मन व्यथित हो जाता है। तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाने की होड़ एसी है कि "नंगा", "भूखा" जैसे चार शब्द रट कर किसी रंगीन झंडे के नीचे बैठना विचारों की दूकान चलाने का जरिया बन गया है। जिस समस्या का कारण सामाजिक-आर्थिक हो उसे बंदूक बुझा देगी, तो प्रिय नक्सल समर्थी पत्रकार/लेखक/सामाजिक कार्यकर्ता (स्वयंभू) बंधुओं आपकी दृश्टि मे आतंकवाद ही क्रांति होगा?
मेरा आपके प्रति आक्रोश है, आपको शर्म आनी ही चाहिये।
कलम घसीटों तुम्हें नमनहै
जला रहे हैं वो मेरा बस्तर
तो तुमको इस पर बड़ा सुकूं है
बड़े विचारक हो तुम तो भाई
पढ़े कहाँ जो ये तालीम पाई
”शरम” लफ्ज़ है, नाम क्या ये सुना है
तो देखो न दर्पण, तुम्हें क्यों न आयी?
पहन कर के खादी के कुरते विचारक
समझते हो मैं तोप ही लिख रहा हूँ
चने बिक रहे हैं, उसी लेखनी पर
इसी बात का तुमको होगा सुकूं
रद्दी के ही भाव, पर बिक रहा हूँ
जरा सोच पर अपनी पोछा लगाओ
मिट्टी चखो, जड़ को देखो कहाँ है
सूखे से पत्ते सा लेखन तुम्हारा
वहीं बह गया
जहाँ बहती पवन है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है।
अगर नक्सली सोच में तथ्य है तो
गलत क्या कि कश्मीर में गर लपट है
सिक्किम का रोना, धोना असम का
नागा की धरती के झगड़ों में दम है
ताली बजाओ अगर रेल फूकीं
गुड़िया की कुर्सी के नीचे में बम है
लिट्टे पे चिट्ठे लिखो शान से फिर
जाने दो जाते हैं गर जान से फिर
बेटे तुम्हारे भी, अम्मा तुम्हारी
सीना फुला कर के कहना शहादत
मेरी भी दुआ लो, मिले उनको जन्नत
कलम हाँथ में तो खुदा बन गये हो
अरे इतना गहरा कुवाँ बन गये हो
फिर भी न मिलता चुल्लू में पानी
हमारे ही तुम आस्तीनों में पल कर
हमारा ही बुनते रहे तुम कफ़न है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है।
बातें बड़ी तुमको आती बनानी
हकीकत की कातिल तुम्हारी कहानी
सिक्के का पहलू दिखाते हो हमको
मगर खोटे सिक्के कभी चल सके हैं?
बताओ गुफाओं में, जंगल में ही क्यों
ये क्रांति का ठेका लिये फिर रहे हैं
फ़कत इस लिये कि है जंगल में मंगल
जो बाहर ये आये तो सच खुल रहेगा
नकाबों के पीछे लुटेरे छुपे हैं
किसी के भी हक की नहीं है लड़ाई
फटे को छुपाने को की है कढाई
मगर बुद्धिजीवी का लेबल लगाने
सियाही को पानी बना कर
फसाने बनाने के दोषी, अधिक जानवर हैं
उन्हें ये पता है वो क्या कर रहे हैं
लेखन नहीं, सत्य का अपहरण है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है।
लिखो, लेखनी तो है रोटी तुम्हारी
मगर हर निवाले में बोटी हमारी
समर्थन करो, लाल बस्तर बना दो
कब्रों के फिर आँकड़े तुम लिखोगे
यह भी लिखोगे तरक्की नहीं है
बच्चों ने अब तक किताबें न देखी
सूरज नहीं है, उजाले न देखे
कभी पेट भरते निवाले न देखे
मगर इसकी जड़ में वही तो छिपे हैं
बोदी को बंदूक जिसने थमायी
जिसे इंकलाबी बताते हो विद्वन
कफननोच हैं वो, ये उसकी कमाई
लिखने से पहले लेखन की अस्मत
खुद ही न लूटो, मेरी प्रार्थना है
संजीवनी चाहिये तुमको मुर्दों
समझो, कहाँ सोच तेरी दफन है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है...
कलम घसीटों तुम्हें नमनहै
जला रहे हैं वो मेरा बस्तर
तो तुमको इस पर बड़ा सुकूं है
बड़े विचारक हो तुम तो भाई
पढ़े कहाँ जो ये तालीम पाई
”शरम” लफ्ज़ है, नाम क्या ये सुना है
तो देखो न दर्पण, तुम्हें क्यों न आयी?
