तुम-१
तुम और तुम्हारे प्रश्न
दोनों लाजवाब हैं,
इसीलिए
तुम्हारी दुनिया में
आने से डरता हूँ।
तुम-२
आँसू कचोटते हैं तो
हँसी के बहाने
उन्हें निकाल देता हूँ।
रोता नहीं-
नहीं तो लोग
तुम्हारी बेवफाई का सबब पूछ्ते हैं।
तुम-३
धुन दिया है वक़्त ने हमें
धुनिये-सा।
तुम बीज और मैं रूई
शायद इसीलिए
अलग हो गए हैं।
तुम-४
समंदर हूँ-
तपकर तुझे बादल बनाया है।
भले जाओ अभी तुम
सहरे के पास,
तर करो उसे,
लेकिन कल जब
हम में से कोई एक प्यासा होगा,
तब तो मिलोगे हीं।
दर्द
दो पाव दारू
ज्योंहि हलक में उतरेगी,
सब दर्द भूल जाऊँगा।
तब तुम ही कहो-
इसके लिए दो पाव खून बेचना,
क्या बुरा है?
पेट-१
बेटे को
पेट काट जन्माया,
पेट काट पाला,
बहू का त्रिया-चरित्र पेट में न पचा तो
बेटे ने
गड़ांसे से पेट काट दिया।
पेट की गलती,
पेट को सजा!
पेट-२
माइनस तीस डिग्री पारा-
पानी पत्थर बन रहा है
आइसक्रीम फैक्ट्री में,
और वहीं
कंबल ओढ़े पड़ा,
पिघल रही है जिंदा लाश
पत्थर-दिल पेट के लिए।
पेट-३
हाँ! जिस्मफरोश हूँ बाबू,
ओवरटाइम ड्यूटी है-
आ जाओ,
तल दो यह जिस्म थोड़ा और,
आखिरकार
एकलौता निवाला है यह ,दस पेटों का।
पेट-४
पेट खोलकर धूप में डाल दो,
मर जाएगी भूख
तभी जी पाओगे तुम।
नकलची
तुमने कहा, मेरी कविता नकल है-
तो फिर क्या था नया
वाल्मीकि की बातों में,
तब तो पहली कविता ही नकल थी।
खुदा ने तुम्हें बनाया, मुझे भी-
एक-सी कला , बस कुछ घुमा-फिरा कर,
कोसो उसे भी,
आखिरकार
वो भी नकलची है।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
23 कविताप्रेमियों का कहना है :
दो पाव दारू
ज्योंहि हलक में उतरेगी,
सब दर्द भूल जाऊँगा।
तब तुम हीं कहो-
इसके लिए दो पाव खून बेचना,
क्या बुरा है?
bahut sundar rachna hai badhai!
यदि मैं कहूँ कि हिन्द-युग्म पर इन दिनों क्षणिकाएँ कुछ अधिक ही लिखी जा रही हैं, तो संभवत: कोई अतिशयोक्ति तो नहीं होगी। लेकिन साथ ही यह भी बहुत हर्ष का विषय है कि संख्या जितनी बढ़ रही है, क्षणिकाओं का स्तर उस से कहीं अधिक बढ़ रहा है।
अब आप की क्षणिकाओं को ही लीजिए। ये सब लिखना कोई आसान बात नहीं है, जो आप चुटकियों में लिख देते हैं और पढ़ने वाले के दिल में एक कसक छोड़ देते हैं..बहुत लम्बे समय के लिए।
धुन दिया है वक्त ने हमें
धुनिये-सा।
तुम बीज और मैं रूई
शायद इसीलिए
अलग हो गए हैं।
बेटे को
पेट काट जन्माया,
पेट काट पाला,
बहू का त्रिया-चरित्र पेट में न पचा तो
बेटे ने
गड़ांसे से पेट काट दिया।
पेट की गलती,
पेट को सजा!
पेट खोलकर धूप में डाल दो,
मर जाएगी भूख
तभी जी पाओगे तुम।
वाह भई तन्हा जी, आप कमाल के रचनाकार हैं और आपकी मित्रता पाकर मैं धन्य हूँ।
समंदर हूँ-
तपकर तुझे बादल बनाया है।
भले जाओ अभी तुम
सहरे के पास,
तर करो उसे,
लेकिन कल जब
हम में से कोई एक प्यासा होगा,
तब तो मिलोगे हीं।
इस पे कुछ केहना उचित नेही होगा।
इन दिनों क्षणिकाएँ ही क्षणिकाएँ..पढ़ने को मिल रही है ..:)
बहुत ही सुंदर ओर हर क्षणिका दिल को छू लेने वाली है !!
