और कितने खुलासे होंगे
मनोरोगी, मीडिया मेरे देश के
इसबगोल की भूसी पेट साफ रखती है….
हाथी के दिखाने वाले दाँत भी सफेद होते हैं
कृपा की/ नीले, पीले ,लाल, हरे सारे देखे
प्यासे को मरीचिका दिखायी तुमने
चमत्कार, हे कलियुग के नारद!!
गेंद को सूरज बनाया
बूंद में सागर देख पाने के पारखी तुम
सोच-शून्यता की नित नयी इबारत लिखते रहे
कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है,
हम कीचड़ उछालते रहेंगे।
आओ देखो नग्न लड़कियाँ
बेडरूम की बंद खिडकियों के भीतर का
सब कुछ लाईव और एक्सक्लूसिव
भांति-भांति के गंडा-पंडा...
भूत-पिसाच निकट सब आवैं
चैनल वाले पकड़हिं लावैं
मटुक नाथ का प्रेम अनूठा
युग-दर्शक, जन-जन हितकारी
किसकी लड़की-किससे लागी
बलात्कार है या सहभागी
नोचो-नोचो कपड़े नोचो
देखो नंगा आंख झुकाये
एक बार फिर सच ले आये..
बंजर धरती
हरा चश्मा पहन कर देख ली
बेचने वाला वक्त बेच दिया
खरीदने वाली खबर खरीद ली
और पाउडर लिपस्टिक लगा कर
पत्रकारिता का बैनर सजा कर
वो सब कुछ परोसा
जिसका सिर इटली में था और पैर जापान में
मैं नहीं देख सकता
अपनी चार साल की बेटी के साथ भी
बुदू बक्से के तथाकथित समाचार
यह तकनीक का उपकार है
कि रिमोट से केवल सरकार ही नहीं चलती
चैनल भी बदलते है
बहुरूपिये!! हमारी ही आस्तीन में न डसो
बुद्धू-बक्से की सनसनी और झुनझुनी पत्रकारिता है?
मरे मर्म का चर्म है
निरा व्यापार-कर्म है
राष्ट्रीय शर्म है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
18.09.2007
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
21 कविताप्रेमियों का कहना है :
Rajiv ji,
Isme to koi sandeh hai hi nahi ki aap bahut hi uchh koti ke kavi hain, lekin sabse achi bat ye hai ke aap aaj ki sachai aur aaj ke jwalant muddo ko bahut achi tarah se utha raha hain aur log sochne par majbur ho jata hai ki hum kahan ja raha hain. kya tarakki isiko kahta hain.
aapki aajki kavita bhi hamesha ki tarah ek karari chot hai is puri media industry par jo trp ki bhukhi hai aur news ke / sting operetions ke bahane na jane kya kya prastut kar rahi hai.
main aapko ajad Bharat ke ek jagruk aur jimmevar nagrik ke rup mein salute karta hoon.
भावना अच्छी है। कविता के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता।
राजीव जी,
आप हमेशा सामयिक कवितायें लिखने की कोशिश करते हैं और ये कविता भी टीवी पत्रकारिता पर बेहद सटीक वार करती है।
आपकी दो पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं।
"मैं नहीं देख सकता
अपनी चार साल की बेटी के साथ भी
बुदू बक्से के तथाकथित समाचार "
और
"मरे मर्म का चर्म है
निरा व्यापार-कर्म है
राष्ट्रीय शर्म है।"
बस ऐसे ही लिखते रहिये और हमारा मार्गदर्शन करते रहिये|
--तपन शर्मा
Rajeevji social issues aap kuch is tarah se uthaate hain ki seede padhne wale ke dimaag me teer lag jaata hai....abhi 2-3 din pehele ki baat hai Nithaari par special report phir se interview liya jaa raha tha recorded tapes...mere bhi dimaag me yahi khayaall aaya tha ki media walon ko kya ho gaya hai....jab news 1 ghante ka aata tha to shayad itna kuch news me bata deta tha jo ki 24 ghante me bhi nahi dikha paate ab.
