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Friday, August 24, 2007

बुनियादी फ़र्क


एक औरत ने सपना देखा-
एक बड़ा सा घर है
खुला-खुला आँगन है
अंदर-बाहर किलकते-फूदकते,
छोटे-छोटे बच्चे
घर की दहलीज़ से हद-ए-निगाह तक
सब्ज़ ज़मीन बीचती है
बगल में छोटी सी नदी बहती है
यूँ कि
पेड़ पहाड़ परिंदों के मकान
हँसने के,ख़ुश रहने के सारे सामान
जी भर के देह
ख़ुश भी ना हो पायी थी
कि अंगड़ाई आ गयी
नींद खुल गयी
औरत उठी,
अलसाई अल साई
मुस्काई
सोचा सपना था..
अच्छा था |

एक आदमी ने सपना देखा-
एक बड़ा सा घर है
खुला खुला सा आँगन है
अंदर बाहर किलकते-फूदकते
छोटे-छोटे बच्चे
दहलीज़ से निगाह तक
सब्ज़ ज़मीन बिछती है
बगल में छोटी सी
नदी रहती है
पेड़ पहाड़ परिंदों के मकान
जीने के
खाने के
सारे सामान
कि तभी
नींद में हुआ खटका
आदमी उठ बैठा
सोचा ..
उस ख़ाली ज़मीन मे
जो कुछ बोता
ख़ूब पैदा होता ..

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14 कविताप्रेमियों का कहना है :

विपुल का कहना है कि -

शानदार रचना | देशज शब्दो को हटा दिया जाए तो भी आपके तरकश में काफ़ी शब्द बाण हैं | खड़ी हिंदी में भी रचना प्रभावशाली है जो सीधे अपने लक्ष्य पर प्रहार करती है|आपकी सोच से सहमत हूं
सफल रचना....

विपिन चौहान "मन" का कहना है कि -

मैं विपुल जी से सहमत हूँ..
कविता अन्दर तक अपना प्रभाव छोडा है..
बहुत बहुत बधाई..मित्र

SahityaShilpi का कहना है कि -

सुंदर रचना के लिये बधाई स्वीकारें, मनीष जी! सरल शब्दों में दिये गये स्वप्न के दॄष्टांत द्वारा बहुत प्रभावी तरीके से औरत और आदमी की सोच के फर्क को व्यक्त किया है, जो सामान्यत: सही भी है.

शोभा का कहना है कि -

मनीष जी
बड़ा प्यारा सपना है । औरत -मर्द की सोच को आपने बखूबी दिखाया है ।
जीवन में सबकुछ नहीं मिलता पर जो मिल जाए उसमें सन्तुष्ट रहने में ही
आनन्द है । एक प्यारी सी कविता के लिए बधाई ।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

मनीष जी,
आपकी कविता की उँचाई मापी नहीं जा सकती। आपके विषय तो मिट्टी और पसीने में गुँथे होते ही हैं उनके निहितार्थ में भी अपनत्व की सोंधी खुशबू है। यही तो कविता है जो इसकी और उसकी सोच को भी हमारी बना दे:-

कि तभी
नींद में हुआ खटका
आदमी उठ बैठा
सोचा ..
उस ख़ाली ज़मीन मे
जो कुछ बोता
ख़ूब पैदा होता ..

श्रेष्ठ रचना।

*** राजीव रंजन प्रसाद

रंजू भाटिया का कहना है कि -

मनीष जी बहुत ही सुंदर है आपकी यह कविता ...बहुत बहुत बधाई.

RAVI KANT का कहना है कि -

मनीष जी,
एक सशक्त रचना के लिए बधाई।

सोचा सपना था..
अच्छा था |

सोचा ..
उस ख़ाली ज़मीन मे
जो कुछ बोता
ख़ूब पैदा होता ..

जीवन को दोनो तरह की आँखें चाहिए-अच्छे स्वप्न पर मुग्ध होनेवाली भी और भविष्यदर्शी भी। अतः दोनों परिपूरक हैं।

Anita kumar का कहना है कि -

bahut khoob Maneesh ji

Anonymous का कहना है कि -

मनीष जी,
औरत और आदमी के फ़र्क को मैं नहीं जानता । मैं समझता हूँ कि आज के दौर में आदमी या औरत कोई भी ऐसा सोच सकता है जैसा कि आपने अंतिम पंक्ति में दर्शाया है.. आप इसके लिये बधाई के पात्र हैं..काश सब ऐसा सोच पायें। आपके ये शब्द बाण ही बदलाव लायेंगे।

तपन शर्मा

Anonymous का कहना है कि -

bahut sahi baat kahi hai aapne
yahi fark hai buniyadi
nice

Unknown का कहना है कि -

औरत और मर्द आज के जमाने में इतने अलग अलग विचार नहीं रखते.
सिर्फ अह्सास का अन्तर है. हां मर्द सपने का सा घर चाहता है और औरत अपने घर को सपनों जैसा बना देती है.

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

स्त्री-पुरूष की सोच का फ़र्क बताने के लिए आपने जो ड्राफ़्ट खींचा है वो प्रसंशनीय है।

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

अच्छी कविता।
आपका प्रस्तुतिकरण भी अद्वितीय रहा है। तुलना बहुत कुशलता से दिखाई है आपने।
इसका कुछ और विस्तार होता तो बहुत अच्छा लगता।

विश्व दीपक का कहना है कि -

बहुत खूबसूरत रचना है मनीष जी । पुरूष और स्त्री के विचारों के भेद को आपने बखूबी दर्शाया है ।
बधाई स्वीकारें।

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