एक अजब सा संयोग हुआ।कुछ दिन पहले एक कविता लिखी तो लिखने के बाद लगा कि इसका पहला अंश तो मैं पहले ही लिख चुका हूं।पुरानी कविताएं देखीं तो एक कविता मिली, जिसमें एक तत्व था, जो इसमें भी है और यही तत्व दोनों कविताओं की मुख्य बात है।दोनों कविताओं में एक डर भीतर तक उतरा हुआ है और इसी डर ने मुझे इन दोनों को यहाँ साथ लिखने के लिए बाध्य किया। पहली कविता करीब दो वर्ष पहले लिखी थी और दूसरी अभी कुछ दिन पहले।
डर-1
एक कशमकश सी है
या एक डर सा,
पानी में कूदने से पहले का सा भय,
मैं डूब गया या तैरना भूल गया,
तो?
या फिर पानी बढ़ता ही चला गया आकाश तक,
ये ना भी हुआ
और आकाश सिमट गया,
तो?
जो डर गया, वो मर गया,
पर अगर ना भी डरा
और फिर भी मर गया
तो कौन बदलेगा कहावतें?
और तब तक अगर
भाषाज्ञान ही मिट गया,
तो?
मरीचिका को सरोवर समझना तो ठीक था,
पर कोई अनाड़ी अगर
जलाशय को मरीचिका समझ निकल गया,
तो?
मंदिरों में बैठा है वो,
मुझे पता है,
पर अगर मैंने पुकारा
और वो ना जग सका,
तो?
डर-2
एक डर सा लग रहा है,
तुमसे बिछुड़ने के बाद भी,
हालांकि मुझे पता है कि
इसके बाद,
इससे बुरा,
कुछ भी नहीं हो सकता,
मगर फिर भी
एक डर सा लग रहा है,
लग रहा है,
जैसे मैं अँधेर के चाँद की तरह
अपने आप में सिमटता जा रहा हूं,
रोशनी देने की गलतफहमी में
अँधेरे में लिपटता जा रहा हूं,
या भटकने लगा हूं,
जैसे पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में,
या
सड़क के इस पार जम गया हूं,
और तुम भी नहीं हो इस बार,
उंगली पकड़कर पार करवाने के लिए,
जैसे
अनजाने में झगड़ बैठा हूं,
किसी नौजवान से,
और उसके साथियों के आने पर
पछता रहा हूं,
या डर के किसी शहर में
एक अंधेरा घर बनवा रहा हूं,
लग रहा है कि तूफान आएगा
और तूफान नहीं आता तो
अपने पूर्वाभासों के गलत होने पर
टूट जाता हूं,
एक सपना देखता हूं कि
तुम्हारी रेल के जाने पर,
मेरा कुछ 'मैं' भी
उसी के भीतर छूट जाता हूं,
कभी देखता हूं कि
मैं नीलाम हो रहा हूं
और तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं
कि बोली लगा सको,
डर लग रहा है,
क्योंकि पुकारना चाहता हूं
और तुम्हारा नाम भूल जाता हूं,
अपना अस्तित्व बनाए रखने को
जाने किस किस बात पर मुस्कुराता हूं,
डर लग रहा है,
क्योंकि मैं बेचने लगा हूं तुम्हें,
गीत बनाकर,
जैसे पत्ता हूं,
और सूखने लगा हूं,
बेरुखी को आदत बनाकर,
लग रहा है
कि मैं शून्य हो गया हूं,
किसी पहचाने से मुहल्ले में
अचानक गुम हो गया हूं,
आहिस्ता बोलता हूं
तो गूँज जाता हूं,
जैसे तपस्या के आखिरी दिन
अपने आराध्य को भूल जाता हूं,
एक डर सा लग रहा है कि
मैं खत्म हो रहा हूं,
एक आग सी लगी है
और भस्म हो रहा हूं,
एक डर सा लग रहा है,
जो घुन की तरह
मेरे साथ पिस रहा है,
कुछ सच है,
जो बहुत डरावना है
और दिन-रात दिख रहा है...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
29 कविताप्रेमियों का कहना है :
"या भटकने लगा हूँ,जैसे पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में॰॰॰"
ऐसा लगा जैसे गुलज़ार साहब को पढ रहे है ।
बहुत ही अच्छा गौरव जी,
ये डर ही है जो सर्वव्याप्त है, और जो हमें हर अच्छेबुरे काम से पहले सोचने पर मज़बूर करता है ।
बहुत बहुत बधाई ।
आर्यमनु
hi gaurav
dono kavitae hi bhout aachi hai .. dil ke dar hai jo us ko kitne sahi sabdo mai baya kiya hai. good and i must tell u ur writing is reaily good.