समंदर हूँ-
तपकर तुझे बादल बनाया है।
भले जाओ अभी तुम
सहरे के पास,
तर करो उसे,
लेकिन कल जब
हम में से कोई एक प्यासा होगा,
तब तो मिलोगे हीं।
मुझे यह बेहद पसंद आई .....
तुम बीज और मैं रूई
शायद इसीलिए
अलग हो गए हैं
लेकिन कल जब
हम में से कोई एक प्यासा होगा,
तब तो मिलोगे हीं।
पेट की गलती,
पेट को सजा!
तब तो पहली कविता ही नकल थी।
आपकी सोच और प्रस्तुति दिन पर दिन निखरते ही जा रहे हैं दीपक भाई ! और जब से आप क्षणिकाओं के पीछे पड़ गये हैं , तब से तो गजब ढा रहे हैं । अतिसुन्दर । ऊपर की पंक्तियाँ असाधारण थीं ।
आलोक
वैसे तो सभी क्ष्णिकाएं प्रभावोत्पादी हैं पर मुझे पेट वाली ज्यादा मार्मिक लगी।
धुन दिया है वक़्त ने हमें
धुनिये-सा।
तुम बीज और मैं रूई
शायद इसीलिए
अलग हो गए हैं।
दो पाव दारू
ज्योंहि हलक में उतरेगी,
सब दर्द भूल जाऊँगा।
तब तुम ही कहो-
इसके लिए दो पाव खून बेचना,
क्या बुरा है?
बेटे को
पेट काट जन्माया,
पेट काट पाला,
बहू का त्रिया-चरित्र पेट में न पचा तो
बेटे ने
गड़ांसे से पेट काट दिया।
पेट की गलती,
पेट को सजा!
क्या अब भी कारण बताने की जरूरत है कि मैं आपको शब्द-शिल्पी क्यों कहता हूँ?
राजीवजी, गौरवजी और आपने मिलकर युग्म को बहुत सारी उत्कृष्ठ क्षणिकाओं से नवाज़ा है। मैं जानता हूँ कि जितने कम शब्द में भाव पिरोये जाते है उन्हें पिरोना उतना ही मुश्किल होता है, मगर आप तीनों की क्षणिकाएँ पढ़कर ऐसा लगता है कि आपके लिये यह बहुत आसान है, यह किसी भी कला में शिख़र पर पहूँचने का संकेत है।
बहुत-बहुत बधाई!
रोता नहीं-
नहीं तो लोग
तुम्हारी बेवफाई का सबब पूछ्ते हैं।
---Yun lagtaa hai har toote dil kaa haal bayaan kar diya in 2 lafzo me hi aapne to!!!!!
तुम बीज और मैं रूई
शायद इसीलिए
अलग हो गए हैं।
--- pyaar me bichhde do sachche dilo se nikali aah...naa tum bewafaa..nahum bewafaa....shaayad ye WAQT hi tha humse khafaa !!!
कल जब
हम में से कोई एक प्यासा होगा,
तब तो मिलोगे हीं।
--- Aas lagaaye baithe hain hum aapse milan ki.....khuda kare ki quyaamat ho aur tu aaye!!!!
बहू का त्रिया-चरित्र पेट में न पचा तो
बेटे ने
गड़ांसे से पेट काट दिया।
-- aaj ke YUVA peedhi ka GANDAA SACH!!!!!!
तल दो यह जिस्म थोड़ा और,
आखिरकार
एकलौता निवाला है यह ,दस पेटों का।
-- samaaj ki gandagi kahi jaane waali ek zamaat ka KADWAA sach....
पेट खोलकर धूप में डाल दो,
मर जाएगी भूख
तभी जी पाओगे तुम।
-- hamaare desh ki gareebi..IS bhookh ne insaan ko kya se kyaa banaaya!!
yaar aapki har pankti kuchh na kuchh sochne par majboor karti hai.....
n dil ko andar tak jhinjhor deti hai!!!!
aaj aapki ye kavitaayen padhkar sach me lagaa...ke ""VD bhaii...aap bahutt UPAR jaaoge!!!"
agar baat kisi pankti ke pasand aane par use yahan likhne ki hai...to aapki poori kavita hi copy paste maar dun yahan..
harr shabd ek naye bhav main lipti poorane apnepan si prateet hoti hai,
har chand apne hi ateet se churaayi koi tasweer prateet hoti hai...
rachna badi hi manbhawan hai...n i loved "nakalchi" d most...
d sattirical thoughts presentd in one of the most commendable way i hav ever read..