Ab to News channels gossip channels ban kar rah gaye hain...desh ki khabren to nahi magar jazbaaton ki,aasuon ki,mazbooriyon ki,mohabbaton ki,aabron ki marketing khoob ho jaati hai....ek aam insaan hi iska khamaiza bhugata hai...competition ki muthbed me girte hi jaa rahe hain....inko koi rokta kyun nahi....
राजीव जी, देश के आम और बुद्धिजीवी वर्ग के आक्रोश को आपने शब्द दे दिए है। दर-असल इसे सिर्फ़ आम आदमी का आक्रोश इसलिए नही कह सकता क्योंकि शब्दों का जो खेल इस रचना में है वह आम आदमी का नही है।
इस आक्रोश के लिए बधाई!
राजीव भाई,
छंदहीन कविता में भी आप लगातार प्रगति की ओर अग्रसर हैं. पर मुझे आपसे और प्रगति की उम्मीद है. आपकी इस कविता में कुछ ही अंश ऐसे हैं जिनमें परिपक्वता कौंध जाती है. पर वे बड़े सटीक हैं -
किसकी लड़की-किससे लागी
बलात्कार है या सहभागी
नोचो-नोचो कपड़े नोचो
देखो नंगा आंख झुकाये
एक बार फिर सच ले आये..
sabase achchee pankityaa ye thee -
मरे मर्म का चर्म है
निरा व्यापार-कर्म है
राष्ट्रीय शर्म है।
यहाँ विचार अच्छे हैं, पर कविता कहीं नहीं है -
मैं नहीं देख सकता
अपनी चार साल की बेटी के साथ भी
बुदू बक्से के तथाकथित समाचार
यह तकनीक का उपकार है
कि रिमोट से केवल सरकार ही नहीं चलती
चैनल भी बदलते है
yahan shaayada के ke sthaan para की hoga -
और कितने खुलासे होंगे
मनोरोगी, मीडिया मेरे देश के
इसबगोल की भूसी पेट साफ रखती है….
शेष कविता में कसाव की एवम् स्पष्टता की और आवश्यकता है, ऐसा मुझे लगता है.
आपकी कविताओं का तो मैं कायल हूँ. राम को काल्पनिक घोषित करने की विचित्र पर अत्यंत घृणित राजनीति पर आपसे "पधारो म्हारे देस" जैसी ही उत्तम रचना की अपेक्षा है.
"पधारो म्हारे देस" हिन्दी युग्म पर मेरे द्वारा पढ़ी अबतक की श्रेष्ठ रचना है, ऐसा में निस्संकोच कह सकता हूँ. यही नहीं, समकालीन परिदृश्य में यह शायद इस वर्ष की उत्तमोत्तम कृति है, ऐसा मेरा विचार है. आपको इस कृति को और अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहिये.
सस्नेह
शिशिर्
राजीव जी आपकी इस रचना ने आज के एक बहुत बड़े सच को उजागर किया है
यह पंक्तियां बहुत कुछ कह गई
मरे मर्म का चर्म है
निरा व्यापार-कर्म है
राष्ट्रीय शर्म है।
बधाई आपको
राजीव जी,
आपने सही नाम दिया बुद्धू बक्सा... और उसके गुणों का भी यथार्त चित्रण किया है.. सच में किसी को किसी की फ़िकर नही है सिर्फ़ बाजार समझ कर सब अपना अपना सामान बेच रहे हैं और उसके लिये चारित्रिक सतर पर कितना भी गिरना पडे गिर रहे हैं
राजीव जी
आपने बहुत ही प्रासंगिक विषय उठाया है । आपके दिल का दर्द और आक्रोष इसमें दिखाई दे रहा है किन्तु
कविता कहीं-कहीं प्रवाह खो रही है । आपकी रचना आज की पत्रकारिता पर करारा व्यंग्य है । सचमुच
आज स्वयं को जन प्रतिनिधि कहने वाले राह से विचलित हो गए हैं । आफने बहुत सही कहा । काश कुछ
भाव और आ सकते --
दुख से या शर्म से,रोज़ आंखें दो चार करनी पड़ती हैं इन तथाकथित बड़े और तेज़ चेनलों की बेशर्म रिपोर्ताज से,और घंटों,और लगातार फ़्लेशिंग लाइट्स के साथ।
आपकी क़लम ने खूब सतह पर रखा इस राष्ट्रीय शर्म को ।
देख कर , आंखें अपनी भी ज़मीन पर गढ जातीं हैं।
परिवार मे एक दूसरे से आंख चुराईये, या बेशर्म बन जाइये।
क़लम की धार बनी रहे राजीव जी!