Nice poetry.you have rightly highlighted the omnipresent emotion of fear as if we are addicted to it n can't do without.
--Dr.R GIRI
दोनों कविताएं सुंदर हैं पर मुझे दूसरी ज्यादा पसंद आयी.
अनजाने में झगड़ बैठा हूं,
किसी नौजवान से,
और उसके साथियों के आने पर
पछता रहा हूं,
सच्चाई से अवगत कराता है आपने बहुत अच्छा लिखा है;
behad khubsurat dar hai,lekin ye to bataye jo is dar ko bhajayega vo diya kidhar hai. dar andhero se laga to hamne deep jala diya, lekin kaya humne socha dar to tha apne andar chhipa hua, usko bhagane ke liye jaruri hai apna antarman jala, phir nahi hoga koi dar deep chahe ho jala ya ho phir vo bujha.
dar vastav me hame bahut kuchh karne se rok deta hai.
मेरे ख्याल से शायद दोनो कवित्त दो अलग-अलग स्तर के कवि द्वारा लिखे प्रतीत हो रहे हैं.... वो व्यक्त ’अजब सा संयोग ’ दुर्योग सा लगा.... ।
पहले मे परिपक्वता की कमी झलक रही है , तो दूसरे मे शब्दो के मायाजाल मे कैद भाव का रूदन आर्तनाद बन गया है....।
वैसे रचना को प्रेषित करने के पहले स्व-सम्पादन की आवश्यकता पर जरूर ध्यान देना चाहिए।
सस्नेह,
श्रवण
Gaurav ji doosri waali kavita me dar ka ahsaas jyada lag raha hai mujhe. achhi hai
gaurav
tumhari dar kavita padhi. bahut sundar likha hai.kahin na kahin har insaan darta hi haiye baat alag hai ki uski abhiyakti nahin karta aur bahadur hone ka dava karta hai.dar anek baar bure kaamo se bhi bachata hai aur kabhiachhe kamo main badha bhi banta hai.itni achhi kavita ke liye badhayi aur bhavishya ke liye shubh kamnayen
आहिस्ता बोलता हूं
तो गूँज जाता हूं,
गौरव जी.. सुन्दर है
जफर का शेर याद आया..
दो ही लम्हे जिन्दगी में मुझपे गुजरे हैं कठिन
इक तेरे आने के पहले..इक तेरे जाने के बाद
कवि डर के प्रथम अंश में कम परिपक्व लगता है और सत्य है कि था भी। वैसे में भावनाएँ नैसर्गिक लगती हैं।
मंदिरों में बैठा है वो,
मुझे पता है,
पर अगर मैंने पुकारा
और वो न जग सका,
तो?
