इस साल
गाँव में बाढ़ आयी है
'काली माई' डूब गयीं
'बरम बाबा' डूब गये
'महबीर जी' आधा डूबे आधा बचे हैं
स्कूल की दालान में
छाती भर पानी लगा है
चाहे किसी भी 'एंगिल' से देखो
गाँव के चारो तरफ़
पानी ही पानी की ज़मीन
असली ज़मीन
गल गयी बाढ़ में
घर में राशन खतम
एक टाईम खाना बनता है
पिछले चार दिनों से,सरकार
'हेलीकप्टर' से खाना फेकती है
छप-छप
सब खाना लूटते हैं
बाबूजी हमें नहीं जाने देते
परसाल चन्दनवा डूब गया था
ऐसी ही मारा मारी में
और सुनो
कल 'सुनरी की बहू' मरी
उसको बच्चा होने वाला था
बाढ़!
न दाई न डाक्टर
शाम को परवाह किया
सबेरे लाश घर के दरवाजे पर लगी थी
गाँव के कुत्ते
सारा दिन नोंच-नोंच खाते रहे
सारी फसल घुल गयी पानी में
घर में
न कुछ आदमी के लिये
न जानवर के किये
अब दीदी की शादी नहीं होगी
बाबा की आँख नहीं बनेगी
इसबार 'दशहरा का मेला' नहीं देखेंगे
मुझे पता है
बाबूजी,पिछली फसल का
बचा खुचा सारा चावल बेंच के
घर का खर्चा चलायेंगे
और हम
साल भर
बाजरे की रोटी
करौना का साग खायेंगे
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
मनीष जी, बहुत ही मार्मिक कविता है। जैसी आपकी तारीफ़ सुनी है, कविता बिल्कुल उसके अनुरुप है। कोई एक दो पक्तियां नहीं पूरी कविता बहुत सशक्त है।॥बधाई और धन्यवाद हमें इतनी सुन्दर रचना सुनाने के लिए
सच में. हर कोई इतनी मार्मिक कविता नहीं लिख सकता. बधाई.
मनीष जी
बहुत दर्द भरी यथार्थ वादी कविता है । आंचलिक शब्दों के प्रयोग ने काव्य सौन्दर्य बढ़ा दिया है ।
प्राकृतिक आपदाओं के लिए बहुत सी योजनाएँ बनाई जाती हैं किन्तु किया कुछ भी नहीं जाता यह
दुर्भाग्य की बात है । इक सशक्त रचना के लिए बधाई ।
सही है मनीष जी, इतनी आसानी से इतनी सारी पीड़ा बयान कर देना बहुत मुश्किल होता है।
मुझे लगा, जैसे मैं भी बाढ़ में डूबने लगा हूँ।
दर्द के लिए बधाई देने का प्रचलन मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए बधाई नहीं दे रहा हूँ।
कविता बहुत अच्छी है।
जब इसको पढ़ना शुरू किया तब लगा की एक ख़त पढ़ रही हूँ
फ़िर धीरे धीरे यह एक दर्द भरा गीत लगने लगा ....बस दिल को छू गया इसका एक एक लफ्ज़ यही कहूँगी .!!
बहुत ख़ूब मनीष जी.. ऐसी कविता आप ही लिख सकते हैं| कविता की शुरुआत होते ही पता चल जाता है की रचनाकार मनीष जी हैं
हमेशा की तरह इस बार भी बड़ा सटीक चित्रण है |
कविता के बारे में ऊपर सब कुछ बोला जा चुका है |सच कविता पढ़ कर ख़ुद को भी बाढ़ से घिरा पाया |
मार्मिक और यथार्थवादी रचना की लिए बधाई..