पहन कर के खादी के कुरते विचारक
समझते हो मैं तोप ही लिख रहा हूँ
चने बिक रहे हैं, उसी लेखनी पर
इसी बात का तुमको होगा सुकूं
रद्दी के ही भाव, पर बिक रहा हूँ
जरा सोच पर अपनी पोछा लगाओ
मिट्टी चखो, जड़ को देखो कहाँ है
सूखे से पत्ते सा लेखन तुम्हारा
वहीं बह गया
जहाँ बहती पवन है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है।
अगर नक्सली सोच में तथ्य है तो
गलत क्या कि कश्मीर में गर लपट है
सिक्किम का रोना, धोना असम का
नागा की धरती के झगड़ों में दम है
ताली बजाओ अगर रेल फूकीं
गुड़िया की कुर्सी के नीचे में बम है
लिट्टे पे चिट्ठे लिखो शान से फिर
जाने दो जाते हैं गर जान से फिर
बेटे तुम्हारे भी, अम्मा तुम्हारी
सीना फुला कर के कहना शहादत
मेरी भी दुआ लो, मिले उनको जन्नत
कलम हाँथ में तो खुदा बन गये हो
अरे इतना गहरा कुवाँ बन गये हो
फिर भी न मिलता चुल्लू में पानी
हमारे ही तुम आस्तीनों में पल कर
हमारा ही बुनते रहे तुम कफ़न है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है।
बातें बड़ी तुमको आती बनानी
हकीकत की कातिल तुम्हारी कहानी
सिक्के का पहलू दिखाते हो हमको
मगर खोटे सिक्के कभी चल सके हैं?
बताओ गुफाओं में, जंगल में ही क्यों
ये क्रांति का ठेका लिये फिर रहे हैं
फ़कत इस लिये कि है जंगल में मंगल
जो बाहर ये आये तो सच खुल रहेगा
नकाबों के पीछे लुटेरे छुपे हैं
किसी के भी हक की नहीं है लड़ाई
फटे को छुपाने को की है कढाई
मगर बुद्धिजीवी का लेबल लगाने
सियाही को पानी बना कर
फसाने बनाने के दोषी, अधिक जानवर हैं
उन्हें ये पता है वो क्या कर रहे हैं
लेखन नहीं, सत्य का अपहरण है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है।
लिखो, लेखनी तो है रोटी तुम्हारी
मगर हर निवाले में बोटी हमारी
समर्थन करो, लाल बस्तर बना दो
कब्रों के फिर आँकड़े तुम लिखोगे
यह भी लिखोगे तरक्की नहीं है
बच्चों ने अब तक किताबें न देखी
सूरज नहीं है, उजाले न देखे
कभी पेट भरते निवाले न देखे
मगर इसकी जड़ में वही तो छिपे हैं
बोदी को बंदूक जिसने थमायी
जिसे इंकलाबी बताते हो विद्वन
कफननोच हैं वो, ये उसकी कमाई
लिखने से पहले लेखन की अस्मत
खुद ही न लूटो, मेरी प्रार्थना है
संजीवनी चाहिये तुमको मुर्दों
समझो, कहाँ सोच तेरी दफन है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है...
आप इस कविता को मेरी आवाज़ में यहाँ सुन भी सकते हैं। कृपया ज़रूर सुनें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
16.06.2007
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
37 कविताप्रेमियों का कहना है :
राजीव जी,
सत्य के तथ्य पर क्रांतिकारी विचारों से ओतप्रोत आपकी कविता सचमुच में मंत्रमुग्ध, विस्मित और सोये हुओं को जाग्रत करने में समर्थ है
नमन
Maine devnagreeme tippani deneki koshish ki lekin spahalta nahi mili ! Hind-Yugma pahdaneme bada aanand aaya
Shama
सही मुद्दे पर सही अभिव्यक्ति सही तेवर के साथ.
पोडकास्ट के लिये धन्यवाद.
क्रांतिकारी कविता!
राजीवजी,
मैं जानता हूँ कि इस जन्म एक भावुक कवि मन से हुआ है, मगर यह क्रांतिकारी रचना है, बस्तर के हालात आप बेहतर समझते है मगर ऐसे हालात हर जगह है...
पत्रकारिता आजकल वैसे भी लगभग बिक चुकी है, शायद वह दौर बीत गया जब इससे जुड़े लोगों का मकसद मात्र धन अर्जित करने के बजाय मानव-मात्र की सेवा था, आपकी कलम से निकली पंक्तियाँ क्रांतिकारी है, उम्मीद है हालात बदलेंगे।
राजीव जी आपकी लेखनी में आज आक्रोश झलक रहा है बिल्कुल एक भावुक कवि मन से की गई क्रांतिकारी रचना...हर जगह की यही कहानी है...
अगर नक्सली सोच में तथ्य है तो
गलत क्या कि कश्मीर में गर लपट है
सिक्किम का रोना, धोना असम का
नागा की धरती के झगड़ों में दम है
ताली बजाओ अगर रेल फूकीं
गुड़िया की कुर्सी के नीचे में बम है
लिट्टे पे चिट्ठे लिखो शान से फिर
जाने दो जाते हैं गर जान से फिर
बेटे तुम्हारे भी, अम्मा तुम्हारी
सीना फुला कर के कहना शहादत
मेरी भी दुआ लो, मिले उनको जन्नत
कलम हाँथ में तो खुदा बन गये हो
अरे इतना गहरा कुवाँ बन गये हो
फिर भी न मिलता चुल्लू में पानी
हमारे ही तुम आस्तीनों में पल कर
हमारा ही बुनते रहे तुम कफ़न है
बहुत गज़ब की पक्तिंया है राजीव जी...आपकी बस्तर की उस माटी को नमन है जहाँ एसे सच्चे मातृ-भक्त पैदा हुए है...