इस तरह का डर मुझे भी लगता था।
उम्र बढ़ने का साथ-साथ जिस तरह आदमी चालाक होता जाता है उसी तरह के चालाक बिम्म इस कविता में दिखाई देने लगते हैं जैसे तंग के लिए कवि पुरानी दिल्ली पहुँच जाता है।
कुछ भी हो आप हमेशा की तरह प्रभावित करते हैं।
तुम्हारी रेल के जाने पर,
मेरा कुछ 'मैं' भी
उसी के भीतर छूट जाता हूं,
कभी देखता हूं कि
मैं नीलाम हो रहा हूं
और तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं
कि बोली लगा सको,
यह डर सच में भयानक है।
बहुत सी पंक्तियाँ तो अद्भुत हैं-
डर लग रहा है,
क्योंकि मैं बेचने लगा हूं तुम्हें,
गीत बनाकर,
जैसे पत्ता हूं,
और सूखने लगा हूं,
बेरुखी को आदत बनाकर,
लग रहा है
कि मैं शून्य हो गया हूं,
मुझे लगता है कि आधुनिक कविताओं में इसी तरह का भाव विन्यास होना चाहिए।
जैसे तपस्या के आखिरी दिन
अपने आराध्य को भूल जाता हूं,
ऐसी लिखने की प्रतिभा, आपमें ही है।
YOU ARE A VERY EXCELLENT POET
APNE FEAR KE BARE MAI KAPHI SOCHA HAI
I ENJOYED UR POETRY BUS OR KUCHA LIKHO TO BATA DENA TAKI PADH SAKU
sach kahu..to bohot dino baad koi kavita pari hai..hindi wali...
really..
aap bohot acha likhte hai..
aapki wo panktiya..
ki " mai chut gaya"....
aur "boli lag rahi hai....and khareende ke liye paise nahi hai."
en panktiyo mai ek azeeb si vivahsta hai..jo maan ko chu jati hai..
really..
aap nishay hi ek bohot ache kavi hai...
all the best for ur future yaar..
keep it up...
are yaar gaurav
kya likh diya hai yaar tumne
bahut he achcha hai ye to
मरीचिका को सरोवर समझना तो ठीक था,
पर कोई अनाड़ी अगर
जलाशय को मरीचिका समझ निकल गया,
तो?
मंदिरों में बैठा है वो,
मुझे पता है,
पर अगर मैंने पुकारा
और वो ना जग सका,
तो?
or
कभी देखता हूं कि
मैं नीलाम हो रहा हूं
और तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं
कि बोली लगा सको,
kafi gahri baat kahi hai yaar
bahut dino me koi dil ko chhu lene vali baat kahi hai yaar
vastav me maja aa gaya
jiyo yaar
शैलेश जी ने सच हीं कहा है कि जिस तरह से आपने अपने डर को अपनी लेखनी दी है, वैसी प्रतिभा सिर्फ आप में ही है।
अपरिपक्वता की बात मुझे नहीं लगती, क्योंकि पहली कविता में भी आपने जिस तरह के बिंब प्रस्तुत किए है, वे भी विरले हीं मिलते हैं। रही बात दूसरी कविता की , तो इसका तो कोई जवाब हीं नहीं।
१.या भटकने लगा हूं,
जैसे पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में,
२.या डर के किसी शहर में
एक अंधेरा घर बनवा रहा हूं,
लग रहा है कि तूफान आएगा
और तूफान नहीं आता तो
अपने पूर्वाभासों के गलत होने पर
टूट जाता हूं,
३.मैं नीलाम हो रहा हूं
और तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं
कि बोली लगा सको,
४.क्योंकि मैं बेचने लगा हूं तुम्हें,
गीत बनाकर,
जैसे पत्ता हूं,
और सूखने लगा हूं,
कुल मिलाकर एक हृदय-स्पर्शी रचना। बधाई स्वीकारें।
गौरव जी
क्षमाप्रार्थी हूँ विलंब से टिप्पणी करने के लिये। कविता बताती है कि कवि एक सुलझा हुआ व्यक्तित्व है। सोच का गहरा धरातल है उसके पास और वह बाल की खाल निकाल सकता है, अपने बहुआयामी, माईक्रोस्कोपिक ऑबजर्वेशंस के कारण। कविता का प्रवाह नयी कविता में आपकी पकड को स्थापित कर रहा है। पहली कविता संपूर्ण मनोविज्यान है। और इसको इस अंत नें पराकाष्ठा दे दी है:
"मंदिरों में बैठा है वो,
मुझे पता है,
पर अगर मैंने पुकारा
और वो ना जग सका,
तो?"
