप्त चर्चा. आइये अब तनिक पाठको के विमर्श हेतु अमृता प्रीतम की एक छोटी कविता देखते चलें-
आत्ममिलन
मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज़ की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढे पर रख दे
कोई ख़ास बात नही -
यह अपने-अपने देश का रिवाज़ है.
विजयादशमी की शुभकामनाओं सहित!
आपका अपना - ऋषभदेव शर्मा १९ अक्टूबर २००७.
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
ओह्ह.... यह कम्पू बाबा भी कब बिगड़ जाए कोई भरोसा नही इनका :)...खैर जितनी समीक्षा पढने की मिली वह बहुत सीख दे गई ...
और अमृता जी की यह पंक्तियाँ मुझे बेहद पसंद है ..इन्हे यहाँ देने का बहुत बहुत शुक्रिया ...
अमृता जी की इन पक्तियों के लिए आभार, आज गूगल बाबा कुछ परेशां कर रहे हैं
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढे पर रख दे
आदरणीय ऋषभदेव जी
आपकी विसतृत समीक्षा से हम वंचित रह गये
यह हमारा दुर्भाग्य फिर भी अमृता प्रीतम की
उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से बहुत कुछ
हृदय के गहरे भी उभरता है आपकी समीक्षा की
तो मैं कक्षा में बैठे आतुर विद्यार्थी की तरह प्रतीक्षा
करता हूं
ऋषभ जी
आप बहुत ही सूक्ष्म विवेचना करते हैं । एक भी कमजोरी आपकी पैनी दृष्टि से बच नहीं पाती । अच्छी बात
तो यह है कि प्रशंसा के अधिकारी को भी कभी निराश नहीं करते । आफकी समीक्षा की प्रतीक्षा रहती है कि कौन
से तथ्य हम नहीं देख पाए । इतनी सुन्दर समीक्षा के लिए आप निश्चय ही बधाई के अधिकारी हैं ।
आदरणीय ऋषभदेव जी,
प्यासे के लिये तो एक घूटं भर जल भी काफ़ी है.. सभी को आपकी समीक्षा का इन्तजार रहता है.. पुन: परिश्रम करने के लिये आभार.
आदरणीय ऋषभदेव जी,
हमेशा की तरह "सार सार में सारा संसार है"। व्याकरण की जिस कमी की ओर आपने मेरा ध्यान खींचा है उसे मैं संशोधित कर रहा हूँ।
पुनश्च आभार।
*** राजीव रंजन प्रसाद
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