सुनीता(शानू)
आपको नमन है.
सही लिखा है, बहुत खुब.
भाव और विचार की अत्यंत प्रवाहपूर्ण प्रस्तुति....रचना बाँधे रखती है...और सोचने पर मजबूर करती है....जोश और होश में लिखी गई एक प्रभावित करने वाली रचना!!
बधाई!!
आपकी लेखनी कॊ नमन। कविता के सृजन के बारे में कुछ कहना सूर्य कॊ दीया दिखाने के समान है।
चितां भी एक हद तक सही है परन्तु व्यापक स्तर पे मैं आपके विचारॊं से सहमत नहीं हूँ। शायद आप कहें कि पत्रकारिता से जुडा हुआ हूं अतः एसा कह रहा हूं परन्तु मेंरा मानना हे कि जिस दिन इस देश में पत्रकार अपना कर्तव्य भूल जाएगें वह दिन त्रासदीपूर्ण हॊगा एवं मैं आपसे वादा करता हूं कि वॊ दिन नहीं आने दिया जाएगा।
बौद्धिक आतंकवादियों की जमकर खबर ली है आपने। आपकी लेखनी कॊ नमन। आज पत्रकारों से ऐसे ही सत्य और साहसपूर्ण रचनाओं की जरुरत है।
राजीव जी , आप सच्चे अर्थ में एक कवि हैं। कवि की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने आसपास घट रही त्रासदियों के खिलाफ जनमानस में जोश जगाए।आपने इस कविता के माध्यम से उन सभी कलम घसीटों की अच्छी खबर ली है। सच कहा है आपने कि उन सब को कोई हक नहीं कि वह जलती आग में घी डालें। यह पूरी रचना क्रांतिकारी विचारों से ओतप्रोत है। कुछ पंक्तियाँ मैं उद्धृत करना चाहूँगा।
अगर नक्सली सोच में तथ्य है तो
गलत क्या कि कश्मीर में गर लपट है
सिक्किम का रोना, धोना असम का
नागा की धरती के झगड़ों में दम है
ताली बजाओ अगर रेल फूकीं
गुड़िया की कुर्सी के नीचे में बम है
लिट्टे पे चिट्ठे लिखो शान से फिर
जाने दो जाते हैं गर जान से फिर
बेटे तुम्हारे भी, अम्मा तुम्हारी
सीना फुला कर के कहना शहादत
मेरी भी दुआ लो, मिले उनको जन्नत
या फिर
बताओ गुफाओं में, जंगल में ही क्यों
ये क्रांति का ठेका लिये फिर रहे हैं
फ़कत इस लिये कि है जंगल में मंगल
जो बाहर ये आये तो सच खुल रहेगा
नकाबों के पीछे लुटेरे छुपे हैं
किसी के भी हक की नहीं है लड़ाई
फटे को छुपाने को की है कढाई
बहुत बढिया लिखा है आपने। और हाँ, मैंने यह कविता आपके आवाज में सुनी है। बहुत सुंदर स्वर दिया है आपने।
राजीव जी आपने हमारे बस्तर की हकीकत बयां की है आपका दर्द पूरी कविता में झलक रहा है । शव्दों में जो आंसू हैं उसे हम देख रहे हैं और अनुभव कर रहे हैं । कलमकारों को इस कविता से सीख लेनी चाहिए आपने कहा कि लेखन नही सत्य का अपहरण है जबकि कलमकारों का मूल कर्तव्य सत्य को सामने लाना है । कलमकार बस्तर की मिटटी चखें, जड को देखें तब ही बस्तर की वास्तविक स्थिति मालूम हो पायेगी । रातीव जी बहुत खूब । आपने हमारे मन की बात लिखी है । फटे को छुपाने को ही है कढाई । धन्यवाद मेरे भाई हो मेरी तुकबंदी आपको अर्पित – ‘ हो धन्य धन्य राजीव जगत के विद्रूपों को किये उजागर, ले शव्द बाण, कर कलम सजाकर । ‘
राजीव जी,
सम सामयिक संदर्भ में आपकी त्वरित व उत्कृष्ट रचनाओं के सम्मुख मैं अपने आपको नतमस्तक पाता हूं.. इसके पूर्व में भी राजस्थान के संदर्भ में आपकी लेखनी से एक अद्भुत रचना पधारो म्हारे देश ने झक्झोर दिया था.
बस्तर के नक्सलियों के प्रति घड़ियाली आंसु बहाने वाले तथाकथित पत्रकारों व रचनाकारों की आपनें जिस प्रकार खबर ली है..ऎसी नायाब कृति मुझे पहली बार देखने को मिली... मेरी हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद स्विकार करें...
तनहा कवि जी ने लिखा है कि उन्होंने आपकी आवात में यह कविता सुनी है .. क्या आप दूरदर्शन पर नियमित आते हैं ? यदि हां, तो कृपया प्रसारण तिथी व समय सूचित करने का कष्ट करेंगे...