प्रवीण पंडित
राजीव जी , हमेशा की तरह इस बार भी लाज़वाब लिखा है आपकी सामयिक कविताए हमारे वर्तमान का आईना होती हैं इस बार फिर आप अपने लक्ष्य को भेदने में पूर्णतया सफल रहे सुंदर और सोचने को मज़बूर करने वाली रचना के लिए बधाई |
"यह तकनीक का उपकार है
कि रिमोट से केवल सरकार ही नहीं चलती
चैनल भी बदलते है"
राजीव जी,
निरा व्यापार-कर्म है
राष्ट्रीय शर्म है।
आपकी एक-एक पंक्ति से सच जैसे टपक रहा है।
बहुत मन से टी वी ओन करने पर
जब ये सब मिलता है तो मन करता है...
कभी इसे देखा ही ना जाये।
"अगन जलती अन्तर्मन में,
नेह का दीपक ना जलता,
आक्रोश बाँहें पसारे,
विषधर सा पल-पल डंसता |"
मन
प्रश्न करता है बारम्बार.....
क्यूँ...ये सब हो रहा है....क्या इसे रोका नहीं जा सकता...??
आखिर कब तक बर्दाश्त करना होगा
ऐसी मन-मानी को.....कब तक..?????
एक बहुत अच्छे विषय पर लिखने के लियें
बधाई
स-स्नेह
गीता पंडित
राजीव जी,
बहुत ही करारा कटाक्ष किया है आपने दुनियाँ की आखों में धूल झोंकने वालों पर.
सत्यता की राह का हवाला देकर गुमराह करने वाली ऐसी बुद्धू-बक्से की पत्रकारिता वाकई ऐसे शब्द-प्रहार की हकदार है.. शायद कुछ अक्ल आये..
- बधाई
बेडरूम की बंद खिडकियों के भीतर का
सब कुछ लाईव और एक्सक्लूसिव
भांति-भांति के गंडा-पंडा...
भूत-पिसाच निकट सब आवैं
चैनल वाले पकड़हिं लावैं
मटुक नाथ का प्रेम अनूठा
युग-दर्शक, जन-जन हितकारी
किसकी लड़की-किससे लागी
बलात्कार है या सहभागी
यह सब आपके सिवा कोई और नही लिख सकता राजीव जी, बस हर बार की तरह एक शिकायत है -
बहुरूपिये!! हमारी ही आस्तीन में न डसो
बुद्धू-बक्से की सनसनी और झुनझुनी पत्रकारिता है?