विपुल जी से मैं भी सहमत हूँ कि कविता की शुरूआत करते हीं भान हो गया था कि कवि मनीष जी हीं हैं। बहुत हीं भावपूर्ण रचनाएँ आपकी झोली में भरी पड़ी हैं। गाँव की सोंधी मिट्टी और दर्द भरा वातावरण आपकी रचनाओ में दिखता है। बाढ का आपने सशक्त वर्णन किया है। मुझे भी अपने डूबने का बोध होने लगा था।
ऎसे हीं हर बार हमें गाँव घुमा दिया करें-
विश्व दीपक 'तन्हा'
मनीष जीं,
ये कविता इतनी देर से क्यों आयी...मतलब जब बाढ़ आयी हुई थी, तब ही कि कविता लगती है....आपने मेरा दिल जीत लिया...भाई, मैं हमेशा अफ़सोस करता हूँ कि ऐसी कवितायें लिख सकता मगर.....
खैर, कविता में जो चित्रण है, पहले भी पढा-सा लगा कही पर....शायद बाबा नागार्जुन कि कविताओं में या "रेणु" के गद्य में.....हाँ, अंत में "साल भर बाजरे की रोटी करौना का साग खायेंगे " आंचलिकता को आपने भरपूर जिया है, इसका पूरा प्रमाण है.....अभी तक साग का स्वाद उतरा नहीं...
निखिल......
मनीष जी,
इस बार मेरी अपेक्षायें नही पूरी हो पाई। आपकी रचनाओं का वो 'thought-provoking element' मै नही ढूँढ पाया।
’nudity' का वो भाव ’nakedness' मे नही आ पाता!
इस बिम्ब की अवधारणा भी बाढ़ के माहौल मे वास्तविक नही लगी।
"सबेरे लाश घर के दरवाजे पर लगी थी
गाँव के कुत्ते
सारा दिन नोंच-नोंच खाते रहे"
आपकी अगली रचना के इन्तजार मे,
सस्नेह,
श्रवण
मनीष जी,
बेहद सशक्त रचना है।
इस साल
गाँव में बाढ़ आयी है
'काली माई' डूब गयीं
'बरम बाबा' डूब गये
'महबीर जी' आधा डूबे आधा बचे हैं
स्कूल की दालान में
छाती भर पानी लगा है
आरंभ से ही कविता अपना प्रभाव छोड़ने में समर्थ है।
आप चूक गये हैं, वो माहौल नहीं बना पाये, जैसा बाढ़ में होता है। लेकिन मैं श्रवण जी से भी इत्तेफ़ाक नहीं रखता क्योंकि बाढ़ों में ऐसा भी होता है, लेकिन हाँ यह भी सच है कि इससे भी विचित्र और दर्दनाक सत्य देखने को मिलते हैं।
वैसे कविता के नैरेटर को बच्चा माने तो उसकी सोच कुछ इसी तरह से होगी लेकिन कविता की एक-दो पृष्ठभूमि इसे भी नकार देती है।
बहुत ही मार्मिक चित्रण है मनीष जी
मनीष जी,
मैं इस बार आपकी इस कविता से थोडा मायूस हुआ। शब्द चयन में भी आप कनफ्यूज्ड प्रतीत होते हैं या कहूँ कि अंग्रेजी शब्दों से आप समा बांधने की बजाये शब्दजाल गूंथते हुए अधिक प्रतीत हो रहे हैं।
गाँव आपका विषय है, आपकी कविता के कण-कण से जो सोंधी मिट्टी की खुशबू मिलती है वह....
*** राजीव रंजन प्रसाद
मनीष जी,
कविता बहुत अच्छी है।
बहुत मार्मिक है।
बधाई |
वाह!
मनीषजी, बाढ़ का बहुत ही खूबसूरती से सटीक चित्रण किया है आपने, ऐसा माहौल बाढ़ के दिनों में देखने को मिलता है -
पिछले चार दिनों से,सरकार
'हेलीकप्टर' से खाना फेकती है
छप-छप
सब खाना लूटते हैं
बाबूजी हमें नहीं जाने देते
परसाल चन्दनवा डूब गया था
ऐसी ही मारा मारी में
सरकारी सहायता की कड़वी सच्चाई है, कईं बार तो वज़नी पैकेट से भी पीड़ित चोटिल हो जाते हैं।
बहुत-बहुत बधाई!!!
मनीष जी बाढ़ का जो मर्मस्पर्शी चित्रण आपने किया है वो मुझे बेहद प्रभावी लगा.
शुभकामनाओं सहित
आलोक सिंह "साहिल"
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