Bahut sahi likha hai apane.. sab itna kah gaye kya kahun main aur.. par kawita dil ko chhoti hai.. aakrosh aur bhaawookta ka sahi samnway hai... aapka uddeshay safal ho yahi kaamana hai..
Manya
आप की इस मुहिम मे मुझे अपने साथ समझें ।
बेहद नपेतुले भावुक शब्दों मे लिखी गई क्रान्तिकारी कविता, उस कलम से, जो बस्तर मे बनी है, उन हाथों से, जो बस्तर की मिट्टी खेलखेल कर मज़बूत हुये है ।
एक राजस्थानी होने के नाते मुझसे ज्यादा अच्छा कौन सामझ सकता है, मातृभुमि की आग को, जिसे अपने ही जलाते है, और दूसरे आकर वहाँ अपनी रोटियाँ सेकते है। जब राज्य जल रहा था तो बजाय उसे बुझाने के, ये तथाकथित पत्रकार वहाँ की एक फुटेज को तीन दिन तक दिखाते रहे ।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद,
आर्यमनु ।
समझ सकता हूं मैं इस कविता में छिपा आपका दर्द!!
राजीव जी,बस्तर की उर्जावान माटी के,जिसकी नैसर्गिकता के हम दर्शक ही रहे हैं वहां और वहां चल रही इस हिंसा या हिंसात्मक सोच से जब हम दर्शकों का मन ही दुखी है तो फ़िर तो आपकी यह आवाज़ जायज़ ही है क्योंकि आपने तो इस माटी में जन्म लिया है!
बस कोशिश यही है कि आपके इस दर्द में सहभागी बनकर आपकी आवाज से पुरजोर तरीके से अपनी आवाज मिला सकें ।
बस्तर मामले में आप मुझे अपने साथ ही खड़ा पाएंगे!!
बस्तर में चल रहे हिंसा पर लिखने की मेरी कोशिशों पर नज़र डालिएगा
नक्सली हिंसा और हमारे कुछ पत्रकार बंधु
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व एक्टिविस्ट के नाम एक
छत्तीसगढ़िया का पत्र
कलम का चलने से इनकार
मिले सुर मेरा तुम्हारा ।
तो स्वर बने हमा,,,,रा ।
नमन
राजीव जी,ऐसी रचनायें अत्यन्त आवश्यक हैं आज के समाज के लिये
ऐसे करारे तमाचे शायद आँखें खोल सकें इन तथाकथित बुद्धिजीवियों और लेखनी तथा साहित्य के स्वयंभू कर्णधारों की, जिनके लिये ऐसी घटनायें मात्र एक विषयवस्तु हैं... केवल ए.सी. स्टूडियोज में बैठ कर चर्चा करने से ही इनका कर्तव्य पूरा हो जाता है, और राजीव जी शर्म की पहुँच वहाँ तक नहीं है शायद
बस्तर....
डोगरा साहब, आपका वादा हमने सम्भाल कर रख लिया है लेकिन जरा जल्दी कीजिये...त्रासदी की शुरुआत तो हो ही चुकी है और सम्भवतः आप भी इससे परिचित होंगे, इस कविता को जन सामान्य के लिये प्रकाशित करवाना चाहिये जिससे और भी लोग पढे इसे
राजीव जी, आपका आक्रोश स्पष्ट दिख रहा है, और व्यथा भी
"अगर नक्सली सोच में तथ्य है तो
गलत क्या कि कश्मीर में गर लपट है
सिक्किम का रोना, धोना असम का
नागा की धरती के झगड़ों में दम है"
"कलम हाँथ में तो खुदा बन गये हो
अरे इतना गहरा कुवाँ बन गये हो
फिर भी न मिलता चुल्लू में पानी
हमारे ही तुम आस्तीनों में पल कर
हमारा ही बुनते रहे तुम कफ़न है"
"मगर खोटे सिक्के कभी चल सके हैं?
बताओ गुफाओं में, जंगल में ही क्यों
ये क्रांति का ठेका लिये फिर रहे हैं"
"उन्हें ये पता है वो क्या कर रहे हैं
लेखन नहीं, सत्य का अपहरण है"
"लिखो, लेखनी तो है रोटी तुम्हारी
मगर हर निवाले में बोटी हमारी"
क्या कहें, ईश्वर सदबुद्धि दे इन ठेकेदारों को, आप परेशान न हों आशा करते हैं कि इन्हें शरम आयेगी
अद्भुत लेखन
सस्नेह
गौरव शुक्ल
Is par koi comment nahi likha jaa sakta....yeh kavita se badhkar hai....sunkar hi tarr ho gaye....
ऱाजीव जी, हमें तो ये हिंसा को महिमामंडित करने वाले मानसिक तौर पर बिमार लगते है.महानता के व्यामोह से ग्रसित.आप की रचना शायद उनका भ्रम तोड़े.