तनहा जी
आपकी क्षणिकाएँ अच्छी लगी । एक बात आपकी बहुत
मज़ेदार लगी कि आपने अपने साथ ईश्वर को भी नकलची
बना दिया । नकल करने वाले अक्सर ऐसे ही बहाने बनाते हैं ।
आपने अच्छा पकड़ा है ।
saari kshanikaayen bahut bahut bahut aachi hai magar tanha ji
बहू का त्रिया-चरित्र पेट में न पचा तो
बेटे ने
गड़ांसे से पेट काट दिया।
iska kya arth hai?pet kiska kata bahu ka ya maa ka?....agar maa ka kata hai to yeh baat atpati si lagi...kya bete ke paas apna dimag nahi hai to triya charitra ke bharose ho liya....
dhanyawaad kaijiye triya charitra ko....ki itne kose jaane ke baad bhi purush ka charitra kaisa bhi ho uski lambi umar ki duyaaen karti hai stri...mannaten maangti hain....chahe maa ho yaa beti...yaa bahu.....
Im sorry aap ise women's liberation kahen yaa kuch bhi...magar main auraton ke khilaaf kuch nahi sun sakti ;)
i Hope you undersatnd....as u too are one of my fav. poet here.
Luv
Anu
अनुपमा जी,
तन्हा जी जवाब दें, तब तक मैं अपने विचार व्यक्त करना चाहूंगा।
बेटे को
पेट काट जन्माया,
पेट काट पाला,
बहू का त्रिया-चरित्र पेट में न पचा तो
बेटे ने
गड़ांसे से पेट काट दिया।
पेट की गलती,
पेट को सजा!
आपने क्षणिका पूरी पढ़ी और इस बात पर गुस्सा भी हो गई कि कवि स्त्री को त्रिया बताकर उसकी बुराई कर रहे हैं। लेकिन इसी क्षणिका में आपने यह नहीं देखा कि उन्होंने माँ को कितना महान बताया है।
बेटे को
पेट काट जन्माया,
पेट काट पाला
अब अच्छा बुरा हर जगह होता है। वे आम समाज की तरह एक नारी को महान और एक को बुरा बता रहे हैं। पुरुष और नारी, दोनों ही ऐसे अच्छे बुरे होते हैं। केवल एक त्रिया शब्द के प्रयोग से कवि पर नारी-विरोधी होने का आरोप लगा देना जल्दबाजी है। उल्टे मैं तो उन्हें बधाई देना चाहता हूं कि एक ही क्षणिका में उन्होंने दोनों रूप दिखा दिए।
तन्हा जी कोई एक क्षणिका पसन्द करना मुश्किल ही नही नमुमकिन है।
दीपक जी
बहुत मुश्किल में डाल दिया है आपने
सभी क्षणिकायें अनुपम हैं साथ ही बहुत संवेदनशील हैं
आपकी विशाल सोच ही ऐसे अद्भुत काव्य का उद्गम है
"रोता नहीं-
नहीं तो लोग
तुम्हारी बेवफाई का सबब पूछ्ते हैं।
"धुन दिया है वक़्त ने हमें
धुनिये-सा।
तुम बीज और मैं रूई
शायद इसीलिए
अलग हो गए हैं।
"भले जाओ अभी तुम
सहरे के पास,
तर करो उसे,
लेकिन कल जब
हम में से कोई एक प्यासा होगा,
तब तो मिलोगे हीं।
वाह!!!!!!
" दो पाव खून बेचना,
क्या बुरा है?"
"पेट की गलती,
पेट को सजा!"
कितना प्रभावी अंत किया है आपने, सुन्दर
"पेट-२" सिहरा देती है
"तल दो यह जिस्म थोड़ा और,
आखिरकार
एकलौता निवाला है यह ,दस पेटों का।"
निःशब्द हो गया हूँ
"पेट खोलकर धूप में डाल दो,
मर जाएगी भूख
तभी जी पाओगे तुम।"
"नकलची" काफी अलग है :-)
बहुत सुन्दर रचनायें पढवाई हैं आपने
कविता पर आपकी पकड और समझ के आगे नतमस्तक हूँ मैं
साभार
गौरव शुक्ल
Beshak Gaurav ji,
unhone ek hi kavita me do alag alag roop dikha diye...main na hi tanhaji par koi aarop laga rahi hu na hi unse gussa ho rahi hu...unhone jo shabd use kiya hai wo aapki kahi baat ko justify nahi kar raha hai...ki wo yah kahena chahate hain ki dono hi aache bure ho sakte hain....