मरे मर्म का चर्म है
निरा व्यापार-कर्म है
राष्ट्रीय शर्म है।
यह पक्तियाँ मेरी राय मे अवश्यक नही थी, अगर इससे पहले वाले अंतरे पर लाकर इस कविता को आप खत्म कर देते तो effect शायाद और जबर्दस्त होता आप अक्सर समापन करते करते उपदेश देने से लगते हैं जो अब , चूँकि आप को लगातार पढ़ रहे हैं , पुनाराक्ती सी लगती है
वैसे कविता तो श्रेष्ट है ही .... बहुत बहुत बधाई
राजीव जी,
बधाई!आपने जो लिखा है, बेहद प्रासंगिक है। इसमें समय के नब्ज़ की धड़कन सुनी जा सकती है।
मैं नहीं देख सकता
अपनी चार साल की बेटी के साथ भी
बुदू बक्से के तथाकथित समाचार
यह तकनीक का उपकार है
कि रिमोट से केवल सरकार ही नहीं चलती
चैनल भी बदलते है
बात तो सही है एवं आक्रोश भी ज़ायज़ है किन्तु विचारणीय यह है कि क्या सिर्फ़ वे ही दोषी हैं? क्या इस समाज का कुछ दोष नही जिसकी माँग के बिना कोई ऐसा कर ही नही सकता! अभी-अभी मोहिन्दर जी की नज़्म पढ़ी थी उसका पहला शेर याद आ रहा है।
आज की कविता लिखने की कोशिश है यह। मतलब साहित्य आज को लिखे तो बेहतर होगा। हाँ, यहाँ निराशा की बात है, केवल व्यंग्य है। मोहिन्दर जी की नज़्म में समाधान की माँग मूल में है, लेकिन यहाँ समाधान उद्देश्य में है।
हाँ राजीव जी,
मुझे सजीव जी की बात सही लग रही है। आप अंत जल्दी भी कर सकते थे।
अमृता प्रीतम की एक कविता का उदाहरण (आपवाली ही बात है लगभग)-
किसी मर्द के आगोश में
कोई लड़की चीख उठी
जैसे उसके बदन से कुछ टूट गिरा हो
थाने में एक क़हक़हा बुलन्द हुआ,
क़हवाघर में एक हँसी बिखर गयी
सड़कों पर कुछ हॉकर फिर रहे हैं
एक-एक पैसे में ख़बर बेच रहे हैं
बचा-खुचा जिस्म फिर नोच रहे हैं॰॰॰
लिखते रहिए।
सोच-शून्यता की नित नयी इबारत लिखते रहे
कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है,
हम कीचड़ उछालते रहेंगे।
नोचो-नोचो कपड़े नोचो
देखो नंगा आंख झुकाये
एक बार फिर सच ले आये..
बेचने वाला वक्त बेच दिया
खरीदने वाली खबर खरीद ली
मरे मर्म का चर्म है
निरा व्यापार-कर्म है
राष्ट्रीय शर्म है।
राजीव जी, आपके अंदर का आक्रोश हमारे हृदय तक प्लावित हुआ है। न्यूज चैनलों की भरमार ने नैतिकता को बेच दिया है। आपने सहीं हीं कहा है कि अब व्यक्ति घर शालीनता से परिवार के साथ बैठकर न्यूज चैनल नहीं देख पाता। व्यवसायिकता ने सारी मर्यादाएँ मिटा डाली हैं। बस आशा करता हूँ कि कभी कयामत हो और ये सारी चीजें खत्म हो जाएँ।
एक अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सही बुद्धू बक्सा चालिसा रच डाली. :) अच्छा विष्लेषण है, बधाई.
सामयिक मुद्दो पर लिखने के लिये साधुवाद
KaviJi Pranaam!
Media ko hamaarey desh kaa 4thaa stambh kahaa jaataa hai.Par hamein bhi aisaa he lagtaa hai jaisaa aapney apney vyangaatmak andaaz mein humaaree Media k liye kahaa.Sab TRP ratings kaa khel hai.Business is everything now!Sab jeetnaa chaahtey hain kisee bhi tarah.
Muddaa sharmsaar karney vaalaa hai aur aapkaa prayaas saraahniya.Aap jaisey Kavi chir kaal tak rahey toh desh hit chaahney vaaley logon ko prernaa miltee rahegee.Par aashaa hai ye sab kucch bahut jaldee khatm ho jaaye.
Ma Saraswati aap par apnee kripa banaayen rakhen!
rajiv ji kya kanhooo..aaj keval aapki hi rachna chun-chun kar pad raha hoon......
bahut hi pyari racnha satya aur keval stya....
गेंद को सूरज बनाया
बूंद में सागर देख पाने के पारखी तुम
सोच-शून्यता की नित नयी इबारत लिखते रहे
कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है,
हम कीचड़ उछालते रहेंगे।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)