-Dr.R Giri
राजीव जी, ये पूरी तरह सही है कि ये लोग बौद्दिक आतंकवाद फेला रहे हैं, अपनी रोटी की जुगाढ के चक्कर में आग लगाई जा रही है। राजस्थान भी इसी आग में झुलसा है। अब जब पीढी पास आने की कोशिश कर रही है ये ठेकेदार उसमें जहर भरने में कोई कसर नहीं छोढ रहे। बात वही रटी रटाई- आप लोगों पर अत्याचार हुआ है, हम मसीहा हैं , जो आप की बात कर रहे हैं। बार बार ये बात कुरेदकर ये अलगाव भरते जा रहे हैं।
सात सौ ngo हैं बारत में जो केवल आदिवासी कल्याण के नाम पर होटलों में मींटिग करती हैं। मेरा उनसे वास्ता पढता रहता है, और कई बार चकित रह गाता हूँ बहुत कुछ सोचकर.......
हर बात का समाधान क्रांन्ति नहीं को सकती, और क्रान्ती का स्वरूप कभी इताना घृणित नहीं होता जो हो रहा है।
मैंने कभी इसी तबके के लिये लिखा था-
"मत बहको इनकी बातों से , आओ युवाओ, आओ,
क्रान्ति- क्रान्ति कहने वालों को थोडा प्यार सिखाओ।
इंकलाब, जेहाद बहाने कितना खून बहाओगे,
क्या मरघट पर बैठ अकेले राम राम चिल्लाओगे।"
भाई साहब सोच का अतिक्रमण बडा घातक होता है, और इसका जबाब भी इसी वर्ग का ही जागरूक दे सकता।
आज आपके भीतर के छिपे पत्रकार को भी जान लिया। साधुवाद।
'खबरी'
9811852336
What ever is happening its bad.
आप जब लिखते हैं तो सिर्फ आप ही नहीं लिखते। आप के साथ लाखों और लोग जुड़ जाते हैं, जिनके साथ कोई नहीं है।आप शब्द भी नहीं लिखते, कई बार तो लगता है कि अंगारे लिखे हुए हैं और ऐसे में कविता के बारे में नहीं सोचा जाता, बल्कि मैं आपके बस्तर में पहुंच जाता हूं। जब आप साधारण से दो या तीन अक्षरों वाले शब्दों में बहुत असाधारण बात अचानक ही कह जाते हैं तो बड़े बड़े आलंकारिक शब्दों की कविता लिखने वाले भावहीन कवियों की पूरी जमात पर अपने आप ही तरस आ जाता है।
जब आप व्यंग्य कर रहे होते हैं तो आपकी कलम की नोक तलवार से भी तीखी हो जाती है और कुछ कहे बिना ही क्रांति शुरु हो जाती है।
कुछ अंगारे छाँट रहा हूं।
”शरम” लफ्ज़ है, नाम क्या ये सुना है
तो देखो न दर्पण, तुम्हें क्यों न आयी?
सीना फुला कर के कहना शहादत
मेरी भी दुआ लो, मिले उनको जन्नत
अरे इतना गहरा कुवाँ बन गये हो
फिर भी न मिलता चुल्लू में पानी
सिक्के का पहलू दिखाते हो हमको
मगर खोटे सिक्के कभी चल सके हैं?
उन्हें ये पता है वो क्या कर रहे हैं
लेखन नहीं, सत्य का अपहरण है
लिखो, लेखनी तो है रोटी तुम्हारी
मगर हर निवाले में बोटी हमारी
समर्थन करो, लाल बस्तर बना दो
कब्रों के फिर आँकड़े तुम लिखोगे
यह भी लिखोगे तरक्की नहीं है
बच्चों ने अब तक किताबें न देखी
सूरज नहीं है, उजाले न देखे
कभी पेट भरते निवाले न देखे
मगर इसकी जड़ में वही तो छिपे हैं
बोदी को बंदूक जिसने थमायी
जिसे इंकलाबी बताते हो विद्वन
कफननोच हैं वो, ये उसकी कमाई
लिखने से पहले लेखन की अस्मत
खुद ही न लूटो, मेरी प्रार्थना है
संजीवनी चाहिये तुमको मुर्दों
समझो, कहाँ सोच तेरी दफन है
कलम घसीटों तुम्हें नमन है...
उनको छोड़िये, आपको नमन,राजीव जी
मेरी राय शायद सब लोगो से जुदा है......
कवि अपने भावों में बहते हुये ज्यादा प्रतीत हो रहे हैं ;बजाय कि इस सम्वेदनशील विषय की परिसीमा मे बंध कर अपनी लेखनी का जादू चलाते, उन्होने अपने आप को एक विवादास्पद अग्नि मे झोंकने की कोशिश की है।.......
बुरा नही मानेंगे , पर स्वनामधन्य राजेन्द्र यादव जी की परिपाटी को ’महाजनो येन गतः स पन्था ’
मान लेना रचनाधर्मिता का आध्यात्म नही है।
कविता को अनावश्यक रूप से बड़ा किया गया है....थोड़ी और छोटी होती , तो ज्यादा सटीक बैठती ।
ये सारी आलोचना केवल इसीलिए है कि रचयिता से मेरी अपेक्षा थोड़ी ज्यादा है.... अगर कोई भी लिखता , तो मैं भी गिने-चुने चार शब्दों का उपयोग कर वाह-वाह कर देता।
आशा है , राजीव जी इसे सही रूप मे लेंगे।
साभार,
श्रवण
अभिनव said...