unhone naari ko peheli panktiyon me mahaan bataya hai maa ke roop me aaur agli pankti me naari ko triya charitra bataya hai patni ke roop me....agar is ka matlab keval do alag alag insaano ke character ko sambodhit karna....to yah shabd ka galat chayan hai....."triya charitra" does not mean that...agar sirf ek buraai ka roop hi darshana tha to kuch aur shabd bhi liye jaa sakte the...doobara padhne ki zaroorat nahi hai mujhe kyunki main aadhi kshanika padh kar kabhi comments nahi deti...
Agar mere kisi bhi shabd se Tanhaji sahamat nahi hai....to wo apni baat dil kholkar mujhse kar sakte hain....
अनु जी ,
हो सकता है कि शब्द-चयन में मुझसे भूल हुई हो। लेकिन मैं गौरव जी से सहमत हूँ कि हर इंसान में बुराई और अच्छाई दोनों होती हैं। अगर पुरूष कहीं अच्छा है तो कहीं वो भी बुरा है। तो यह बात अगर मैंने स्त्री के बारे में कही तो यह गलत तो नहीं है। मेरी पिछली रचना "विद्यार्थी" पढने के बाद रंजु जी ने भी मुझपर आरोप लगाया था कि मैं नारी-विरोधी विचार रखता हूँ । लेकिन तब भी मैं नारी-विरोधी नहीं था और अब भी नहीं हूँ।
मैं अपनी क्षणिका के माध्यम से एक माँ की पीड़ा दर्शाना चाहता था, जिसने अपने बेटे को बड़ी हीं उम्मीदों से पाला है। हम-आप अपने आसपास ऎसी कई घटनाएँ देखते हैं , जहाँ माँ की उम्मीदों पर तब पानी फिर जाता है , जब बहू की बातों में आकर या फिर बहू की बुरी आदतों की शिकायत करने के कारण , बेटा अपने हीं माँ को तिरस्कृत करता है। हो सकता है कि यह घटना का एक पक्ष हो , लेकिन यह पक्ष भी तो बुरा है। आप चाहे तो क्षणिका का दूसरा रूप भी आपके सामने ला सकता हूँ।
बेटे को
पेट काट जन्माया,
पेट काट पाला,
माँ का मुफ्त में पेट भरना-
बेटे के पेट में न पचा तो
बेटे ने
गड़ांसे से पेट काट दिया।
पेट की गलती,
पेट को सजा!
अब तो नारी-विरोधी ना रहा मैं [:)] इस बार सारी गलतियाँ मैंने पुरूष वर्ग पर हीं डाल दी हैं। लेकिन अब आप कहिये कि पुरूष वर्ग भी तो शिकायत कर सकता है कि गलतियाँ हमेशा पुरूष की हीं नहीं होती हैं।
अब मैं असमंजस में हूँ कि वह शब्द-चयन हीं केवल गलत था या फिर इस पर कुछ लिखना। बस मुझे इतना हीं कहना था। उम्मीद करता हूँ कि मैं अपनी बात रखने में सफल हुआ होऊँ।
आपका-
विश्व दीपक 'तन्हा'
शायद मुझे ये टिप्पनी नेही देनी चाहिये क्योंकी मुझे हिन्दी का ज्यादा कुछ मालुम नेही। पर एक इंसान के रुप में ये केहना चाहेंगे की तन्हा जी के क्षणिका में मुझे कुछ गलत नेही लगा। सास-बहु में तु तु मैं मैं तो होती रेह्ती है। तन्हा जी केवल एक मां की द्रिस्टीकोन से इस बात को एक कविता का रुप दिये हैं। सच्चाई हमेशा मिठी नेही होती। परन्तु अच्छाई और बुराई सब में होती हैं। और ईस सच्चाई को मान लेना ही उचित होगा। मुझे यकीन हैं तन्हा जी का ईरादा किसी को अपमानित करने का नेही था।
( हिन्दी लिखने में कोई गलती हुई हो तो माफ़ि चाहता हूं)
फ़सल पर आपकी जो क्षणिकाएँ थीं वो बहुत पसंद आई थीं। आज विभिन्न शीर्षकों पर आपकी क्षणिकाएँ पढ़कर मज़ा आ गया।
बहुत सीधे तरीके से अपनी वेदना को आयाम दिया है इन पंक्तियों में-
रोता नहीं-
नहीं तो लोग
तुम्हारी बेवफाई का सबब पूछ्ते हैं।
