साप्ताहिक समीक्षा : 03 अगस्त 2007 (शुक्रवार)
(23 जुलाई 2007 से 29 जुलाई 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
'हिंद युग्म' के साथियों ने 'साप्ताहिक समीक्षा' का जिस गर्मजोशी से स्वागत किया है उसके लिए स्तंभकार हृदय से आभारी है। आशा है, यह प्रेम आगे भी बना रहेगा।
इस सप्ताह कुल बारह नई रचनाएँ विचारार्थ सामने हैं। इनमें विषयों का वैविध्य तो है ही, विधाओं का वैविध्य भी है। कुछ कविताएँ लय के कारण तो कुछ बिंब के कारण ध्यान खींचती हैं। गीतों और गजलों में माधुर्य की तलाश दिखाई देती है, और व्यंग्य भी। कविताओं में ओजस्विता और उदात्तता की सृष्टि का प्रयास भी सराहनीय है।
साप्ताहिक समीक्षा के इस अंक में आपके विचारार्थ लूसिएं गोल्डमन (1913-1970) के दो समीक्षा सूत्र प्रस्तुत हैं -
1. साहित्यिक कृति प्रकृत्य: सामाजिक होती है तथा
2. साहित्यिक कृति का विश्लेषण उसकी कंटेंट एनेलिसिस नहीं होती बल्कि 'फार्म ऑफ द कंटेंट' होती है।
इन सूत्रों की व्याख्या करते हुए नामवर सिंह ने बताया है कि समीक्षक को समाज और साहित्यिक कृति दोनों के 'फार्म' के बीच संबंध देखना चाहिए। अस्तु .....
इन सूत्रों को संकेत के लिए रखकर हम अपनी काव्य चर्चा आरंभ करें। ......
पहली रचना 'हो सके तो ......' विरह-गीत है। नियतिवादी निराशा का स्वर प्रमुख है। छंद और लय कई स्थलों पर खंडित हैं। प्रेमपात्र को 'प्रेम में प्रतिदान कैसा' कहकर चुप करना तथा प्रेमी का 'छलनी मेरा भी सीना है' कहकर स्वयं को शहीद घोषित करना - घिसी पिटी भावुकता की बातें हैं। फिर भी शब्द संयोजन अच्छा बन पडा है।
'दूसरी रचना 'कलाम ! सलाम !!' के कुछ अंश प्रभावी बिंब रचने में समर्थ हैं। इस दृष्टि से आरंभिक पांच पंक्तियाँ ध्यान खींचती हैं। कथन में निहित विरोधाभास ने इस बिंब को चमत्कारी बना दिया है। दूसरे अंश (यह जर्जर बूढा .... ही नहीं) में समांतरता के प्रयोग द्वारा विवरण को काव्यात्मक बनाया गया है। तीसरे अंश में 'काजल की कोठरी में उजला कबूतर' सुंदर सादृश्य विधान है और पर्याप्त अर्थगर्भित है। अंतिम तीन अंश जबर्दस्ती खींचे गए लगते हैं। इनके बिना भी कविता पूर्ण लगती।
तीसरी रचना 'मैं क्या-क्या न भूल चुका' में काफी परिमार्जन की गुंजाइश है। पहले शेर की ही दोनों पंक्तियों में संतुलन नहीं है - छंद बदल गया है। विषयवस्तु की दृष्टि से यह रचना शिकायती स्वर की है। अध्ययन और अनुभव दोनों में गहराई आएगी तो कथन में भी गहराई आ सकेगी।
चौथी रचना 'हर लम्हा एक विस्मय' में क्षणबोध और भौतिक कामनाओं के द्वंद्व को अच्छी अभिव्यक्ति मिली है। 'आकार रहित' और 'शक्ल रहित' के स्थान पर 'निराकार' और 'अरूप/रूपहीन' शब्द भी रखे जा सकते हैं। कुछ भी लिखने के बाद यदि रचनाकार उसे स्वयं बार-बार पढकर संपादित करें तो इससे आत्मालोचन और आत्मपरिष्कार होता है, साथ ही रचना में निखार आता है। 'वक्त' और 'रेत' का साम्य अच्छा बन पडा है। कवि - स्वातंत्र्य के नाम पर भाषा संबंधी छोटी-बडी चूकों को नजर अंदाज करने के चलन के बावजूद यह कहना आवश्यक है कि व्याकरण के 'नॉर्म' से 'सहेतुक विचनल' जहाँ सौंदर्य का कारण बनता है, वहीं अकारण विचलन को भाषायी दोष माना जाता है। 'यह' और 'ये' दो अलग शब्द हैं - एकवचन और बहुवचन। 'पंखुंडियाँ' बहुवचन है अत: 'यह कोमल पंखुंडियाँ' नहीं, 'ये कोमल पंखुंडियाँ' लिखना ठीक होगा। इसी प्रकार 'यह सभी' नहीं, 'ये सभी'।