पाडकास्ट पर टिप्पणी हो नहीं पा रही है, यह कलम घसीटो कविता पर टिप्पणी है,
------------------
भाई राजीव जी,
आपकी रचना में आग है, हम भी बस्तर में रहे हैं, दन्तेवाड़ा में। आपकी बातों के सच की चुभन महसूस कर पा रहा हूँ। उस समय आपसे परिचय नहीं था, अन्यथा साक्षात आपको सुनते। खैर वह अवसर अवश्य आएगा।
ये पंक्तियाँ विशेष रूप से पसंद आईं,
बड़े विचारक हो तुम तो भाई,
चने बिक रहे हैं उसी लेखनी पर,
ज़रा सोच पर अपनी पोंछा लगाओ,
कलम हाथ में तो खुदा बन गए हो,
नकाबों के पीछे लुटेरे छिपे हैं,
अभिनव
rajeev ji jab jab shahar main dange janmain kahi na kahi koi chalak se log kinhi bhole man ko badhkane ka kaam kar rahe the
aapka aakorsh sahi hai in sabhi logon ki sharam aani chahiye jinhone kisi chhote se sensitive matter ko badha kar diya hai
bahut dino ke baad hindiyugm aana hua aapki is rachna ko maine aapki aawaj main bhi suna karun aawaj jaise vedna sahan na ho paa rahi hai
kavi waqyi samvedan sheel hai
सिफर जी की टिप्पणी से मै सहमत नही ।
लगता है, जैसे सारी टिप्पणियों मे सबसे जुदा दिखने की जुगत मात्र है ।
किसी रचना की आलोचना गलत बात नही, किन्तु आलोचना में सही तथ्यों का समावेश होना आवश्यक है, जो सिफर जी पेश नही कर पाये ।
वे कहते है कि कविता अनावश्यक रुप से लम्बी है, मुझे क्या आपको छोडकर यहाँ ऐसा किसी को महसूस हुआ, मुझे तो नही लगा ? कविता की लम्बाई कही भी कोफ्त पैदा नही करती, वरन् तथ्यात्मक विश्लेषण करती है, फिर लम्बाई जैसे मुद्दे पर बात करना॰॰॰॰॰॰॰कल को तो मधुशाला, मधुबाला॰॰॰॰ भी आपको ॰॰॰॰॰॰
सिफर जी कहते है, "कवि अपने भावों मे बहते ज्यादा प्रतीत हो रहे है ।" कवि अगर भावो मे नही बहेगा तो फिर लिखेगा क्या ? कविता मे हाथ नही दिल और दिमाग चलते है महोदय ।
सिफर जी आगे कहते है कि कवि ने अपने को विवादास्पद अग्नि मे झोंकने की कोशिश की है ।
यह तो हर सच्चा कवि करता है, उसे विवादों से क्या लेना ? वह तो अपने दिल की बात से समाज को जागृत करने की बात करता है, हर सोये को जगाने की प्रेरणा देता है । सही मायनो मे यही तो कवि का कर्तव्य भी है ।
सिफर जी से क्षमाप्रार्थी हूँ, तल्ख टिप्पणियों के लिये, पर वही किया जो दिल ने कहा, इतना बडा नही कि अभी दिमाग से सोचना शुरु करुँ ।
आर्यमनु
बाकी लोगो / समालोचको के लिये नही टिप्पणी दी थी मैने... राजीव जी के लिये वो श्रॄद्धा-सुमन थे। ... अभी तो नही, पर यदि कुछ अंतराल के पश्चात यही रचना कोई बिना कवि का नाम जाने पढेगा , तब शायद मेरी राय से ताल्लुक रखने वाले कुछ मित्र मिल जाऐंगे । मुक्तिबोध जी की आग रखना ठीक है , पर एक ही जगह सब कुछ समाविष्ट कर देना केवल ’ॐ नमः स्वाहा ’ की ही ध्वनि प्रस्तुत करता है।... कवियों को आलोचना के भावो पर ध्यान देना चाहिये, न कि उसके तथ्यात्मक विश्लेषन पर ।
फिर भी दिल से चलने वाले कुछ मित्रो को ठेस पहुँची हो , तो क्षमाप्रार्थी हूँ ।
सस्नेह,
श्रवण
@सिफर साहब
आपको नहीं लगता कि कभी कभी हम पाठको को भी थोडा जिम्मेदारी दिखानी चाहिये
ऐसे संवेदनशील विषय वाह वाह करने के लिये होते भी नहीं, इन्हें तो जी कर देखना चाहिये, प्रयास करिये आनन्द आयेगा
हम हर जगह कविता की लम्बाई चौडाई देख्नने लगें यह तो उचित नहीं, फिर तो यही मान लेते हैं कि हमारे लिये कविता अभिव्यक्ति का साधन या संप्रेषणा का माध्यमहीं अपितु मनोरंजन का साधन है और अगर वास्तव में ऐसा है तो बहुत ही दुःख की बात है
@आर्य मनु
आपको शायद बुरा इसलिये लग कि कविता में निहित भाव में डूब गये कही आप :-)
सस्नेह
गौरव शुक्ल
बात केवल लम्बाई-चौड़ाई की नही थी ..., मेरे कथन को यूँ यथावत मेरे बुद्धिजीवी मित्र-गण ले लेंगे , मैने सोचा ना था ।
कवि का बह जाना एक अलग चीज होती है (और मनोरंजन भी वही पैदा करती है), और कविता का बहाव कुछ अलग !