दूसरी कविता भी असाधारण है।विशेष कर यह बिम्ब:
"जैसे मैं अँधेर के चाँद की तरह
अपने आप में सिमटता जा रहा हूं,
रोशनी देने की गलतफहमी में
अँधेरे में लिपटता जा रहा हूं,
या भटकने लगा हूं,
जैसे पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में"
"कभी देखता हूं कि
मैं नीलाम हो रहा हूं
और तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं
कि बोली लगा सको,
डर लग रहा है,
क्योंकि पुकारना चाहता हूं
और तुम्हारा नाम भूल जाता हूं"
"डर लग रहा है,
क्योंकि मैं बेचने लगा हूं तुम्हें,
गीत बनाकर,
जैसे पत्ता हूं,
और सूखने लगा हूं"
गौरव, आपसे मेरी अपेक्षाये बढती ही जा रही हैं। आप देदीप्यमान हों, मेरी शुभकामनायें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
दुसरी कविता मन को भा गयी गौरवजी । बधाई ।
गौरवजी,
दोनों कविताओं में दिख रहा "गेप" इस बात का प्रमाण है कि समय के साथ-साथ भावों को शब्दों में ढ़ालने की प्रक्रिया में बदलाव आता है। आपकी दोनों कविताओं के बीच दो वर्ष का अंतराल है, दिख भी रहा है।
शुरूआत में कवि भाव व्यक्त करता है, उन्हें दिल से काग़ज पर लाने के प्रयत्न में वो शब्दों की प्रतिक्षा नहीं करता, मगर समय के साथ-साथ वह भावों को शब्दों में गुंथने मे सक्षम होने लगता है।
बधाई स्वीकार करें!!!
दोनों कविताएं सुंदर हैं
एक सपना देखता हूं कि
तुम्हारी रेल के जाने पर,
मेरा कुछ 'मैं' भी
उसी के भीतर छूट जाता हूं,
कभी देखता हूं कि
मैं नीलाम हो रहा हूं
और तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं
कि बोली लगा सको,
डर लग रहा है,
आपका लिखा प्रभावित करता है ग़ौरव जी
बहुत प्रभावशाली कविता गौरव जी,डर भी जिन्दगी का एक हिस्सा है बहुत सुन्दर और सही ढ़ंग से आपने डर की व्याख्या की है...दोनो ही रचनाएं सुन्दर है...
शानू
"मंदिरों में बैठा है वो,
मुझे पता है,
पर अगर मैंने पुकारा
और वो ना जग सका,
तो?"
कवि ने बहुत ही सुन्दर ढंग से कविता कॊ पेश किया है। कविता पढने के बाद माहॊल जम गया है आज दिन अच्छा गुजरेगा।
मैं नीलाम हो रहा हूं
और तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं
कि बोली लगा सको,
४.क्योंकि मैं बेचने लगा हूं तुम्हें,
गीत बनाकर,
जैसे पत्ता हूं,
और सूखने लगा हूं,
भाव दिल की गहराई में उतर चुके हैं।
कहीं कवि निराशावादी तॊ नहीं।
I wanted to write in Hindi, sorry for not having the right font, but won't demean the language by writing Hindi in roman fonts :-)
Your poetry will certainly touch the hearts of many. Specially the lines
मंदिरों में बैठा है वो,
मुझे पता है,
पर अगर मैंने पुकारा
और वो न जग सका,
तो?
over-whelmed me with the fear-feeling.
Keep writing and inspiring us!
-Parul
एक कशमकश सी है
या एक डर सा,
पानी में कूदने से पहले का सा भय,
मैं डूब गया या तैरना भूल गया,
तो?............
kavita main vision ka aabhav hai
डर पर प्रतिक्रिया देना,इतना भी आसान नही
मै खुद ना जाँऊ डर,कुछ डर पर कह्ते हुए कही।
पर् कलम तुमहारी खूब चली,खुद डर ही ना जाये डर कही
अस्तित्व अपना खोदे स्वय वह, भस्म ना हो जाये वो कही।
मरीचिका का दिखाकर भाव, डर को दिया नया एक घाव
मरीचिका दिखाकर जलाशय कुदाया, साहस की बनाकर नाव।
कही पाठ पढाया मन्दिरो का, कही सडक पर जमे है पाँव
मन करता कुछ मै भी लीखू, खेलू मै भी ओर एक दाँव।
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