पांचवी रचना 'मैं शर्त लगा सकता हूँ' गजल के शिल्प में है। द्वंद्वों के प्रयोग से कथन में चमत्कार उत्पन्न करने का अच्छा प्रयास है। कुछ स्थलों पर गतिभंग खटकता है। कविता चाहे किसी भी रूप या छंद में हो, लय और गति पर ध्यान अवश्य रखना पडता है क्योंकि प्रवाह टूटते ही प्रभाव भी टूट जाता है।
छठी रचना 'तुम कौन हो मेरे' अच्छा प्रेमगीत है। कुछ अंश तो प्रेमाभक्ति की उज्ज्वलता की ओर उन्मुख प्रतीत होते हैं। भारतीय स्त्री की परंपरागत समर्पणशीलता और दीनता (पाप धुले हैं तेरी देहरी पर आकर) भी इसमें ध्वनित है। लेकिन कुछ प्रयोग चिंताजनक भी हैं। जैसे 'आंचल से मेरे बह निकली है तेरे प्रेम की धारा' वात्सल्य के भाव का सृजन करने वाली पंक्ति है। परंतु पूरी कविता से इस भाव की पुष्टि नहीं होती। प्रेम की धारा आंखों से बहे तो 'आँसू है, हृदय से बहे तो रक्त और आंचल से बहे तो दूध ! इसी प्रकार जो मांग में सजा है, वह टूटी चूडियों को लिए खडा है - मैं भी दुरूह कल्पना है क्योंकि 'टूटी चूडियाँ' सबसे पहले वैधव्य की याद दिलाती हैं। अगली पंक्ति में सातों फेरे भी पड रहे हैं अत: टूटी चूडियों के अपशकुन को बीच में लाने की आवश्यकता समझ के परे है। अंत तक आते-आते तो गीत हताशा के चंगुल में ही फंस गया है।
सातवीं रचना के रूप में 'कुछ क्षणिकाएँ' हैं। इनमें 'टूटता तारा' काफी चमत्कारी है। 'सपने' भी ठीकठाक है। 'भूख और नींद' विषयक दोनों क्षणिकाएँ कवि के सामाजिक सरोकार का पता देती हैं। करुणा और व्यंग्य जहाँ मिलते हैं, वहाँ कविता का प्रभाव बढ जाता है। भगवान को व्यंग्य का विषय बनाना आज के कट्टर वादी और असहिष्णु होते जा रहे समाज में विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन अभिव्यक्ति के लिए कम से कम इतना खतरा तो उठाना ही चाहिए।
आठवीं रचना 'मेरे शहर में बारिश' का आरंभ अच्छे व्यंग्य के साथ हुआ है। 'गलियों में ......' और 'रास्तों में ........... ' शेर आकर्षक है। सामाजिक हैं। अंतिम पंक्ति पर पुनर्विचार अपेक्षित है - अंतिम चरण में दो मात्राएँ बढ रही हैं।
नवीं रचना 'क्षमा और वीरता' वीर रसात्मक कविताओं के लिए अत्यंत उपयुक्त छंद में रचित है। शीर्षक भी उपयुक्त है। कवि का छंद पर अधिकार है। ओज गुण के लिए अपेक्षित तत्सम शब्दावली का चयन अच्छा बन पडा है। अभिव्यक्ति पर 'दिनकर' का प्रभाव झलकता है। प्रश्नोंत्तर शैली का उपयोग भी सार्थक है। 'बडा वीर (तो) वह है' की आवृत्ति से कथन में औदात्य का समावेश हुआ है। 'हे राम' को 'हेs राम' पढना पड रहा है। अंतिम पंक्ति किसी 'नायक' की प्रतीक्षा को व्यंजित करती है - जो वस्तुत: हमारे युग की त्रासदी है। प्रसंगवश यहाँ 'अभिनव कदम-15' में प्रकाशित रामप्रकाश कुशवाह की लंबी कविता 'नायक' का एक अंश उद्धृत करना चाहता हूँ - "जबकि एक सामूहिक मोहभंग के बाद/हम सब जान गए हैं कि अब नायक कभी नहीं आएगा/जबकि हमारे भीतर से ही उठकर सभी को एक साथ बनना होगा अपने हिस्से का नायक/सिर्फ एक मस्तिष्क को निर्णायक सही मानकर/समय में उपस्थित सारे मस्तिष्कों को निरस्त करने और बधिया बनाने वाली/ नायकत्व की बर्बर आदिम, हिंसक और कबीलाई परंपरा का करना होगा अंत ... ।"
दसवीं रचना 'जुदाई की शामे' में उर्दू-नज्म जैसी लय अच्छी बन पडी है। 'लालिमा', 'कालिमा' और 'नीलिमा' के जोड पर 'पीलिमा' शब्द ऊपर से देखने पर ठीकठाक लगता है, लेकिन क्या यह प्रयोग स्वीकृत भी है ! 'बिछोह की विरह' प्रयोग भी खटकता है। 'बिछोह' और 'विरह' समानार्थी हैं न! अन्य तत्सम शब्दों के चयन में भी थोडी और सतर्कता चाहिए।