........ उसके दो किनारे होते हैं । वो बाढ का विप्लव ले नही आता , कल-कल की शांत क्लांति के संग बहता है। ज्यादा मीठा रसगुल्ला किसी को नही भाता ....!
रही बात भावो की और उस दर्द को समझने की, बस्तर मे मैं सालो रह चुका हूँ ।
साभार,
श्रवण
कविताएँ या यह कह लें कि साहित्य दो तरह से लिखे जाते हैं, एक जहाँ दिल चलता है और दूसरा जहाँ दिमाग चलता है। यह भी सही है कि दोनों का जहाँ साम्य हो वो अधिक सुंदर दिखलाई पड़ता है, मगर खिलवाड़ आपके साथ हो रहा हो तो दिमाग कम ही चलता है। बस्तर जितना बस्तरवासियों का हैं उतना शायद गैरबस्तरियों का नहीं, और वे इसकी पीड़ा समझ भी नहीं सकते। राजीव जी एक कवि बस्तरवासी हैं और इसका सारा प्रतिरोध कविता के माध्यम से निकला है। पत्रकारों ने जिस तरह से अपनी टी आर पी बढ़ाने के लिए नक्सलियों का साथ दिया है वैसे में कवि केवल यह सोचकर कि यह मामला विवादों को जन्म देगा, चुप्पी साध ले, साधकर लिखे तो यह भी एक बेईमानी होगी। कविताई भी कलमकार ही है, पत्रकारों का जितना धर्म है समाज के प्रति उतना ही सभी का है, और ऐसे में राजीव के यह शब्द अगर बाढ़ की तरह भी निकल गये तो आश्चर्य नहीं।
ख़बरी जी से ज्ञात हुआ कि उनके साथ के पत्रकार भाई-बंधु कवि से इत्तेफ़ाक नहीं रखते, लेकिन मैं यह कहता हूँ कि हमने यह कहाँ कहा आप भी ऐसा सोचिए, हमने इस कविता के माध्यम से सभी लोगों के विचार आमंत्रित किए हैं, हमने हिम्मत करके अपनी बात रखी है, अगर आपको आवश्यक लगता हो तो अपने विचार रखिए।
श्रवण जी,
आपकी बात बिलकुल ठीक है कि कई लोगों ने आपकी समालोचना को सकारात्मक नहीं लिया है। लेकिन अभी भी आपका आदेश जिसके लिए है, उसका उत्तर आना शेष है।
हाँ आपने जो लिखा है कि श्रीमान राजेन्द्र यादव की भाँति यह कवि भी लोकप्रियता के लिए इस विषय को चुना है तो यह गलत होगा, वैसे मैं कवि के हृदय में नहीं बैठा हूँ। मगर यदि लिखवैया आस-पास में घट रही घटनाओं से विप्लवित नहीं होता तो कम से कम मैं उसे लेखक का दर्जा नहीं दे सकता।
rajeev ji
kavita achhi likhi hai.per ismain dil kum aur dimaag jyada laga hai. kavita likhte samay thoda sa bhav bhi a jaye to sone main suhaga ho jaata hai.samasyaen akarshit karti hain aur aap unper sochte hain ye kafi utsahit karne wali baat hai. God bless u
@सिफर जी
चलिये, इस चर्चा से एक लाभ हुआ कि आपका नाम तो पता चला :-)
अन्यथा न लीजिये मित्र ...