पहली बार यह प्रयोग सुन-पढ़ रहा हूँ। कवि इसी तरह का चमत्कार करता है तो मज़ा आता है-
तुम बीज और मैं रूई
शायद इसीलिए
अलग हो गए हैं।
आपके पेट-१ पर जब अनुपमा जी ने प्रश्नचिह्न लगाया था तो मैं सोच रहा था कि कैसे संतुष्ट करूँ, मगर जब आपका स्पष्टीकरण देखा तो मज़ा आ गया। आपने अपनी आशुक्षणिका को भी इस चर्चा की आवश्यकता बना दी है।
आपकी क्षणिकाओं की उत्कृष्टता का उदाहरण-
पेट खोलकर धूप में डाल दो,
मर जाएगी भूख
तभी जी पाओगे तुम।
अंतिम क्षणिका से आप सिद्ध करते हैं कि आप साधारण कवि नहीं हैं, बहुत पोटेन्शियल है आपमें-
आखिरकार
वो भी नकलची है।
Rahul (राहुल) जी,
आपने यह कैसे सोचा कि टिप्पणी करने के लिए हिन्दी का विद्वान होना आवश्यक है। आप कविता को बहुत बेहतर ढंग से समझते हैं। जहाँ तक टाइपिंग में होने वाली गलतियों की बात है तो वो इसी प्रकार बारम्बार लिखने से दूर हो जायेंगी। हम आपसे विनती करेंगे कि समय निकालकर रोज़ हिन्द-युग्म की कविताओं को पढ़ें और अच्छा-बुरा आपको जैसी लगे कमेंट कीजिए, हमारा प्रयास सफल होगा।
आदरणीय दीपक जी की पिछली पॊस्ट पर मेरी टिप्पणी शायद उन्हे आहत कर गई थी परन्तु वॊ मेरा संयश मात्र था एवं उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं।
जहां तक इस बार की क्षणिकाऒं का प्रश्न है ये बहुत ही सुन्दर हैं। परन्तु अंतिम वाली विशेष रूप से पसंद आई।जैसे कटाक्ष हॊ!
तुमने कहा, मेरी कविता नकल है-
तो फिर क्या था नया
वाल्मीकि की बातों में,
तब तो पहली कविता ही नकल थी।
खुदा ने तुम्हें बनाया, मुझे भी-
एक-सी कला , बस कुछ घुमा-फिरा कर,
कोसो उसे भी,
आखिरकार
वो भी नकलची है।
तनहा जी,
क्षणिका में जिस पैनेपन की आवश्यकता होती है आपकी लेखनी बखूबी जानती है। असाधारण क्षणिकायें हैं आपकी।
"दो पाव दारू
ज्योंहि हलक में उतरेगी,
सब दर्द भूल जाऊँगा।
तब तुम ही कहो-
इसके लिए दो पाव खून बेचना,
क्या बुरा है?"
यह उद्धरण इस लिये कि आपने सिद्ध किया है - ऑब्जरवेशन को, आम जन की पीडा को कम शब्दों में उसके विस्तृत रूप में कैसे प्रस्तुत किया जा सकता है।
प्रत्येक क्षणिका श्रेष्ठ है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
हर क्षनिका अच्छी है और कुछ तो बहुत मार्मिक।
Ek saath itne sare sawal!
Ek premi ke tute dil ke dard se lekar ek maan ke hriday ki byatha tak ko aapne itne saral shabdon men byakt kiya hai... Pet ke itne saare rupon ko observe karna sabke bas ki baat nahin...Isiliye to shayad kaha gaya hai jahan na jaye ravi wahan jaye kavi...
Bahut Bahut badhai sweekar karen VD Bhai..
Apki ye panktiyan mujhe bahut achhi lagi..
आँसू कचोटते हैं तो
हँसी के बहाने
उन्हें निकाल देता हूँ।
रोता नहीं-
नहीं तो लोग
तुम्हारी बेवफाई का सबब पूछ्ते हैं।
दो पाव दारू
ज्योंहि हलक में उतरेगी,
सब दर्द भूल जाऊँगा।
तब तुम ही कहो-
इसके लिए दो पाव खून बेचना,
क्या बुरा है?
VD bhai... aap paripkwata ke us level per pahunch gaye hain jahan se aap upar hi ja sakte hain.. Gujarish hai aapse ki kshanikaon ke atirikt do write with a cause and purpose. Aap apni ek shaily bana sakte hain. Shubhkamnayein...
Shyam
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)