ग्यारहवीं रचना 'करना पडता है' में 'मरवाना पडता है' ने गडबडी पैदा कर दी है। कवि की सामाजिक चिंता तो ठीक है, लेकिन गजल के शिल्प पर अभी और श्रम चाहिए।
बारहवीं रचना के रूप में 'चाँद और धब्बा' शीर्षक से सात क्षणिकाएँ सामने हैं। पहली क्षणिका में चूडी के टुकडे ने गिरिजा कुमार माथुर की याद दिला दी, लेकिन यहाँ ये टुकडे आत्मधिक्कार का हेतु बने हुए हैं। दीवाली (अमावस्या) को किस चांद को साक्षी मानकर बलि दी जाती है, समझना पडेगा! अंतिम तीन क्षणिकाएँ अवश्य कवि की सृजनात्मक कल्पना का पता देती है।
अंत में एक बार फिर यह दुहराया जा सकता है कि यदि साहित्यिक कृति का स्वभाव है सामाजिक होना तो समीक्षा का स्वभाव होना चाहिए कृति और समाज के रूप के अन्तस्संबंध को देखना। निश्चय ही यहाँ विवेचित कविताएँ समाज के जिस रूप का पता देती हैं वह या तो विसंगतियों से भरा है, या हताश है। कहीं हमारे समय का 'मेंटल स्ट्रक्चर' या 'वर्ल्ड विजन' यही तो नहीं है ! खैर, आज इतना ही ......... ।
इति विदा पुनर्मिलनाय।
दिनांक : 03082007 - डॉ ऋषभदेव शर्मा
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
डॉ ऋषभदेव शर्मा जी,
हिन्द-युगम पर 'साप्ताहिक समीक्षा' हेतु अमुल्य समय देने के लिये आपका आभार. आपका कहना सत्य है कि रचनाऐँ समाज की विसँगतियोँ की और अधिक केन्द्रित हैँ.. स्वाभाविक भी है कि हम जिन परिस्थतियोँ मे रहते हैँ उनका हमारे जीवन पर प्रभाव रहता है.. साथ ही जो आम विषय हैँ उनमेँ व्यक्ति विशेष की कोई रूची नहीँ होती... या तो मनुष्य परिलोक की कल्पना करता है या जीवन के कठोर सत्य का.
आपसे भविष्य में भी इसी प्रकार की रूचीपूर्ण व सार्थक समीक्षा की आशा है
इस अत्यंत विचारवान एवं प्रेरणादायी समीक्षा के लिए आपका धन्यवाद।
आशा है भविष्य में भी आप हिन्द-युग्म के कवियों को मार्ग दिखाते रहेंगे।
हिन्द युग्म को आपके रूप में एक आलोचक और मार्गदर्शक मिला है । सच तो यह है कि आलोचना उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि रचना । इसके लिये मैं और हिन्द आपके आभारी हैं । आगे भी ऐसे ही प्रोत्साहन और सटीक समीक्षा की उम्मीद रहेगी ।
साभार
आलोक
‘साप्ताहिक समीक्षा'निश्चित ही स्वागत योग्य है।
यह पाठ्कों एवं कवियों दोनो के लिए वरदान है।
विसँगति hi dhyaan kheechti hai!! toh us par hi likha bhi jayega!!
जबकि मैं कविताएँ नहीं लिखता, तब मैं आपकी समीक्षा से इतना सीख रहा हूँ तो जिनकी कविताओं की समीक्षा यहाँ प्रकाशित हुई है, वो कितने खुश होंगे। आपकी समीक्षा इतनी तर्कसंगत होती है कि कवियों को उनकी कविताओं की आलोचना सुनने में भी मज़ा आता होगा।
सबसे बड़ी बात यह रहती है आपकी समीक्षा की कि आप सभी कविताओं को बराबर का वक़्त देते हैं। साधुवाद।
डॉ ऋषभदेव जी,समीक्षा के लिए आपका धन्यवाद।
यह लिखने की एक नयी प्रेरणा देती है और कुछ नया सीखने को मिलता है ....
डॉ ऋषभदेव जी!
आपकी सारगर्भित समीक्षा हमें हर बार कुछ नया सीखने और अपने काव्य के स्तर को ऊँचा उठाने में मदद करती है. इसके लिये सारा युग्म परिवार आपका आभारी है.
डॉ ऋषभदेव शर्मा जी, आपके जैसा आलोचक और समीक्षक पाकर हिन्द-युग्म धन्य हो गया है। हमें आपके सुझावों और आलोचनाओं से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। आपसे भविष्य में भी इसी तरह की समीक्षा की आशा रहेगी।
डॉ ऋषभदेव शर्मा जी,
आपकी सारगर्भित समीक्षा का आभार। बहुत सीख रहा हूँ आपसे।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आपकी समीक्षा काफी सीख दे रही है
धन्यवाद
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