किन्तु यह हमेशा से ही देखने में आता रहा है कि ऐसे अति संवेदनशील विषय पर मूल भाव को छोड कर निरर्थक चर्चा शुरु हो जाती है तो क्षोभ होता है
बस यही कहना चाह रहा था
सस्नेह
गौरव शुक्ल
मैंने बस्तर के बारे में बहुत नही पढा है । लेकिन कलम घसीटों तुम्हें नमन है पढने के बाद यह समझ सकता हू कि स्थिति वह कि खराब होगी । आपने जो भी लिखना चाहा है आप उसमे पूर्णरुपेण सफल हुए हैं, भावपूर्ण कविता
@ सिफर जी,
मैं शैलेश जी से इत्तफाक रखता हू कि " कविता / साहित्य दो तरह से लिखे जाते हैं, एक जहाँ दिल चलता है और दूसरा जहाँ दिमाग चलता है। यह भी सही है कि दोनों का जहाँ साम्य हो वो अधिक सुंदर दिखलाई पड़ता है, मगर खिलवाड़ आपके साथ हो रहा हो तो दिमाग कम ही चलता है। " मुझे नही पता था कि बात इतनी बढ जायेगी ॰॰॰॰॰॰ आपकी टिप्पणी को पढा, जो दिल ने कहा, लिख दिया, इस दौरान अगर आपकी भावनाओं को ठेस लगी हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ ।
@ गौरव जी,
आपका विश्लेषण भी सटीक लगा, ठीक कहा आपने कि ""कभी कभी हम पाठको को भी थोडा जिम्मेदारी दिखानी चाहिये, ऐसे संवेदनशील विषय वाह वाह करने के लिये होते भी नहीं, इन्हें तो जी कर देखना चाहिये ।"
शायद कमी कुछ मेरी तरफ से रह गयी । मैं आप सभी से बहुत छोटा हूँ और साहित्य का अभी क,ख,ग॰॰॰॰॰ सीख रहा हूँ, और आरम्भ की गलतियां तो प्रभु भी माफ कर देता है ।
@ शैलेश जी,
सबसे अधिक क्षमाप्रार्थी आपसे हूँ। टिप्पणियों को छोड भी दें, तब भी शुरुआत मेरी तरफ से हुई ।
मेरा यक़ीन मानिये, बात इतनी दूर तलक़ जायेगी, सोचा न था। भविष्य मे दिल और दिमाग को साथ रखकर कुछ लिखूँगा, इतना य़कीन दिलाता हूँ।
"हाथ जोड्या माफी री अरदास है॰॰॰॰"
आर्य मनु ।
मनु भाई,
बात ना बढी थी ना दूर तलक गई थी... वो सिर्फ नज्मों मे ही होता है । बस हम सब ने अपनी अपनी बातो को रखा। और सही मे शैलेश जी तथा हिन्दी-युग्म के अन्य कर्णधारो की मेहनत का असर इस पटल पर अब दिखने लगा है ।
आपके जज्बे को सलाम करते हुए आपसे ये निवेदन करूँगा कि भविष्य मे भी आप यूँ ही दिल से सोचे एवं आपकी लेखनी के स्याही की गंगोत्री भी वहीं हो ..... ।
शैलेश जी ,
सौहाद्र एवं ’वाह-वाह’ का माहौल बिगाड़ने के लिए आपसे क्षमा चाहूँगा। राजीव जी से मेरा सीधा सम्पर्क हो गया है और सारी बातें हो गयी है, जिसे इस पटल पर मै लाना नही चाहता । ’हिन्दी-युग्म’ इसी तरह से विस्तृत होता चले , यही मेरी शुभकामना है। अगर मेरी टिप्पणी के किसी अंश या
भाषा से कोई असंसदीय परिवेश( या संसदीय- व्यंग्यात्मक रूप मे ) उत्पन्न हुआ हो, तो माफी चाहूँगा।
गौरव जी,
एक तटस्थ मध्यस्थता के लिए साधुवाद।
सस्नेह,
श्रवण
मैं इस चर्चा के अंत में अपनी बात भी रखना चाहूँगा। श्रवण जी की बात से प्रारंभ करता हूँ...यह सत्य है कि कविता एक आक्रोश है और इसकी लम्बाई अधिक हो गयी है। यह भी सत्य है कि कविता में शिल्पगत कई खामियाँ हैं, जिनसे मैं वाकिफ था। कविता को पोस्ट करने से पहले मैनें शैलेश जी को यह कहते हुए सुनाई थी कि इसे मैं युग्म पर नहीं डालना चाहता। किंतु उनसे चर्चा से दर्मयान मैं सहमत हुआ कि इस आक्रोश को इसी रूप में पाठको के सम्मुख प्रस्तुत कर दूं। इस रूप में भी इसकी सार्थकता है और यह सही स्थान पर चोट करने में सक्षम है। श्रवण जी की पारखी नज़रों और स्वयं से अपेक्षाओं पर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई है।
आर्य मनु और गौरव जी के स्नेह नें अभिभूत किया है। उनके शब्द मेरे लिये उनका स्नेह है जिसे मैनें अनुपम निधि की तरह सम्भाल कर रख लिया है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आर्य मनु एवम् श्रवण जी,
इसमें क्षमा माँगने या अफ़सोस जताने की कोई बात नहीं है। यह पूरे हिन्द-युग्म के लिए प्रसन्नता की बात है कि हमारी बातों को लोग गम्भीरता से ले रहे हैं। ब्लॉग की यही प्रासंगकिता है कि यहाँ लेखक और पाठक एक दूसरे से हर प्रकार की चर्चा कर सकते हैं। हम हमेशा से ऐसे पाठक ढूँढते रहे हैं जो कविताओं को पढ़कर वाहवाही के स्थान पर उसकी समुचित समालोचना करें। और हमें खुशी है कि आप दोनों के रूप में हमें सुधी पाठक मिले हैं।
आप दोनों की भाषा से किसी भी प्रकार का असंसदीय परिवेश नहीं बना है , बल्कि एक सार्थक चर्चा हुई है।
श्रवण जी,
इस समूह का नाम 'हिन्द-युग्म' है, वैसे कई जगह इसे 'हिन्दी-युग्म' की संज्ञा मिल चुकी है।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)